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नौकरशाही और ईमानदारी

संपादकीय ब्लॉग
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अन्ना हजारे और उनके अनशन को ही यह श्रेय जाता है कि भारतीय शासन प्रणाली को खोखला बना रहे भ्रष्टाचार का मुद्दा न केवल सतह पर आया, बल्कि उस पर एक राष्ट्रीय बहस भी आरंभ हो गई। कुछ दिनों के लिए अन्ना हजारे भ्रष्टाचार विरोधी भावना का चेहरा बन गए, लेकिन इसका असर थोड़े ही समय तक रहा। भ्रष्टाचार के मुद्दे को दबाने का खेल जिस तरह आरंभ हो गया है और इसे राजनीतिक रंग दिया जा रहा है उससे पूरी मुहिम ही हल्की पड़ती जा रही है। कोई भी इस त्रासद सच्चाई से इंकार नहीं कर सकता कि भ्रष्टाचार और इस कारण संस्थागत नैतिकता में आई गिरावट ने भारत की समग्र राष्ट्रीय सुरक्षा और लोकतंत्र के बुनियादी पक्षों को कमजोर किया है। भारत अपनी आबादी के कारण विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र हो सकता है, लेकिन इस लिहाज से हमारा लोकतंत्र संभवत: सबसे पाखंडपूर्ण और खोखला भी है। हजारे आंदोलन को इसीलिए व्यर्थ नहीं जाने दिया जा सकता। राजा स्पेक्ट्रम मामले से लेकर केंद्रीय सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति तक और यहां तक कि उच्चतम न्यायपालिका पर भी पड़े कुछ छींटों से यह जाहिर होता है कि भ्रष्टाचार की काली छाया ने भारतीय जनजीवन के प्रत्येक अंग पर अपना असर डाला है।


प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी लगातार समीक्षा के दायरे में रहे हैं। उन पर भ्रष्टाचार के खिलाफ या तो निष्क्रिय रहने अथवा उससे लड़ने के प्रति अनिच्छुक होने के कारण हमले होते रहे हैं। यह महत्वपूर्ण है कि उन्होंने पिछले दिनों सिविल सर्विसेज डे पर भ्रष्टाचार से लड़ने की एक बार फिर से प्रतिबद्धता व्यक्त की। उन्होंने जोर देकर कहा कि उनकी सरकार न्यायिक जवाबदेही तथा भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाने वालों की सुरक्षा के लिए विधेयक लाएगी। प्रधानमंत्री ने यह उम्मीद भी जताई की कि लोकपाल बिल संसद के आगामी मानसून सत्र में पेश किया जाएगा।


अगर इन वायदों को पूरा किया जाता है और कानून निर्माता वास्तव में इन सभी ज्वलंत मुद्दों पर उद्देश्यपरक बहस करने में समर्थ रहते हैं तो अन्ना हजारे का आंदोलन सही मायने में सार्थक सिद्ध होगा। हालांकि मौजूदा संकेतों के अनुसार ऐसा हो पाना कठिन ही है। भारतीय लोकतंत्र में मौजूदा समय जो तौर-तरीके अपनाए जाते हैं उन्हें देखकर तो लगता है कि कोई सामान्य और सीधा-सरल कार्य भी दुष्कर सिद्ध होता है। चुनावी चंदे का काला खेल और वोट के बदले नोट का बढ़ता चलन इस कदर पैर जमाता जा रहा है कि किसी बुनियादी बदलाव के बिना भ्रष्टाचार से लड़ने की सारी कोशिशें व्यर्थ जाने का ही अंदेशा है। इस मामले में सिविल सेवाएं महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती हैं और एक गैर-आइएएस नौकरशाह के रूप में अपना कॅरियर आरंभ करने वाले मनमोहन सिंह किसी भी अन्य व्यक्ति की तुलना में शासन के अंदरूनी पहलू को बेहतर जानते हैं।


