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गहरे संकट में अर्थव्यवस्था

संपादकीय ब्लॉग
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Sanjay guptजीडीपी दर के ताजा आंकड़े को अर्थव्यवस्था के गहरे संकट में घिरने का प्रमाण मान रहे हैं संजय गुप्त

 

सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की वृद्धि दर के ताजा आंकड़ों ने नए सिरे से यह साबित कर दिया है कि देश की अर्थव्यवस्था रसातल की ओर जा रही है। आंकड़ों के अनुसार बीते वर्ष की चौथी तिमाही में जीडीपी की दर घटकर 5.3 प्रतिशत पर आ गई है। यह दर खुद सरकार के अनुमान से एक प्रतिशत नीचे है और अर्थव्यवस्था की थोड़ी-बहुत समझ रखने वाले भी इससे परिचित हैं कि विकास दर में एक प्रतिशत की गिरावट आर्थिक माहौल पर कैसा दुष्प्रभाव डालती है। पिछले नौ वर्ष की अवधि में किसी तिमाही में वृद्धि दर का 5.3 प्रतिशत के न्यूनतम स्तर पर रहना न केवल चौंकाने वाला है, बल्कि अर्थव्यवस्था के गहरे संकट में घिरने का स्पष्ट प्रमाण भी है। आश्चर्यजनक यह है कि केंद्र सरकार आर्थिक स्थिति की इस बदहाली के लिए अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों को दोष देकर सच्चाई से मुंह मोड़ने में लगी हुई है। यह सरकार की सुस्ती-अकर्मण्यता और नीतिगत अपंगता का ही नतीजा है कि न केवल घरेलू उत्पादन गिरता जा रहा है, बल्कि देशी-विदेशी निवेश में भी गिरावट आ रही है। इसी तरह आयात के मुकाबले निर्यात भी कम होता जा रहा है। संप्रग सरकार की असफलता का आलम यह है कि वह न तो मुद्रास्फीति यानी महंगाई पर नियंत्रण कर पा रही है और न ही ऐसी नीतियां बना पा रही है जिससे आने वाले समय में विकास दर में तेजी आए।

 

केंद्र सरकार के नीति-नियंता यह तो मान रहे हैं कि पर्यावरण मामले में नीतिगत अड़चनें आने से खनन क्षेत्र में निवेश धीमा पड़ा है और इसके चलते स्टील का उत्पादन लगातार गिरता जा रहा है, लेकिन वे यह बताने से इन्कार कर रहे हैं कि इन नीतिगत अड़चनों को दूर करने के लिए किया क्या जा रहा है? वे यह भी देखने-समझने से इन्कार कर रहे हैं कि खनन उद्योग को केवल पर्यावरणीय चिंताओं के कारण ही झटका नहीं लगा है, बल्कि इसके पीछे एक बड़ा कारण इस क्षेत्र में व्याप्त बेहिसाब भ्रष्टाचार पर अंकुश न लग पाना है। खनन के क्षेत्र में अनियमितताएं किसी एक राज्य तक सीमित नहीं हैं, लेकिन उन्हें दूर करने और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की कोई तत्परता नजर नहीं आती। अपने देश में जब भी किसी क्षेत्र में भ्रष्टाचार के बड़े मामले सामने आते हैं तो नौकरशाही अपने बचाव के लिए निष्कि्रयता का आवरण ओढ़ लेती है। मौजूदा समय नीतिगत निर्णयों में हीलाहवाली का एक बड़ा कारण नौकरशाही का यही रवैया है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि राजनीतिक नेतृत्व का ढुलमुल रवैया नौकरशाही को उसकी इस कमजोरी के साथ बच निकलने का रास्ता प्रदान कर रहा है। अर्थव्यवस्था की खराब हालत और बढ़ते राजकोषीय घाटे को देखते हुए केंद्र सरकार ने खर्चो में कटौती का अभियान छेड़ने का फैसला किया है, लेकिन केवल इतने से बात बनने वाली नहीं है।

 

इस कवायद का प्रतीकात्मक महत्व ही है, क्योंकि इसके जरिये आम जनता को यह राजनीतिक संदेश तो दिया जा सकता है कि सरकार फिजूलखर्ची रोकने के लिए प्रतिबद्ध है, लेकिन अर्थव्यवस्था की गंभीर चुनौतियों का समाधान नहीं किया जा सकता। अर्थव्यवस्था का संकट इसीलिए गंभीर हुआ है, क्योंकि न केवल समय पर सही फैसले लेने से बचा गया, बल्कि जो फैसले लिए भी गए वे गलत सिद्ध हुए। पेट्रोलियम पदार्थो, खाद्यान्न और उर्वरकों केसाथ-साथ अन्य मदों पर दी जाने वाली अत्यधिक सब्सिडी इसका एक उदाहरण है। सब्सिडी के इस बढ़ते हुए बोझ का खामियाजा पूरा देश भुगत रहा है। सरकार पिछले दो-तीन माह से यह वायदा तो कर रही है कि वह कुछ कड़े निर्णय लेगी, लेकिन इनकी शुरुआत होती नहीं नजर आती। कभी चुनाव के बहाने तो कभी संसद में विरोधी राजनीतिक दलों की आलोचना से बचने के कारण सरकार अनिर्णय की स्थिति से बाहर नहीं निकल पा रही है। यह सरकार के गलत फैसलों का ही परिणाम है कि विदेशी पूंजी निवेश के मोर्चे पर लगातार हताश करने वाली खबरें सामने आ रही हैं।

