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देश की निगाहें पिछले कई दिनों से अयोध्या प्रकरण की ओर लगी हुई हैं. सभी के मन में बस यही उत्कंठा है कि देखते हैं फैसले में क्या होता है. पहले चौबीस सितंबर की तिथि घोषित हुई फिर उच्चतम न्यायालय ने एक हफ्ते के लिए मामले को लटका दिया. और फिर आज यानी 30 सितंबर को फैसले की घड़ी आ ही गयी.
चारो ओर भय और संदेह से ज्यादा कौतुहल का माहौल व्याप्त है लेकिन इसकी व्याख्या अलग-अलग ढंग से की जा रही है. युवा पीढ़ी हैरत में है कि भई क्या बात है चारो ओर अयोध्या-अयोध्या की रट लगी हुई है. जैसे आज कोई भूचाल आने वाला है. एक विप्लव जो सब कुछ जला के राख कर देने वाला है. इस मसले को बिलकुल भी ना जानने वाले ये कहते दिख रहे हैं कि कर्फ्यू लग सकता है इसलिए बाहर निकलना खतरनाक है.
और इस माहौल का जिम्मेदार कौन है. इतनी गहमा-गहमी के लिए क्या हमारे बुद्धिजीवी और बाजारवाद की शिकार मीडिया जिम्मेदार नहीं हैं?
यकीनन ये माहौल बनाया गया है बिकने के लिए, ज्यादा से ज्यादा चर्चित होने और नाम कमाने के लिए. बाजार से पैसा तभी उगाहा जा सकता है जबकि माहौल गरम हो, लोग डर रहे हों. डर एक रोमांच देता है और कई तरह के कौतुहल भी पैदा करता है. फिर इनकी नीति सार्थक रंग दिखाती है और पैसा आने लगता है.
बुद्धिजीवियों को पता है कि किस मुद्दे पे जनता को बरगलाया जा सकता है. चाहे हिंदू हो या मुस्लिम आस्था का प्रश्न बना के किसी विवाद को कैसे भुनाया जा सकता है? मीडिया के सलाहकारों को बस यही चिंता सताती है कि फलां मुद्दे में कितना दम है और उसका कैसे आर्थिक रूप से अधिकाधिक लाभ लिया जा सकता है.
तमाम तरह के चिंतक एक नई चिंता में घुले चले जा रहे हैं और बिन मांगी सलाह दे रहे हैं. शांति बनाए रखने की अपीलें जारी हो रही हैं. धैर्य बनाए रखें, किसी बहकावे में ना आएं ऐसे रटे-रटाए वाक्य कई दिनों से अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं.
देश का जनमत हमेशा शांति का पक्षधर रहा है . उसे धैर्य , क्षमा, संयम की शिक्षा देने की जरूरत नहीं क्योंकि ये उसे हजारो वर्षों की परंपरा से प्राप्त हैं. भारत भूमि पर निवास करने वाला प्रत्येक नागरिक ये बात भली-भांति जानता है कि उसे किन परिस्थितियों में क्या करना है अतः उसे ये बताने की जरूरत नहीं बल्कि जरूरत अपनी पिपाशाओं और महात्वाकांक्षाओं पे लगाम लगाने की है बाकी तो भारत की जनता खुद ही तय कर लेगी.
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