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चुनाव सुधारों की जरूरत

संपादकीय ब्लॉग
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Nishikant Thakurमुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने एक बार फिर चुनाव सुधारों की बात की है। इस बार उन्होंने प्रधानमंत्री को बाकायदा पत्र लिख कर यह गुहार लगाई है। उन्होंने लगभग डेढ़ दशक से ठंडे बस्ते में पड़े चुनाव सुधार संबंधी सुझावों पर जल्दी अमल करने की मांग उठाई है। ध्यान रहे, पिछले दिनों कई प्रदेशों में हुए विधानसभा चुनावों के दौरान भी कुरैशी ने यह बात उठाई थी। अभी फिर कुछ जगहों पर राज्य सभा चुनावों की प्रक्रिया चल रही है और इसी दौरान झारखंड में धन बल के खुले प्रयोग की बात भी सामने आई है। इसके पहले, गत विधानसभा चुनावों के दौरान भी पंजाब और उत्तर प्रदेश समेत कई अन्य जगहों पर भी धन बल के प्रयोग की बातें कही गई थीं। कई जगहों से बड़ी मात्रा में धनराशि भी पकड़ी गई थी। कुरैशी ने चुनाव में धनबल के हस्तक्षेप को गंभीर मानते हुए चिंता जताई है। यह गौर करने की बात है कि चुनाव आयोग 1998 से लेकर अब तक चार बार चुनाव सुधारों को लागू करने के लिए सरकार के सामने आवाज उठा चुका है। यह अलग बात है कि अभी तक उस पर अमल की कोई सुगबुगाहट तक कहीं दिखाई नहीं दी है। मंचों पर या सेमिनारों में होने वाली बात की जाए तो सैद्धांतिक रूप से इस बात पर सभी राजनीतिक दल सहमत हैं कि चुनाव सुधार लागू किए जाने चाहिए। केवल बातों की बात की जाए तो वे सिर्फ सहमत ही नहीं हैं, बल्कि सभी यह चाहते हैं कि चुनाव सुधार लागू हों। इसके बावजूद चुनाव सुधार आज तक लागू नहीं हो सके। पिछले डेढ़ दशकों से ये ठंडे बस्ते में पड़े धूल फांक रहे हैं। इस बीच कई सरकारें आईं और गईं, लेकिन किसी ने भी इस फाइल को तलब कर इन पर अमल करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। इन सरकारों में केवल यूपीए ही नहीं, एनडीए की सरकार भी शामिल रही है और संयुक्त मोर्चे की भी।


इस बीच वामपंथी भी सरकार में शामिल रहे हैं और दक्षिणपंथी भी, लेकिन चुनाव सुधारों में किसी भी दल या सरकार ने अभी तक कोई रुचि नहीं दिखाई। आखिर क्या वजह है? यह सवाल अब केवल चुनाव आयोग ही नहीं, समूचे भारतीय जनमानस को मथने लगा है। इस बीच चुनाव प्रक्रिया सुधार के लिए चुनाव आयोग ने बेहिसाब ताकत झोंकी है। टीएन शेषन को भारत के मतदाता शायद कभी भूल नहीं पाएंगे। कई बार व्यवस्था से टकराव की शर्त पर भी उन्होंने चुनावी प्रक्रिया को सुधारने की कोशिश की। अपने संवैधानिक प्राधिकार के दायरे में रहते हुए जो कुछ भी कर सकते थे, वह सब उन्होंने किया। उनके बाद आए मुख्य निर्वाचन आयुक्तों ने भी उस परंपरा को आगे बढ़ाने की कोशिश की और इसका ही नतीजा है जो आज कई ऐसे क्षेत्रों में स्वच्छ और निष्पक्ष चुनाव हो पा रहे हैं, जहां ऐसा सोचना भी मुश्किल था। चुनावों के दौरान बूथ कैप्चरिंग और हिंसा जिन इलाकों में आम बात थी, वहां भी सुरक्षा बलों की मदद से आयोग स्थितियां काबू करने में बहुत हद तक सफल साबित हुआ। चुनाव स्वच्छ और निष्पक्ष तरीके से हो सकें, इसके लिए मीडिया ने भी बार-बार दबाव बनाया। दूर-दराज के क्षेत्रों तक जाकर और वहां अपनी जान जोखिम में डाल कर पत्रकारों ने वस्तुस्थिति सामने लाने की कोशिश की। यह मीडिया के ही प्रयासों का परिणाम है कि मतदाताओं में अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूकता आई। तमाम ऐसे लोग भी अपने मताधिकार का प्रयोग करने लगे जो पहले हिंसक वारदातों के भय से बूथ तक पहुंच ही नहीं पाते थे।


