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असमंजस में भाजपा

संपादकीय ब्लॉग
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Sanjay Guptप्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा एक बार फिर उथल-पुथल के दौर से गुजरती दिख रही है। यह तब है जब वह नीतिगत निर्णयों के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर निर्भर रहती है और उससे ही मार्गदर्शन प्राप्त करती है। भाजपा इस समय जिन कारणों से चर्चा में है उनमें एक है वरिष्ठ पार्टी नेता लालकृष्ण आडवाणी की आगामी रथयात्रा। राजग सरकार के समय उप प्रधानमंत्री और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष रहे आडवाणी अभी भी पार्टी के प्रभावशाली नेता हैं। वह अब तक छह बार रथयात्राएं कर चुके हैं। उनकी सातवीं रथयात्रा 11 अक्टूबर से जयप्रकाश नारायण की जन्मस्थली सिताब दियारा से शुरू होनी है। आम जनमानस उन्हें भाजपा के प्रमुख नेता के रूप में देखता है और पार्टी में भी वह शीर्ष नेता के रूप में देखे जाते हैं, लेकिन पिछले कुछ समय से उन पर यह दबाव पार्टी की ओर से ही डाला जा रहा है कि वह पीछे हटें और युवा चेहरों को आगे आने दें। हालांकि अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी युवा चेहरों के रूप में आगे आ चुके हैं, लेकिन बावजूद इसके आडवाणी कद्दावर नेता के रूप में कायम हैं। वह पार्टी के प्रत्येक महत्वपूर्ण कार्यक्रम में नेतृत्व करते दिखते हैं- वह चाहे कोई रैली हो अथवा प्रतिनिधिमंडल या फिर अन्य कोई राजनीतिक आयोजन। आडवाणी के राजनीतिक अनुभव का कोई सानी नहीं, लेकिन बावजूद इसके वह उस स्तर पर नहीं दिख रहे जो एक समय अटल बिहारी वाजपेयी का था। आडवाणी का पार्टी में ही विरोध तब शुरू हो गया था जब पाकिस्तान यात्रा के दौरान उन्होंने जिन्ना की तारीफ की थी। उन्होंने कुछ रणनीतिकारों के कहने पर न केवल जिन्ना की मजार पर चादर चढ़ाई थी, बल्कि उन्हें सेकुलर भी करार दिया था। यह एक पुराना अध्याय अवश्य है, लेकिन उससे उनका पीछा पूरी तरह नहीं छूटा।


हालांकि अभी आम चुनाव में देर है, लेकिन भाजपा एक ऐसे चेहरे को सामने लाने के लिए बेचैन दिख रही है जो देश के युवाओं को आकर्षित कर सके और साथ ही पार्टी का नेतृत्व करता हुआ दिखाई दे। चूंकि लालकृष्ण आडवाणी 84 वर्ष के हो रहे हैं इसलिए अनेक भाजपा नेता यह मानते हैं कि किसी नए नेता को आगे बढ़ाने का काम आडवाणी की छत्रछाया में नहीं हो सकता। शायद यही कारण है कि जब वह कोई पहल करते हैं तो पार्टी के अंदर ही विरोध के स्वर उभरने लग जाते हैं। पिछले दिनों उन्होंने जैसे ही रथयात्रा की घोषणा की, विरोध के स्वर उभर आए। इतना ही नहीं उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी तलब कर लिया। संघ प्रमुख मोहन भागवत से मुलाकात के बाद उन्होंने यह स्पष्ट किया कि उनकी रथयात्रा प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के लिए नहीं है, लेकिन पार्टी में ही तमाम लोग मान रहे हैं कि इस यात्रा का उद्देश्य कहीं न कहीं इस पद के लिए दावा मजबूत करना है। माना जा रहा है कि नरेंद्र मोदी ने सद्भावना उपवास का आयोजन रथयात्रा के जरिये प्रधानमंत्री पद के लिए आडवाणी की दावेदारी के जवाब में ही किया।


सच्चाई जो भी हो, लेकिन सद्भावना उपवास के बाद दिल्ली में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में मोदी की अनुपस्थिति से देश को यही संदेश गया कि वह आडवाणी की पहल से नाराज हैं। एक धारणा यह भी है कि आडवाणी ने सिताब दियारा से रथयात्रा शुरू करने का निर्णय इसलिए लिया ताकि नरेंद्र मोदी दूर रह सकें। आडवाणी की इस यात्रा का समापन दिल्ली में होगा, लेकिन अभी यह तय नहीं कि इस अवसर पर मोदी दिल्ली आएंगे या नहीं? हालांकि आडवाणी की रथयात्रा जब गुजरात से गुजरेगी तब शिष्टाचारवश नरेंद्र मोदी उसमें शिरकत कर सकते हैं, लेकिन इससे आडवाणी बनाम मोदी का सवाल शायद ही शांत हो।