एक सेवा के रूप में आइएएस भारत में सबसे शक्तिशाली कैडर है और यह वर्ग खुद ही महसूस कर रहा है कि उसमें शुचिता और ईमानदारी के मानक धीरे-धीरे सिकुड़ते जा रहे हैं। इस लिहाज से जो बुनियादी बदलाव तत्काल प्रभाव से किए जाने चाहिए उनमें आइएएस वर्ग में नई जान फूंकना निश्चित ही प्रधानमंत्री की सूची में सबसे ऊपर होना चाहिए। अनेक नौकरशाह मौजूदा स्थितियों से खिन्न हैं और वे तत्काल सुधार चाहते हैं। अक्सर इसकी चर्चा होती है कि अंग्रेजों ने किस तरह अपने मुट्ठी भर अधिकारियों की मदद से भारतीय उपमहाद्वीप जैसे विशाल क्षेत्र में लंबे समय तक शासन किया। इसका उत्तर यह है कि उन्होंने भारतीय नौकरशाही की बहुत चतुराई से रचना की। नौकरशाही के पिरामिड में आइसीएस सबसे ऊपर थी और प्रत्येक जिले का जिम्मा एक कमिश्नर/कलेक्टर, एक जज और एक पुलिस अधीक्षक को सौंपा गया। इन अधिकारियों ने उपनिवेशवादी शासन को बदले में ऊंचे स्तर की ईमानदारी दी। कुल मिलाकर भारत को लंदन के हितों की पूर्ति के लिए शासित किया गया। आज आजादी के 64 वर्ष बाद भारत की सिविल सेवा, जिसे स्टील फ्रेम का बताया जाता है, अपने राजनीतिक आकाओं के इशारों पर नाच रही है। भारतीय सिविल सेवा में बहु प्रतीक्षित सुधार के लिए चाणक्य के एक प्रसंग से सीख ली जा सकती है, जिन्होंने मगध में एक कल्याणकारी शासन की स्थापना की रूपरेखा तैयार की थी। चाणक्य एक बार कहीं जा रहे थे। रास्ते में उनके पैर में कांटा लग गया। चाणक्य ने सबसे पहले तो सावधानी से वह कांटा निकाला और इसके बाद उस झाड़-झंखाड़ को न केवल जड़ से उखाड़ फेंका, बल्कि उसकी जड़ों को इस तरह से नष्ट कर दिया कि वहां फिर कभी कोई झाड़ी न उग सके।


प्रधानमंत्री को भी कुछ वैसा ही करने की जरूरत है जैसा चाणक्य ने किया। प्रधानमंत्री और उनकी टीम चाणक्य से एक और प्रेरणा ले सकती है। चाणक्य के पास चीन से एक मेहमान आया। उन्होंने अपने कक्ष में जल रहे दीपक को बुझाकर एक दूसरा दीपक जला दिया। जब चीनी मेहमान ने उनसे इसका कारण पूछा तो चाणक्य ने कहा कि आपके साथ मेरी यह भेंट एक व्यक्तिगत कार्य है और इसलिए मैं शासन द्वारा दिए गए दीपक और तेल का इस्तेमाल नहीं कर सकता। चाणक्य का यह आदर्श देखकर विदेशी मेहमान यह कहने के लिए विवश हो गया कि जिस देश में ईमानदारी का स्तर इतना ऊंचा हो उसे फलने-फूलने से कौन रोक सकता है? आज इसी चाणक्य धर्म पर हमारे नौकरशाहों और राजनेताओं को चलने की जरूरत है। अन्ना के आंदोलन के दौरान यह चर्चा भी उठी कि हमारा राजनीतिक वर्ग और नौकरशाही वे यह बुनियादी तथ्य भूल गए हैं कि वे वास्तव में जन सेवक हैं, इसके बजाय उनका आचरण शासकों वाला है। उचित यह होगा कि अपने व्यक्तिगत जीवन में इसी आधार पर चलने वाले प्रधानमंत्री अपने शेष कार्यकाल में बदलाव के इसी रास्ते की वकालत करें।


[सी. उदयभाष्कर: लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं]

साभार: जागरण नज़रिया


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