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Centre State Relations: आत्मघाती हो रहा कर्ज

संपादकीय ब्लॉग
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nishikant thakurसरकारों द्वारा कर्ज लिया जाना कोई नई बात नहीं है। सभी राज्यों की सरकारें अपनी विभिन्न परियोजनाओं और जनकल्याण की योजनाओं को पूरा करने के लिए केंद्र सरकार और अन्य वित्तीय संस्थानों से कर्ज लेती हैं। राज्यों और केंद्र की सरकारों के बीच कर्ज लेने और उसे चुकाने का सिलसिला लगातार चलता रहता है। मुश्किल यह है कि भारत के अधिकतर राज्यों की सरकारों का जोर कर्ज या केंद्र से मदद लेने पर है, उसे चुकाने का खयाल बहुत कम सरकारों को ही है। केंद्र से कर्ज या मदद लेकर उसे सही जगह खर्च न करना और समय से न लौटाना कई राज्यों की सरकारों की प्रवृत्ति-सी हो गई है। कष्ट की बात है कि पंजाब सरकार भी इधर आर्थिक दृष्टि से मुश्किल हालात में पहुंच गई है। स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि राज्य सरकार के कर्मचारियों को समय से वेतन-भत्ते और सेवानिवृत्त कर्मचारियों को सेवानिवृत्ति लाभ देना तक मुश्किल पड़ रहा है। हालांकि राज्य के उपमुख्यमंत्री सुखबीर बादल इसे विपक्ष का प्रोपेगंडा बताते हुए कहते हैं कि स्थिति वास्तव में इतनी बुरी नहीं है। किसी भी सरकार के लिए कभी-कभी ऐसी स्थिति आ जाना आम बात है। इसके समर्थन या विरोध की राजनीति करना कोई मुश्किल बात नहीं है। वह कोई भी कर सकता है, लेकिन जरूरत यह सोचने की है कि सरकार इस स्थिति तक पहुंची कैसे और सूबे को इन हालात से उबारा कैसे जाए। दुखद है कि इस पर विचार करते हुए भी कोई राजनेता दिखाई नहीं दे रहा है। आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति हमारे राजनेताओं की प्रकृति में इस तरह घुल-मिल चुकी है कि उनकी सारी दिलचस्पी ही केवल अपने प्रतिस्पद्र्धी दलों और नेताओं की खामियां ढूंढने में होती है। देश भर की राजनीति से प्रतिस्पर्धा की भावना खत्म होकर अब घृणा और दुश्मनी में बदल चुकी है। लोग अपने प्रतिद्वंद्वी को हराने के लिए कुछ भी करने पर उतारू रहते हैं।

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ऐसा करते वक्त वे यह भी नहीं सोचते कि स्वयं उनको इसके क्या परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। मोटे तौर पर देखें तो यह इसी का परिणाम नजर आता है। असल में आज की राजनीति की सारी लड़ाई केवल कुर्सी तक सीमित होकर रह गई है। प्रतिद्वंद्वी दल को हराने के लिए किसी भी हद तक जाने को कोई भी तैयार है। इसके लिए चाहे आसमान से तारे तोड़ कर लाने जैसे असंभव किस्म के वादे क्यों न करने पड़े। पहले वादे करना, फिर उन्हें भूल जाना और अगले चुनाव की आहट आते ही अनाप-शनाप तरीके से उसे पूरा करने में जुट जाना आम बात हो गई है। हैं। लेकिन, इनकी असलियत क्या है, यह सभी जानते हैं। अगर वास्तव में आम जनता या समाज के पिछड़े तबकों के प्रति राजनेताओं में कोई सच्ची सहानुभूति या संवेदना होती और वे उनकी तरक्की के बारे में सोच रहे होते तो बजाय तरह-तरह के झुनझुने थमाने के अपने-अपने राज्य के हर क्षेत्र में बुनियादी ढांचे के विकास पर सबसे पहले ध्यान देते। सुदूर गांवों तक पहुंचने के लिए पक्की सड़कों का इंतजाम करवाते, आने-जाने के लिए सार्वजनिक साधन मुहैया कराते, हर गांव में बिजली-पानी पहुंचाने, स्कूल-अस्पताल और पशु अस्पतालों की व्यवस्थाएं बनवाते।