चूंकि आडवाणी रथयात्रा के लिए पूरी तैयारी कर चुके हैं इसलिए अब उनके पीछे हटने का सवाल ही नहीं उठता। संभवत: उन्हें यह विश्वास है कि इस यात्रा में उन्हें व्यापक जनसमर्थन मिलेगा और उसके जरिये प्रधानमंत्री पद पर उनकी दावेदारी स्वत: मजबूत हो जाएगी। उन्होंने जिस तरह पार्टी से सलाह किए बगैर रथयात्रा की यकायक घोषणा की उससे यह भी प्रकट होता है कि कहीं न कहीं उनके मन में प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा है और फिलहाल वह अवकाश लेने के बारे में बिलकुल भी नहीं सोच रहे। इस उम्र में भी उनके शारीरिक और मानसिक रूप से पूरी तरह चुस्त-दुरुस्त होने के कारण पार्टी में कोई उन्हें यह सुझाव देने की स्थिति में भी नहीं कि अब उन्हें सक्रिय राजनीति से अवकाश ले लेना चाहिए। इसका कोई कारण भी नहीं नजर आता, लेकिन यह तय है कि उनकी रथयात्रा को लेकर भाजपा असमंजस में नजर आ रही है। यह असमंजस उसे भारी पड़ सकता है।


जब से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यह कहा है कि विपक्षी दल मध्यावधि चुनाव कराना चाह रहे हैं और उन्होंने उनकी सरकार के कुछ कमजोर बिंदु पकड़ लिए हैं तब से यह धारणा और मजबूत हुई है कि ऐसा हो भी सकता है। यदि वास्तव में मध्यावधि चुनाव हो गए तो भाजपा की आंतरिक कलह उसके लिए मुसीबत बन सकती है। आपसी खींचतान के कारण उपजा नकारात्मक माहौल उसकी बढ़त रोक सकता है। आज की राजनीति में सफलता पाने के लिए अनुकूल राजनीतिक माहौल आवश्यक है। प्रतिकूल माहौल और उपयुक्त नेतृत्व का अभाव अच्छी से अच्छी चुनावी रणनीति पर पानी फेर सकता है। भाजपा को यह समझना होगा कि उसकी अंदरूनी उठापटक उसे कमजोर कर सकती है। फिलहाल गठबंधन की राजनीति ही जारी रहनी है और भाजपा कट्टर छवि वाले चेहरे को आगे कर अपने घटकों को नाराज नहीं कर सकती है। नरेंद्र मोदी को ऐसे ही चेहरे के रूप में देखा जाता है। जब मोदी ने खुद को आगे किया तो नीतीश कुमार भी प्रधानमंत्री के दावेदार के रूप में सामने आते दिखे। राजग के घटक दल नरेंद्र मोदी के मुकाबले नीतीश कुमार को भविष्य का प्रधानमंत्री बता सकते हैं, लेकिन फिलहाल तो आडवाणी भाजपा के लिए असमंजस का कारण बने हुए हैं।


इसमें संदेह नहीं कि आडवाणी भाजपा ही नहीं, बल्कि विपक्ष के बड़े नेता हैं, लेकिन उनका वह आभामंडल नहीं जो गांधी परिवार का है। यह ठीक है कि भाजपा नेता शिष्टाचार वश आडवाणी के बारे में खुलकर अपनी राय नहीं रख पा रहे हैं, लेकिन यदि पार्टी को अपनी रणनीति मजबूत करनी है तो ठोस फैसला करना होगा। भाजपा को तय करना होगा कि या तो वह आडवाणी के पीछे पूरी शक्ति से एकजुट हो या फिर उन्हें पीछे हटने के लिए तैयार करे। इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं। भाजपा को अपने भले के लिए शीघ्र ही इन दो में से किसी एक रास्ते का चयन करना होगा।


भाजपा को लालकृष्ण आडवाणी की पीएम पद की दावेदारी के संदर्भ में अपनी दुविधा से बाहर निकलने की सलाह दे रहे हैं संजय गुप्त


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