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अलग प्रकृति के दो अनशन

संपादकीय ब्लॉग
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4 मई को एक अंग्रेजी न्यूज चैनल ने अपने नाजुकमिजाज रिपोर्टरों को बाबा रामदेव के ‘योग शिविर’ की रिपोर्टिग के लिए दिल्ली के रामलीला मैदान में भेजा। बॉलीवुड स्टारों की रिपोर्टिग करने वाली एक रिपोर्टर ने आम जनजीवन का यह रूप नहीं देखा था। वह ‘योगा के रॉक स्टार’ के समर्थन में देश के कोने-कोने से आए लोगों की विशाल संख्या और उनके उत्साह को आंखें फाड़-फाड़कर देख रही थीं। वह इतनी बड़ी संख्या में मीडियाकर्मियों की उपस्थिति से भी अचंभित थीं। उन्होंने एक सांस में कहा-यहां इतने चैनल हैं, जिनके बारे में मैंने सुना तक नहीं है। उनके लिए जिनके टीवी सेट टॉप बॉक्स के जरिये मनोरंजन और समाचार चैनल चलते हैं, यह अनभिज्ञता समझ में आती है। जमीन से कटे ये पत्रकार रहस्यमयी भारत की तस्वीरें दिखाने में ही संतुष्ट रहते हैं, जिनमें जीने की कला सिखाने वाले श्री श्री रविशंकर का दर्शन अहम स्थान हासिल करता है। ये ग्रामीण जीवन को भी रूमानियत के साथ प्रदर्शित करते हैं और खाप पंचायतों के तालिबान सरीखे फैसलों को देख कर ये खौफजदा हो जाते हैं।


इस प्रकार के रूमानी पत्रकार इस तथ्य से अनभिज्ञ हैं कि भारत का बहुआयामी स्वरूप एक सच्चाई है। यह भी स्वयंसिद्ध है कि भारत के जनमानस और जटिल हालात चुनाव के समय ही राष्ट्रीय या क्षेत्रीय मीडिया में कुछ हद तक प्रतिबिंबित होते हैं। यह मीडिया की वरीयता में ही नहीं है कि वह समाज में सौंदर्यपरक और सामाजिक आवेगों में दृष्टिगोचर परिवर्तनों की पड़ताल करे।


पिछले तीन-चार साल से रामदेव के स्वास्थ्य मेले और राष्ट्रभक्ति के निहितार्थो की चर्चा है। मुझे लगता है कि रामदेव का अपने अभियान के विस्तार का फैसला और सरकार से काले धन व भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई की मांग महत्वपूर्ण हैं। इसके लिए उन्हें गैरमहानगरीय लोगों से संपर्को से शक्ति मिली है। अन्ना हजारे और रामदेव के सिविल सोसायटी आंदोलनों की प्रकृति में तीखे वर्ग भेद हैं। पुराने गांधीवादी और उनकी टीम आधुनिक शिक्षा से लैस और वैश्विक पहुंच वाली है। इनमें मैगसेसे पुरस्कार से पुरस्कृत व्यक्ति और प्रख्यात कानूनविद शामिल हैं। ये विकास और राजनीति के आधुनिक मुहावरों से परिचित हैं। इस भाषा से मुख्यधारा का मीडिया सहजता और जुड़ाव महसूस करता है और इसका सम्मान करता है।


अन्ना आंदोलन के तीन महत्वपूर्ण घटक हैं। ये समूह हैं-पेशेवर एक्टिविस्टों का ऐसा समूह जो संगठित राजनीति से घृणा करता है, वरिष्ठ नागरिक, जो विश्व के नैतिक पतन से भयाक्रांत हैं और आदर्शवादी युवा, जो मानते हैं कि सोशल मीडिया नेटवर्किग के जरिए बदलाव संभव है। अन्ना आंदोलन मेड इन इंडिया अभियान है। पिछले दिनों दिल्ली के जंतर मंतर पर उनके अनशन में बिना किसी प्रलोभन या सांगठनिक प्रयास के ही भीड़ उमड़ी थी। हालांकि इसमें टीवी चैनलों का भी बड़ा हाथ था। इसी कारण सरकार को नए लोकपाल बिल के मसौदे को तैयार करने वाली संयुक्त कमेटी की अन्ना की मांग के आगे झुकना पड़ा। इसमें संदेह नहीं कि इसमें अन्ना हजारे के मनमोहिनी व्यक्तित्व का भी बड़ा हाथ रहा, जो सादगी और संजीदगी के प्रतिरूप हैं। हालांकि यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि क्या अन्ना के अनशन की सफलता में अनशन स्थल जंतर मंतर की भी भूमिका है?