इन चीजों की व्यवस्था बनाए बगैर चीजें चाहे जितनी बांटी जाएं और झुनझुने चाहे जितने थमाए जाएं, किसी बात का कोई मतलब नहीं है। राजनीति की दुनिया में आया नौसिखिया भी यह बात अच्छी तरह जानता है। बड़े राजनेता यह न जानते हों, ऐसा कैसे हो सकता है? लेकिन जान-बूझ कर इन बुनियादी जरूरतों की उपेक्षा की गई। सब सामने होते हुए भी देखने से इनकार किया गया और यह किसी एक सरकार की बात नहीं है, अधिकतर राज्य सरकारों ने यही किया। कोई साइकिल बांट रहा है तो कोई जाति-समुदाय के आधार पर वजीफे की बात करता है, कोई मुफ्त चावल-दाल बांटने का प्रलोभन देता है तो कोई टैबलेट, लैपटॉप या मोबाइल का। जनता भी इनकेझांसे में आ जाती है। मतदाताओं को अपना यह तुरंत का ऐसी असंभव किस्म की घोषणाएं करने में कोई भी राजनीतिक दल पीछे नहीं रहा है। यह केवल पंजाब ही नहीं, पूरे देश के कई राज्यों की बात है। दिखावा तो यह किया जाता है कि ये घोषणाएं आम जनता और समाज के पिछड़े तबकों के प्रति बड़ी सहानुभूति और संवेदनापूर्वक की जा रही निजी लाभ तो दिखाई देता है, लेकिन अपना वह सामूहिक नुकसान लोग नजरअंदाज कर देते हैं, जिसके दूरगामी परिणाम उन्हें भुगतने पड़ सकते हैं। आज कर्ज, गिरवी और ओवरड्राफ्ट के जिस दलदल में कुछ राज्यों की सरकारें फंस रही हैं, वह इसी का नतीजा है और इसके लिए ऐसे किसी भी राज्य की कोई एक सरकार जिम्मेदार नहीं ठहराई जा सकती। केवल पंजाब की ही बात लें तो पिछले बीस वर्षो में ऐसी एक भी सरकार नहीं रही है, जिसने इस तरह की घोषणाएं न की हों और अपनी हदों से बाहर जाकर कुछ लोकलुभावन आश्वासन पूरे करने की कोशिशें न की हों। इसके अलावा सरकारी अमले के अपने खर्चे भी कुछ कम नहीं रहे हैं। नौकरशाह हों या नेता, सबके खर्चे हमेशा बढ़े-चढ़े ही रहे हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के खुद अनुरोध करने के बावजूद उस दौर में भी ये खर्चे नहीं रुके, जब कांग्रेस की ही सरकार सूबे में थी। सरकार के सामने आज स्थिति आज यहां तक पहुंच गई है कि उसे जमीन गिरवी रखनी पड़ रही है। सरकारी वाहनों में ईंधन भराना तक मुश्किल हो रहा है।

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सभी कर्मचारियों को एक साथ वेतन देना मुश्किल हो रहा है। अगर खर्चो पर लगाम लगाने की तनिक भी कोशिश की गई होती तो इससे बचा जा सकता था। सच तो यह है कि अगर तुरंत इस पर रोक लगाने की शुरुआत न कर दी गई तो देर-सबेर कई राज्यों की सरकारें इसी अवस्था में पहुंचेंगी। वित्तीय संकट का यह दौर आने वाले दिनों में और गहराता इसलिए भी दिख रहा है क्योंकि खुद केंद्र सरकार की स्थिति भी इस मामले में अच्छी नहीं रह गई है। रुपये की कीमत गिरती जा रही है और उसे वापस पुरानी स्थिति में लाने की कोई सूरत दिखाई नहीं दे रही है। अगर यही हाल रहा तो आगे कोई राज्य सरकार किसी प्रकार का कर्ज या अनुदान भी कहां से लेगी? यह बात न केवल सरकारों, बल्कि खुद जनता को भी समझनी होगी। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के राजनेताओं से इतने आत्मानुशासन की उम्मीद तो की ही जा सकती है कि वे घोषणाएं करने से पहले दूरगामी परिणाम के बारे में भी सोचें। चुनाव जीतने के लिए कुछ भी वादा कर लेने की प्रवृत्ति न केवल राजनेताओं और पार्टियों, बल्कि आम जनता के लिए भी आत्मघाती हो सकती है। अभी समय है कि हम चुनावों के दौरान लोकलुभावन घोषणाओं तथा अफसरों-मंत्रियों के अनावश्यक खर्चो पर रोक लगाने की दिशा में कदम उठा लें।


इस आलेख के लेखक निशिकांत ठाकुर हैं

(लेखक दैनिक जागरण में स्थानीय संपादक हैं)


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