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भ्रष्टाचारी जुटाओ पार्टी

संपादकीय ब्लॉग
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Rajeev Sachanदागदार बाबूसिंह कुशवाहा को गले लगाने वाली भाजपा को जानबूझकर रसातल में जाता हुआ देख रहे हैं राजीव सचान


कालेधन के मुद्दे पर बाबा रामदेव का साथ देने, लोकपाल के मसले पर अन्ना हजारे के पीछे खड़े होने और नोट के बदले वोट मामले पर राष्ट्रव्यापी यात्रा शुरू करने वाली भाजपा ने राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में करोड़ों का गबन करने के आरोपी और मायावती के करीबी रहे बाबूसिंह कुशवाहा को शरण देकर खुद की कितनी कुसेवा की है, यह उसके एक वरिष्ठ नेता के इस बयान से साबित हो जाता है कि अब उत्तर प्रदेश में हमारा मुद्दा अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण में से साढ़े चार प्रतिशत कोटा अल्पसंख्यकों को देना होगा। इसके पहले भाजपा का यह केवल दावा ही नहीं था कि भ्रष्टाचार उसका मुख्य मुद्दा होगा, बल्कि इसे सिद्ध करने के लिए वह खासी मेहनत भी कर रही थी। उसके एक नेता किरीट सोमैया पिछले छह माह से उत्तर प्रदेश में घूम-घूमकर न केवल मायावती सरकार के कथित भ्रष्टाचार का कच्चा-चिट्ठा एकत्र कर रहे थे, बल्कि उसे सीडी और पुस्तिकाओं के जरिये सार्वजनिक भी कर रहे थे। इसी 31 दिसंबर को उन्होंने कहा था कि बाबूसिंह ने तमाम फर्जी कंपनियां बनाकर दस हजार करोड़ का घोटाला किया है, लेकिन इसके ठीक चार दिन बाद भाजपा की ओर से देश को यह बताया जा रहा था कि गंगा में आने के बाद नाले भी गंदे नहीं रहते। इसका सीधा मतलब है कि बाबूसिंह भाजपा रूपी गंगा में नाले के रूप में शामिल हुए।


बाबूसिंह कुशवाहा को भाजपा में शामिल करने के पीछे यह रणनीति बताई जा रही है कि इससे पार्टी को उत्तर प्रदेश के एक विशेष इलाके में कुशवाहा समुदाय के वोट पाने में आसानी होगी। कृपया नोट करें कि बाबूसिंह चुनाव जीतकर विधानसभा नहीं पहुंचे थे। वह विधानसभा परिषद सदस्य थे। उनकी छवि कभी भी व्यापक जनाधार वाले नेता की नहीं रही। उनकी छवि तो मायावती के कृपापात्र और उनके राजदार नेता की रही। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन से जुड़े दो सीएमओ की हत्या के बाद जब मायावती ने कथित नैतिक आधार पर उनसे इस्तीफा लिया तो आम जनता को यही संदेश गया कि अब वह उनके लिए बोझ बन गए हैं। अब जनता के लिए यह समझना कठिन है कि मायावती ने राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में घोटाले की जांच शुरू होने-यहां तक कि इसकी मांग उठने से पहले ही जिन बाबूसिंह को मंत्रिमंडल से निकाल बाहर करना जरूरी समझा उन्हें भाजपा ने सीबीआइ की जांच खत्म होने के पहले ही गले लगाना आवश्यक क्यों समझा? इस पर भी गौर करें कि उन्हें लखनऊ के बजाय दिल्ली लाकर पार्टी में शामिल किया गया। क्या वह राष्ट्रीय स्तर के नेता हैं? यदि नहीं तो उन्हें दिल्ली बुलाकर पार्टी में शामिल करके राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी की भद्द पिटवाने का काम क्यों किया गया? हालांकि भाजपा ने कुछ और दागी और बाहुबली माने जाने वाले बसपा नेताओं को भी गले लगाया है, लेकिन बाबूसिंह का पार्टी में आना तो किसी शांति सभा में बम फोड़ने जैसा है। भाजपा ने बाबूसिंह को स्थान देकर अपने हाथों अपने मुख पर कालिख मलने का काम किया है। उसने साबित कर दिया कि वह भ्रष्टाचार के मुद्दे पर पिछले एक वर्ष से जो कुछ कह और कर रही थी उसका कोई मतलब नहीं था।


