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ठहराव की ओर अर्थव्यवस्था

संपादकीय ब्लॉग
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केंद्र सरकार की अदूरदर्शिता के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था को संकट में घिरता देख रहे हैं संजय गुप्त


बीते सप्ताह जब औद्योगिक उत्पादन के आंकड़े सामने आए तो भारतीय अर्थव्यवस्था की गंभीर स्थिति सार्वजनिक होने के साथ ही आर्थिक परिदृश्य के प्रति निराशा का भाव भी और अधिक बढ़ गया। 28 महीनों में पहली बार अक्टूबर माह में औद्योगिक उत्पादन गिरकर 5.1 प्रतिशत पर आ गया। इस आंकड़े ने इसलिए और अधिक चौंकाया, क्योंकि सरकारी अनुमान के हिसाब से एक प्रतिशत की गिरावट के आसार व्यक्त किए गए थे। औद्योगिक उत्पादन में अच्छी-खासी गिरावट के आंकड़ों ने शेयर बाजार को तो प्रभावित किया ही, यह संकेत भी दिया कि भारतीय अर्थव्यवस्था ठहराव की ओर बढ़ रही है। इसके पहले विकास दर में गिरावट के आंकड़े सामने आए थे और उनके चलते अब साढ़े सात प्रतिशत की विकास दर के लक्ष्य को हासिल करना भी नामुमकिन लग रहा है। माना जा रहा है कि यदि विकास दर सात प्रतिशत से कम हुई तो नौकरियां खतरे में पड़ सकती हैं। ऐसे माहौल में रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दरों में फेरबदल न करने का फैसला निराशाजनक है, क्योंकि उद्योग जगत के साथ आम जनता ब्याज दरों में कमी की अपेक्षा कर रही थी। लगता है कि रिजर्व बैंक देश की नब्ज पकड़ पाने में अभी भी नाकाम है। वैसे रिजर्व बैंक ने जिस तरह यह कहा कि सरकार महत्वपूर्ण मुद्दों पर फैसला नहीं ले पा रही उससे इस धारणा पर मुहर ही लगती है कि केंद्र सरकार की अदूरदर्शिता के कारण अर्थव्यवस्था चौपट हो रही है, लेकिन ऐसी ही अदूरदर्शिता खुद उसने भी दिखाई है।


मुद्रास्फीति की दर को नियंत्रित करने के चक्कर में रिजर्व बैंक ब्याज दरों में लगातार वृद्धि करता गया और सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। रिजर्व बैंक ने 20 माह में 13 बार ब्याज दरें बढ़ाई। इसके चलते आम आदमी और साथ ही उद्यमियों की मुश्किलें बढ़ती चली गई। हालांकि औद्योगिक संगठनों ने ब्याज दरों में लगातार वृद्धि के प्रति सरकार को आगाह किया, लेकिन न तो वह चेती और न ही रिजर्व बैंक। अब जब औद्योगिक उत्पादन पांच प्रतिशत तक गिर गया तो सरकार के होश फाख्ता हैं। वह उद्योग जगत को दिलासा देने की कोशिश कर रही है, लेकिन उस पर भरोसा इसलिए नहीं हो रहा, क्योंकि सभी को पता है कि वह अपने दूसरे कार्यकाल में आर्थिक सुधारों को गति देने में किस तरह नाकाम रही है। इस सरकार ने अपनी दूसरी पारी शुरू करते ही सामाजिक उत्थान की पहले से चली आ रही मनरेगा सरीखी योजनाओं के लिए तो अपनी झोली खोल दी, लेकिन इसकी परवाह नहीं की कि विकास के लिए पैसा कहां से आएगा? सरकारी अर्थशास्त्री सामाजिक योजनाओं से मिल रही गरीबों की राहत का जिक्र तो करते रहे, लेकिन उन्होंने यह देखने से इंकार किया कि इन योजनाओं के साथ-साथ लंबित आर्थिक सुधारों को भी गति देने की आवश्यकता है। जब सामाजिक उत्थान की योजनाओं पर भारी-भरकम खर्च के साथ-साथ पेट्रोलियम उत्पादों और उर्वरकों पर दी जा रही सब्सिडी बजट घाटे को बढ़ाने का काम कर रही है तब इस घाटे को कम करने के उपाय अपर्याप्त साबित हो रहे हैं।


