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मायावती की महिमा

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निर्णय लेने की क्षमता के मामले में मायावती को मनमोहन सिंह-सोनिया गांधी से भी ताकतवर मान रहे हैं राजीव सचान


मायावती ने मात्र 15 मिनट में उत्तर प्रदेश के विभाजन का प्रस्ताव विधानसभा से पारित कराकर यह साबित कर दिया कि वह जो ठान लेती हैं उसे पूरा करके दिखाती हैं-भले ही उनके राजनीतिक विरोधियों को कितना भी एतराज क्यों न हो। कोई भी राजनीतिक दल यहां तक कि छोटे राज्यों के समर्थक दल भी यह नहीं चाह रहे थे कि विधानसभा चुनाव की पूर्व संध्या पर राज्य विभाजन का प्रस्ताव आए, लेकिन मायावती को राजनीतिक रूप से यह ठीक लगा और फिर उन्होंने जितने आनन-फानन कैबिनेट से यह प्रस्ताव पारित कराया उतनी ही फुरती से विधानसभा से भी। बुरी तरह बिखरा हुआ विपक्ष राज्य सरकार की घेरेबंदी के तमाम मंसूबों के बावजूद कुछ नहीं कर सका। वह सदन में और सदन के बाहर हाथ मलता रह गया। नि:संदेह इस प्रस्ताव के पारित होने मात्र से उत्तर प्रदेश का विभाजन होने नहीं जा रहा है और इसे मायावती भी भली तरह जानती होंगी, लेकिन इससे इंकार नहीं कि यह प्रस्ताव उनके लिए राजनीतिक रूप से लाभकारी हो सकता है। उत्तर प्रदेश का विपक्ष चाहे जितना हाय-हाय करे, तथ्य यह है कि सरकारें ज्यादातर फैसले राजनीतिक हितों को ध्यान में रखकर ही लेती हैं। इस मामले में केंद्र और राज्य सरकारों की स्थिति एक जैसी है। सरकारें कई बार तो सिर्फ छवि निर्माण के लिए फैसले लेती हैं। दुर्भाग्य से इस मामले में सबसे दयनीय स्थिति मनमोहन सरकार की है। वह समाज हित के फैसले लेना तो दूर रहा, खुद अपने हित के फैसले लेने में भी नाकाम है। मनमोहन सरकार चौतरफा घेरेबंदी के बाद लोकपाल विधेयक तो लाने जा रही है, लेकिन तमाम दबाव और साथ ही जरूरत के बावजूद भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक लाने का साहस नहीं जुटा पा रही है। इसके विपरीत जब मायावती ऐसी ही स्थिति से दो-चार थीं तो उन्होंने न केवल भूमि अधिग्रहण का नया कानून पेश कर दिया, बल्कि उसे सबसे अच्छा कानून बताते हुए केंद्र सरकार को यह नसीहत भी दे डाली कि वह भी ऐसा कानून पारित करे। केंद्र सरकार वायदे के बावजूद इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठा सकी और इसी का यह परिणाम है कि संसद के शीतकालीन सत्र में भूमि अधिग्रहण विधेयक आने के आसार न के बराबर हैं।


मायावती और मनमोहन सिंह की कोई तुलना नहीं हो सकती, क्योंकि एक तो मामला केंद्र और राज्य के मुखिया का है और दूसरे जहां मनमोहन सिंह को छोटे-बड़े फैसलों के लिए कांग्रेस की ओर निहारना पड़ता होगा वहीं मायावती के इशारे के बगैर बसपा में पत्ता तक नहीं खड़क सकता। जहां मायावती बसपा का पर्याय हैं वहीं मनमोहन सिंह कांग्रेस के प्रतिनिधि भर हैं। दोनों नेताओं के स्वभाव और सोच में भी जमीन-आसमान जैसा अंतर है, लेकिन इस सबके बावजूद यदि मनमोहन सिंह तनिक राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन कर सकें तो इसमें उनका कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं है। उनसे ऐसी अपेक्षा अनुचित भी नहीं कि वह शासन के मामलों मे राजनीतिक इच्छाशक्ति प्रदर्शित करें। सच तो यह है कि उनसे ऐसी अपेक्षा की भी जा रही है। निर्णय लेने की क्षमता में उनकी कमजोरी के कारण ही जो विपक्ष पहले उन्हें कमजोर प्रधानमंत्री बताता था वह अब यहां तक कहने लगा है कि उनके मंत्री ही उनकी नहीं सुन रहे हैं। पता नहीं सच क्या है, लेकिन यह नजर आ रहा है कि उनमें अब पहले जैसा तेज-ओज नहीं। भले ही मायावती के मुकाबले मनमोहन सिंह की स्थिति बिलकुल अलग हो, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वह कड़े फैसले नहीं ले सकते। सच तो यह है कि वह यह काम कहीं अधिक आसानी से कर सकते हैं, क्योंकि उन्हें चुनावी लाभ-हानि की परवाह ही नहीं करनी।


यह पहली बार नहीं जब मायावती ने विपक्ष के विरोध के बावजूद जो ठान लिया उसे करके दिखाया। इसके पहले उन्होंने नोएडा और लखनऊ में दलित महापुरुषों की स्मृति में स्मारक और पार्क बनाने का निर्णय लिया। इसे लेकर उनका चौतरफा विरोध हुआ। उन पर मनमानी करने, सरकारी धन का दुरुपयोग करने और राज्य को पाषाण युग में ले जाने जैसे आरोप लगाए गए, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। उनके इरादे तब भी नहीं डिगे जब मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गया। आखिर में सुप्रीम कोर्ट ने कुछ शर्तो के साथ स्मारकों और पार्को के निर्माण की इजाजत दी और इस तरह से मायावती के विरोधियों को मात मिली। भले ही कोई मायावती की राजनीति और उनके तौर-तरीकों से असहमत हो, लेकिन इससे शायद ही कोई इंकार कर सके कि वह देश की सबसे ताकतवर नेता हैं। उनके समक्ष मनमोहन सिंह तो कहीं ठहरते ही नहीं, तमाम सर्वेक्षणों के जरिये बार-बार देश की सबसे ताकतवर बताई जाने वाली सोनिया गांधी भी ठहरती नहीं दिख रही हैं। संप्रग सरकार के पहले कार्यकाल में मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने, लाभ के पद मामले में संसद से त्यागपत्र देकर फिर से लोकसभा चुनाव लड़ने, नौकरशाही के विरोध के बावजूद सूचना अधिकार को अमली जामा पहनाने से लेकर ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून बनाने जैसे तमाम फैसले सोनिया गांधी की ताकत का अहसास कराते थे, लेकिन दूसरे कार्यकाल में वह एक भी ऐसा फैसला नहीं ले सकी हैं जो उन्हें ताकतवर साबित करे। अपने पहले कार्यकाल में परमाणु समझौते को लेकर अपनी सरकार को दांव पर लगाने वाले मनमोहन सिंह अब अपनी सरकार की छवि तो क्या, खुद की छवि भी नहीं बचा पा रहे हैं और इस सबके मूल में राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव और निर्णय लेने की क्षमता में ह्रास दिखता है। मौजूदा समय मायावती की किसी अन्य नेता से तुलना हो सकती है तो वे संभवत: ममता बनर्जी और जयललिता हैं। देश के अन्य नेताओं से यह तो अपेक्षित नहीं कि वे मायावती का अनुसरण करें, लेकिन उन्हें उनकी राजनीतिक इच्छाशक्ति और विशेष रूप से निर्णय लेने की क्षमता से तो कुछ सबक सीखना ही चाहिए।


लेखक राजीव सचान दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं


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