यूपी के एक हिस्से में मामूली जनाधार रखने वाले, किंतु भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से अटे-सने-गुंथे पड़े बाबूसिंह कुशवाहा जब बहुत जोर लगाएंगे तो शायद भाजपा को दो-तीन सीटों का अतिरिक्त लाभ दिला पाएं, लेकिन क्या ऐसा कुछ है कि भाजपा को यूपी की सत्ता में आने के लिए बस दो-तीन सीटें ही कम पड़ रही हैं? भाजपा तो कांग्रेस से भी दो हाथ आगे निकली। यह तो समझ आता है कि गठबंधन सरकार का नेतृत्व करने वाले दल को अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए कदम-कदम पर समझौते करने पड़ते हैं और इसीलिए केंद्र की सत्ता का संचालन कर रही कांग्रेस एक समय महाभ्रष्टाचारी ए. राजा का बचाव करने के लिए मजबूर हुई, लेकिन आखिर भाजपा के सामने ऐसी क्या मजबूरी थी जो वह यूपी के महाभ्रष्टाचारी माने जाने वाले उन बाबूसिंह को गले लगा बैठी जिन्हें न कांग्रेस ने घास डाली और न ही सपा ने। राहुल गांधी को धन्यवाद कि उन्होंने बाबूसिंह को दूर से ही झिड़क दिया। सपा के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव को भी साधुवाद कि उन्होंने बाबूसिंह के अतिरिक्त बाहुबली नेता डीपी यादव का पार्टी में प्रवेश रोक दिया। क्या ऐसा नहीं लगता कि एक समय खराब छवि वाले लोगों को शरण देने वाली सपा जब सुधर रही है तब खुद को पाक साफ बताने वाली भाजपा बिगड़ने पर आमादा है। बाबूसिंह को शरण देकर भाजपा मुंह दिखाना तो दूर रहा, यह कहने लायक भी नहीं रही कि वह भ्रष्टाचार के खिलाफ है।


आखिर अब भाजपा के प्रादेशिक और राष्ट्रीय स्तर के नेता किस मुंह से यह कह सकते हैं कि उनका दल भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए प्रतिबद्ध है? क्या लालकृष्ण आडवाणी की भ्रष्टाचार के खिलाफ अलख जगाने वाली यात्रा इसीलिए थी कि बाबूसिंह जैसे नेता भाजपा में शरण पाएं? क्या भाजपा खुद को कांग्रेस से बेहतर बता सकती है? यदि भाजपा बाबूसिंह को पार्टी में बनाए रखने के लिए दृढ़ है, जैसा कि संकेत भी दिया जा रहा है तो फिर इसका मतलब है कि पिछले उसने पिछले एक वर्ष की अपनी नीति-रणनीति और राजनीति के साथ समय और श्रम को इतिहास के कूड़ेदान में फेंकने का निश्चय कर लिया है। यदि भाजपा को लोकलाज की तनिक भी परवाह है तो उसे न केवल बाबूसिंह का प्रवेश रोकना होगा, बल्कि अपने उन नेताओं के खिलाफ कार्रवाई भी करनी होगी जो उन्हें पार्टी के मंच पर लाए और जिसकी वजह से पार्टी का चाल, चेहरा और चरित्र बिगड़ने के साथ-साथ उसकी चूलें भी हिल गईं। यदि भाजपा ने इस भूल के लिए क्षमा याचना नहीं की तो देश न सही यूपी की जनता उसे क्षमा नहीं करेगी।


लेखक राजीव सचान दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं


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