निश्चित रूप से यह इन प्रयासों का ही प्रभाव है कि अब चुनाव शांतिपूर्ण ढंग से होने लगे, लेकिन अभी भी बहुत कुछ होना बाकी है। अगर आयोग को राजनीतिक सहयोग अपेक्षा के अनुरूप प्राप्त हुआ होता तो निश्चित रूप से अब तक भारत में चुनावी प्रक्रिया का कायापलट हो चुका होता। यह राजनीतिक सहयोग न मिलने का ही नतीजा है कि चुनाव आयोग की सख्ती से हिंसा तो काफी हद तक बंद हो गई, पर धनबल का प्रयोग बढ़ता ही चला गया है। इसे रोकने के लिए बनाए गए नियम-कानून कुछ खास प्रभावी साबित नहीं हो पा रहे हैं। चुनावों में आपराधिक छवि के लोगों का दबदबा भी कुछ खास कम नहीं हो सका है। किसी न किसी बहाने अभी भी वे चुनाव लड़ रहे हैं और विभिन्न राज्यों की विधानसभाओं से लेकर लोकसभा तक में पहुंच रहे हैं। हाल ही में हुए दिल्ली नगर निगम चुनावों में भी राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर हमलों की घटनाएं सामने आई। यह राजनीतिक व्यवस्था के लिए न सिर्फ चिंताजनक, बल्कि शर्मनाक भी है। जब तक ऐसे लोग हमारी राजनीतिक व्यवस्था के भीतर मौजूद हैं, तब तक इसकी शुचिता की बात करना निरर्थक है। यह लोकतंत्र के बुनियादी मूल्यों के ही खिलाफ है।


कल्याणकारी राज्य की अवधारणा धीरे-धीरे क्षरित होती जा रही है और पूरे राजनीतिक परिदृश्य पर धनबल का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। क्या ऐसी राजनीतिक व्यवस्था से जनधर्मी होने की अपेक्षा की जा सकती है? कुरैशी ने राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले चंदे पर कड़ी नजर रखने के लिए उनके खातों को आडिट के दायरे में लाने की बात भी कही है। यह भी कहा है कि कुछ चुनाव सुधारों के लिए संविधान संशोधन जरूरी होगा, जबकि कुछ के लिए केवल जनप्रतिनिधित्व कानून में ही संशोधन पर्याप्त होगा। कुछ सुधारों के लिए नियमों में ही तब्दीली करके आगे कदम उठाए जा सकते हैं। इसमें एक भी ऐसा कार्य नहीं है जो मुश्किल हो। संविधान में 97 संशोधन तो अब तक हो ही चुके हैं, एक और संशोधन करना इतनी बड़ी बात नहीं है जिसके लिए सरकार को बड़ी चिंता करने की जरूरत हो। जनप्रतिनिधित्व कानून और नियमों में संशोधन का काम भी इतना बड़ा नहीं है कि इसे लेकर बहुत मशक्कत की जरूरत हो। इसके बावजूद यह कार्य अभी तक नहीं हो सका। देश का हर सचेत और जिम्मेदार नागरिक इसका कारण जानना चाहता है।


वास्तव में यही वह कारण है, जिसके नाते हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया आज तक विश्वास के संकट के दौर से गुजर रही है। इसमें भी दो राय नहीं है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में लोगों का विश्वास बहाल करना और चुनावी प्रक्रिया में सुधार करना, दोनों ही अहम जिम्मेदारियां मुख्यतया राजनीतिक दलों की ही हैं। देश की विधायिका में आपराधिक छवि वाले लोगों का दखल पूरी तरह खत्म हो, इसके लिए पहल राजनीतिक दलों को खुद करनी चाहिए। यह विडंबना ही है कि इसकी मांग दूसरे संस्थानों और जन संगठनों से आ रही है। कम से कम इस पर तो राजनीतिक दलों को चेतना ही चाहिए और यह प्रक्रिया जितनी जल्दी संभव हो, शुरू कर देनी चाहिए। ये सुधार अब जरूरी नहीं, अनिवार्य हो गए हैं। आम जनता के हर वर्ग से यह मांग उठने लगी है। राजनीतिक संगठनों को चाहिए कि वे लोकतांत्रिक मूल्यों और आम जनता की इच्छाओं का सम्मान करते हुए यह प्रक्रिया शुरू कर दें।


लेखक निशिकांत ठाकुर दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं


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