अन्ना हजारे के अनशन में पांच हजार लोगों से ही जंतर मंतर पूरा भर गया, जबकि रामदेव ने अपने प्रदर्शन की शुरुआत ही करीब 40 हजार लोगों से की थी। अन्ना हजारे के अधिकांश समर्थक राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र से संबद्ध थे, जबकि योगगुरु ने पूरे देश भर से लोगों को इकट्ठा किया था। इसके बावजूद सरकार ने दंगे की आशंका का खतरा उठाते हुए भी आधी रात को रामदेव और उनके समर्थकों पर धावा बोल दिया। इन दोहरे मापदंडों की व्याख्या किस प्रकार की जा सकती है?


जवाब स्पष्ट है। अन्ना हजारे जिस सिविल समाज का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, वह महानगरीय मध्यम वर्ग की श्रेणी में आता है। रामदेव का समर्थन आधार मुख्यत: छोटे शहरों और गांवों से संबद्ध था और वह चमक-दमक से कोसों दूर था। अंग्रेजी भाषी मीडिया इस अभियान के विरोध में था और इसे आरएसएस के एक और गोरक्षा प्रदर्शन की तर्ज पर पेश कर रहा था। रामदेव के समर्थन में एक भी बॉलीवुड स्टार आगे नहीं आया। यहां तक कि अन्ना हजारे भी स्टेज पर आने को लेकर दुविधाग्रस्त रहे। यह उस तरह का शक्ति प्रदर्शन नहीं था, जिससे दिल्ली की जनता परिचित है। उनके लिए यह रूढि़वादी लोगों का एक जमावड़ा भर था।


अंग्रेजी चैनलों के संशय के विपरीत हिंदी चैनलों ने रामदेव प्रकरण को गंभीरता और ईमानदारी से दिखाया। उनके दर्शकों के लिए रामदेव श्रद्धेय हैं, न कि ऐसा व्यक्ति जिसका अर्थशास्त्र के अधकचरे ज्ञान पर उपहास उड़ाया जाए। दोनों आंदोलनों में तीखे वर्ग विभेद के बारे में कोई संदेह नहीं है। पिछली दफा मैंने अयोध्या आंदोलन के दौरान इसे अनुभव किया था। 1990 में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा से पहले तक महानगरीय भारत रामजन्मभूमि विवाद महत्व नहीं देता था। यह देश के अंतर में मचल रहे भावनाओं के ज्वार को महसूस नहीं कर पाया और मिथ्या चेतना बताकर इसका तिरस्कार करता रहा।


यह कारोबारी योगी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की पैठ हिंदी पट्टी में करने में सफल रहा है। उन्होंने भ्रष्ट शासन के खिलाफ जनाक्रोश को अभिव्यक्ति दी। यह देखना दिलचस्प है कि विदेशों में काले धन को वापस लाने की रामदेव की प्रमुख मांग के स्थान पर बड़ी चतुराई से अंग्रेजी पर क्षेत्रीय भाषाओं को वरीयता देने की उनकी एक अन्य छोटी मांग को प्रमुखता दी गई। रामदेव ने विदेशियों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंक दिया है।


हिंदू आस्था परंपरागत रूप से जातीय और क्षेत्रीय रही है। फिर भी, कुछ सामुदायिक अंतरधाराओं ने इन विभाजनों को खुद में सम्मिलित किया है। पिछले दो दशकों के दौरान एक नए सामुदायिक विश्वास ने हिंदू जगत में नई ऊर्जा का संचार किया है। इसमें ब्राह्मणवाद को हाशिये पर धकेला जाना प्रमुख है। जाति से यादव रामदेव इस अवधारणा का मूर्त रूप हैं। उनके साथ खुला युद्ध छेड़कर कांग्रेस ने गलत आकलन किया है।


[स्वप्न दासगुप्ता: लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं]


साभार : जागरण नज़रिया


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