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स्वतंत्रता के पश्चात संविधान निर्माताओं ने अनुसूचित जाति और जनजाति के साथ-साथ शैक्षिक व सामाजिक रूप से पिछड़ी जातियों के उत्थान के लिए उचित प्रावधान किए। कुछ समय तक देश की राजनीति बड़े मजे में चलती रही। उस समय के नेतृत्व की सोच रचनात्मक थी। उन्हें भान था कि जाति को स्थापित करने के क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं? 1955 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने काका कालेलकर पिछड़ी जाति आयोग की संस्तुतियों को अस्वीकार कर दिया था, जिसमें 2399 पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने की बात कही गई थी। सरकार ने साफ कर दिया था कि जाति आधारित आरक्षण सेकुलर, समावेशी और समतावादी ढांचे को नष्ट कर देगा। 27 जून, 1961 को मुख्यमंत्रियों के नाम पत्र में नेहरू ने जाति के आधार पर आरक्षण के संदर्भ में चेताया था, ‘यह तरीका न केवल मूर्खतापूर्ण है, बल्कि विध्वंसकारी भी है।’
इंदिरा गांधी भी इस खतरे को लेकर सचेत थीं कि राजनीति में जातिगत पहलू की प्रमुखता से देश कमजोर पड़ जाएगा। इसलिए दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग जिसे मंडल आयोग के नाम से जाना जाता है, की 1980 में जारी की गई सिफारिशों को एक दशक तक ठंडे बस्ते में डाले रखा। इस आयोग ने 3743 जातियों को पिछड़ी के रूप में चिह्निंत किया था। हालांकि तब तक राजनीतिक मंच पर नेताओं की नई फसल उगने लगी थी, जो अल्पकालिक चुनावी लाभ के लिए आग से खेलने से भी नहीं हिचकती थी। इनके लिए, जाति तुच्छ और संकीर्ण वफादारी का औजार बन गई। वे भारतीयता के मनीषियों की अंतदृष्टि को लेकर बेपरवाह रहे। सर वेलेंटाइन चिरोल ने कहा था, ‘हिंदुत्व इसलिए एक राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सका, क्योंकि उसने जाति के रूप में एक ऐसा ढांचा बना लिया जिसने सारे किए धरे पर पानी फेर दिया।’ 1990 में, जब वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने तो भारतीय राजनीति में जाति को नई गहराई और आयाम मिला। सत्ता की लालसा और विरोधी देवीलाल को उखाड़ फेंकने की चाहत में उन्होंने अचानक मंडल आयोग की सिफारिशों को स्वीकृत कर दिया और सरकारी नौकरियों में पिछड़ी जातियों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण पर मुहर लगा दी। इसके अलावा मेडिकल, इंजीनियरिंग और पेशेवर कालेजों में इन जातियों से संबद्ध छात्रों के प्रवेश पर 27 प्रतिशत आरक्षण लागू कर दिया। इस फैसले के कारण जो सामाजिक तनाव व जातीय हिंसा भड़की उसे अभी बहुत लंबा अरसा नहीं हुआ है।
राजनेताओं के जाति के प्रति लगाव को सुप्रीम कोर्ट ने अपने कुछ फैसलों में तोड़ने का प्रयास जरूर किया। आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत रखने और पिछड़ी जातियों की मलाईदार परत को इससे बाहर रखने के फैसले से अदालत ने यह रेखांकित कर दिया कि मात्र जाति को ही पिछड़े वर्गो के उत्थान का आधार नहीं बनाया जा सकता। अन्य पक्ष जैसे शिक्षा, आय और रोजगार पर भी ध्यान देना चाहिए। इससे यह लगता है कि पिछड़ों के उत्थान के लिए सबसे अच्छा तरीका यही है कि उनका वर्गीकरण आर्थिक और सामाजिक हैसियत के आधार पर किया जाए, न कि जाति के आधार पर। अभी आरक्षण के मुद्दे पर टकराव खत्म भी नहीं हुआ था कि जातिगत जनगणना की मांग उठ खड़ी हुई। अगर इसे क्रियान्वित करने की दिक्कतों से नजर फेर भी ली जाए तो भी जाति के दोहन के निहित स्वार्थ का कभी अंत नहीं होगा। वे मुसलमानों और अन्य समुदायों के आरक्षण के लिए दबाव बनाएंगे और फिर इसके बाद निजी क्षेत्र में आरक्षण के लिए आंदोलन चलाएंगे। न ही वे धारा 51ए की अवमानना करने में कोई कसर छोड़ेंगे, जो भारत के सभी नागरिकों के बीच भाईचारे की भावना फैलाने की बात करती है। इस सबसे भारत के संविधान का मखौल उड़ेगा।
समाज और राष्ट्र, दोनों विखंडित हो जाएंगे। अतीत में, उच्च जातियों के निहित स्वार्थ ने राष्ट्रीयता की भावना को आघात पहुंचाया है। अब एक दूसरे किस्म का निहित स्वार्थ देखा जा रहा है। जाति की सतत राजनीति, वोट बैंक की विभाजनकारी नीति और सुशासन का अभाव भारत को बड़े पेड़ के खोखले तने सरीखी स्थिति में ला देगी, जो कभी भी भरभराकर गिर सकता है। भारतीय संविधान पेश करते हुए बीआर अंबेडकर ने ‘जाति के रूप में हमारे पुराने शत्रुओं’ की ओर ध्यान खींचा था। क्या अब हम अपने पुराने शत्रुओं को पोषित कर रहे हैं और विभाजन व विखंडन के अपने दुर्भाग्यपूर्ण इतिहास को दोहरा रहे हैं? जातिवाद के असर को कम करने के लिए दो उपाय जरूरी हैं। पहला यह कि धार्मिक और सामाजिक सुधार आंदोलन शुरू किया जाए, जिसके माध्यम से जनता को जागृत किया जाए कि जाति हिंदुत्व के मूल ढांचे के खिलाफ है। हिंदुओं के मानस से जाति को निकालने का हरसंभव प्रयास करना चाहिए। इससे निश्चित तौर पर जाति पर समग्र भारतीय समुदाय की परंपरागत सोच बदलेगी।
दूसरे, भारत के तमाम वंचित और विपन्न लोगों को सामाजिक न्याय दिलाने के लिए रचनात्मक रुख अपनाने की जरूरत है। हमें जातियों के अधिकारों के लिए लड़ने के बजाय जरूरतमंदों के मानवाधिकार के लिए संघर्ष करना चाहिए। जाति को संवैधानिक रूप से खत्म कर देना चाहिए। किसी भी व्यक्ति को किसी भी संबंध में सार्वजनिक या निजी रूप में जाति के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए। डॉ. राममनोहर लोहिया ने कहा था, ‘जाति के खिलाफ विद्रोह भारत का पुनर्जागरण है।’ हमें बिना समय गंवाए इस विद्रोह की मशाल को जलाए रखनी चाहिए। हमें लोकतंत्र की जरूरत है, जातितंत्र की नहीं।
Source: Jagran Yahoo
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