इस समय यूरोपीय समुदाय के कुछ देशों की खस्ताहाल स्थिति ने यूरोप के सभी देशों के लिए संकट पैदा कर दिया है। स्थिति इतनी गंभीर है कि यूरोपीय समुदाय की एकजुटता पर प्रश्नचिह्न लग रहे हैं। यूरो क्षेत्र के देशों की समस्या एक विश्वव्यापी समस्या इसलिए बन गई है, क्योंकि इन देशों ने लोक-लुभावन योजनाओं की झड़ी लगाकर और बजट घाटे की अनदेखी कर खुद को कर्ज के दलदल में फंसा लिया है। ग्रीस, इटली, स्पेन आदि देशों का कर्ज संकट इतना बढ़ गया है कि वे दिवालिया होने की कगार पर जा खड़े हुए हैं। यदि अन्य यूरोपीय देश उनकी मदद जारी नहीं रखते तो उनका दिवालिया होना तय है। यूरोपीय देशों के साथ-साथ अमेरिका की आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं। बजट घाटे की अनदेखी करना कर्ज लेकर घी पीते रहने जैसा है। अर्थशास्ति्रयों से लैस भारत सरकार को यह अच्छे से पता होना चाहिए कि आय से अधिक व्यय करने से बजट घाटा ही नहीं बढ़ता, बल्कि वह ऐसे कर्ज में भी तब्दील हो जाता है जिससे उबरना मुश्किल होता है।


अपनी आर्थिक समस्याओं के लिए यूरो क्षेत्र और अमेरिकी अर्थव्यवस्था की दुर्बलता को जिम्मेदार बता रहे भारत सरकार को इसका भी आभास होना चाहिए कि यूरो क्षेत्र के देशों को बजट घाटे को नियंत्रित न करने के ही दुष्परिणाम भोगने पड़ रहे हैं। बजट घाटे की गंभीरता तब सामने आती है जब वित्तीय घाटे के भी आंकड़े सामने आते हैं और तमाम अर्थशास्त्री मान रहे हैं कि भारत सरकार वित्तीय घाटे को कम करने के लक्ष्य से पीछे है। समस्या केवल बजट घाटे को नियंत्रित करने की ही नहीं, बल्कि रुपये के गिरावट को रोकने की भी है। रुपये में गिरावट के कारण पेट्रोलियम पदार्थ एवं अन्य आयातित वस्तुएं महंगी होती जा रही हैं। सरकार यह स्पष्ट नहीं कर पा रही कि अन्य एशियाई देशों की मुद्रा की तुलना में भारतीय मुद्रा में इतनी गिरावट क्यों हो रही है? इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि रिजर्व बैंक ने रुपये की गिरावट थामने के उपाय करने शुरू कर दिए हैं, क्योंकि किसी के पास इस सवाल का कोई ठोस जवाब नहीं कि रुपये की गिरावट थामने में इतनी अधिक देरी क्यों की गई?


इस वर्ष पूरे समय भ्रष्टाचार और कालेधन का मुद्दा सबसे बड़े मुद्दे के रूप में छाया रहा। ये दोनों मसले अभी भी अनसुलझे हैं और अर्थव्यवस्था की बिगड़ती स्थिति एक नई चुनौती के रूप में सामने आ खड़ी हुई है। भ्रष्टाचार और काले धन के मामले में अकर्मण्यता का प्रदर्शन करने वाली सरकार अर्थव्यवस्था को संभालने में भी असफल होगी, इसकी कल्पना इसलिए नहीं की जाती थी, क्योंकि प्रधानमंत्री के साथ-साथ उनके अन्य तमाम सहयोगी भी अर्थशास्त्र के ज्ञाता माने जाते हैं। यह एक पहेली ही है कि प्रधानमंत्री अर्थव्यवस्था की चुनौतियों को क्यों नहीं भांप सके? इस मामले में रिजर्व बैंक के साथ-साथ योजना आयोग ने भी दयनीय प्रदर्शन किया है। सबसे खराब प्रदर्शन खुद वित्तमंत्रालय का रहा। यह भी सामान्य बात नहीं कि वाणिज्य मंत्रालय निर्यात के गलत आंकड़े पेश कर दे। यदि केंद्र सरकार अर्थव्यवस्था के मामले में अपनी नाकामी का इसी तरह प्रदर्शन करती रही तो आने वाला वर्ष उसके लिए कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण हो सकता है। इस समय दुनिया के सभी विकसित देश आर्थिक मंदी के दौर से जूझ रहे हैं। हाल-फिलहाल यह दौर थमता नहीं दिखाई देता। स्पष्ट है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को संकट से उबारने के लिए कुछ विशेष प्रयास करने पड़ेंगे। एक ओर जहां सत्तापक्ष से यह अपेक्षित है कि वह अपने दायित्वों को समझे और समय पर सही निर्णय ले वहीं दूसरी ओर विपक्षी दलों के लिए भी यह आवश्यक है कि वे अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के बजाय सरकार को सही दिशा में चलने के लिए प्रेरित करें।


इस आलेख के लेखक संजय गुप्त हैं


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