 

सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बावजूद विदेशी कंपनियों से जुड़े सौदों पर कराधान की प्रक्रिया में बदलाव करने और पिछली तिथि से टैक्स वसूल करने का जो फैसला किया उससे विदेशी पूंजी निवेश को करारा झटका लगना तय है। आश्चर्य नहीं कि विदेशी निवेशक इस फैसले की न केवल आलोचना कर रहे हैं, बल्कि भविष्य में भारत में विदेशी निवेश न होने का खतरा भी जता रहे हैं। सरकार को अपने इस फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए। इसके साथ ही उसे बीमा और उड्डयन के क्षेत्रों के साथ-साथ खुदरा कारोबार में विदेश निवेश को मंजूरी देने के लिए जल्द से जल्द कदम उठाने चाहिए। इससे न केवल विदेशी निवेशकों को प्रोत्साहन मिलेगा, बल्कि डालर के मुकाबले रुपये की स्थिति को सुधारने में भी मदद मिलेगी। घरेलू क्षेत्र में उत्पादन बढ़ाने के लिए सरकार को ब्याज दरों को कम करने की दिशा में भी तेजी से प्रयास करने होंगे और मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने के साथ-साथ बुनियादी ढांचे में निवेश बढ़ाने के उपाय सोचने होंगे। वैसे तो संप्रग सरकार की निर्णयहीनता और नीतिगत अपंगता के लिए उसका नेतृत्व करने वाली कांग्रेस ही जिम्मेदार है, लेकिन इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि उसके सहयोगी दलों, विशेषकर तृणमूल कांग्रेस ने अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर केंद्र सरकार को नाकाम बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

 

तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी केंद्र सरकार का हिस्सा होने के बावजूद पश्चिम बंगाल में अपना राजनीतिक एजेंडा आगे बढ़ाने में जुटी हैं। नतीजा यह है कि केंद्र सरकार अर्थव्यवस्था को मजबूती देने के लिए कोई कड़ा फैसला नहीं कर पा रही है। अच्छा हो कि ममता बनर्जी यह समझें कि आर्थिक हालात इतने खराब होते जा रहे हैं कि आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ-साथ तृणमूल कांग्रेस को भी नाको चने चबाने पड़ सकते हैं। केंद्र सरकार के पास दो वर्ष से भी कम समय बचा है और अर्थव्यवस्था की चुनौतियां बढ़ती ही जा रही हैं।

 

मौजूदा समय देश के आर्थिक-राजनीतिक हालात ऐसे हैं कि संप्रग सरकार अगले आम चुनाव में सत्ता विरोधी लहर से शायद ही बच सके। संप्रग के सहयोगी दलों को यह समझ लेना चाहिए कि कड़े आर्थिक निर्णयों के बिना न तो अर्थव्यवस्था की हालत सुधरने वाली है और न ही उनकी चुनावी नैया पार होने वाली है। यह समय भारी-भरकम सब्सिडी जारी रखने अथवा मनरेगा जैसी लोक-लुभावन योजनाओं के जरिये आम जनता को तात्कालिक संतुष्टि प्रदान करने का नहीं, बल्कि उत्पादन और निवेश बढ़ाने का है। ऐसी दूरगामी सोच रखकर ही अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर लाया जा सकता है। विपक्षी दलों को भी आर्थिक समस्याओं पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने से बचना चाहिए। पेट्रोल के मूल्यों में वृद्धि के खिलाफ राजग और अन्य दलों ने भारत बंद का जो आयोजन किया उसकी कहीं कोई आवश्यकता नहीं थी। आवश्यकता इस बात की है कि राजनीतिक दल पेट्रोलियम पदार्थो के मूल्यों को तर्कसंगत बनाने के संदर्भ में आम सहमति से किसी नतीजे पर पहुंचें। इसी तरह यदि संप्रग सरकार अपनी निर्णयहीनता से बाहर निकलने की स्थिति में नहीं तो फिर उसके लिए बेहतर यही होगा कि वह मध्यावधि चुनावों का सामना करे। मध्यावधि चुनाव एक महंगा विकल्प अवश्य है, लेकिन यह भी सही है कि संप्रग सरकार की अकर्मण्यता के कारण यह आशंका गहराने लगी है कि कहीं भारतीय अर्थव्यवस्था ऐसे दलदल में न फंस जाए जिससे निकलने में उसे बरसों लग जाएं।

 

इस आलेख के लेखक संजय गुप्त हैं

 

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