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दिवाली के छः दिन बाद मनाया जाने वाला छठ त्यौहार बिहारियों समेत समस्त हिन्दुओं के लिए भी एक अहम पर्व है. यूपी, बिहार, पूर्वांचल समेत भारत के विभिन्न हिस्सों में मनाया जाने वाला यह त्यौहार आज एक लोकपर्व से महापर्व बन गया है. भगवान सूर्य की अराधना और उपासना का संकेतक यह पर्व निष्टा, शुद्धता और पवित्रता का प्रतीक है. भगवान सूर्य की दो दिन की उपासना कर लोग अपने संयम और भक्ति का प्रमाण दे भगवान से कल्याण की प्राथना करते हैं.
चार दिन तक चलने वाला यह त्यौहार आज 10 नवंबर को कार्तिक शुक्ल पक्ष चौथी के नहाए-खाए से शुरु होगा जिसमें पंचमी यानि 11 नवंबर को खरना होगा और 12 नवंबर को सूर्य षष्ठी को महाव्रत यानी छठ पूजा के लिएसूर्य भगवान के डूबते स्वरुप को अर्घ्य दिया जाएगा. सप्तमी के दिन उगते हुए सूर्य भगवान को अर्घ्य देने के साथ ही इस पर्व का अंत होता है. 13 नवंबर तक चलने वाले इस पर्व में भारत की एक अलग ही झलक देखने को मिलती है जो दर्शाती है कि आज भी पर्व किस तरह हमारी संस्कृति के संवाहक हैं.
छ्ठ को महापर्व इसलिए भी कहा जाता है क्योंकि सूर्य ही एकमात्र प्रत्यक्ष देवता हैं. और छठ पूजा का वर्णन पुराणों में भी मिलता है. अथर्ववेद में छठ पर्व का उल्लेख है जो इसकी महानता और प्राचीनता को दर्शाता है. यह एकमात्र पर्व है जिसमें उदयमान सूर्य के साथ-साथ अस्ताचलगामी सूर्य को भी अर्घ्य दिया जाता है.
इस पर्व के दिन महिलाएं दो दिन का व्रत रखकर भगवान से अपने पुत्र और पति के लिए आशीष मांगती हैं. हालांकि यह पूजन पुरुष भी उतनी ही श्रद्धा और भक्ति भाव से करते हैं. संपूर्ण निष्टा और भक्ति से की जाने वाली पूजा को छठ मइया जरुर स्वीकार करती हैं और फल प्रदान करती हैं. पूरे चकाचौंध और भक्तिभाव से की जाने वाली इस पूजा को न सिर्फ बिहार में बल्कि जहां-जहां भी बिहार के लोग जाते हैं वहां जरुर मनाते हैं. नदियों और नहरों के किनारे तो इस पर्व की अलग ही छटा देखने को मिलती है.
छठ पूजा के इतिहास की ओर दृष्टि डालें तो इसका प्रारंभ महाभारत काल में कुंती द्वारा सूर्य की आराधना व पुत्र कर्ण के जन्म के समय से माना जाता है.
इस पर्व को मनाने के पीछे कई कारण और मान्यताएं हैं जैसे कुछ लोग कहते हैं छठ देवी सूर्य देव की बहन हैं और उन्हीं को प्रसन्न करने के लिए जीवन के महत्वपूर्ण अवयवों में सूर्य व जल की महत्ता को मानते हुए, इन्हें साक्षी मान कर भगवान सूर्य की आराधना तथा उनका धन्यवाद करते हुए मां गंगा-यमुना या किसी भी पवित्र नदी या पोखर(तालाब) के किनारे यह पूजा की जाती है. एक कथा के अनुसार अज्ञातवास के समय पांडव जन दौपद्री के साथ जंगल में दाने-दाने को मोहताज थे. उस समय ऋषियों ने दौपद्री को छठ करने को कहा. उन्होंने यह व्रत विधिवत किया. व्रत के महात्म्य का वर्णन करने वाले ऐसा मानते हैं कि इसी से पांडवों ने खोया हुआ अपना राजपाट वापस प्राप्त किया. इस पर्व को मनाने के ढंग बेहद आकर्षक हैं.
इन सब मान्यताओं के साथ लोगों का विश्वास भी है जो इस पर्व को और भी बड़ा बना देता है. लोग इस पर्व को निष्ठा और पवित्रता से मनाते हैं उसका एक प्रमाण यह है कि छ्ठ का प्रसाद बनाने के लिए जिस गेंहू से आटा बनाया जाता है उसको सुखाते समय घर का कोई न कोई सदस्य उसका रखवाली करता है ताकि कोई जानवर उसे जूठा न कर दे. इस बात से साफ होता है कि लोग इस पर्व में किसी प्रकार की भी अशुद्धता नहीं करना चाहते.
आज खाए नहाय खाय का दिन है यानि लोग आज के दिन खा लेते हैं और उसके बाद दो दिन का व्रत रखते हैं जिसमें आखिरी दिन निर्जली व्रत होता है. पर्व के पहले दिन महिलाएं स्नानादि करने के बाद चावल, लौकी और चने की दाल का भोजन करती हैं और देवकरी में पूजा का सारा सामान रख कर दूसरे दिन आने वाले व्रत की तैयारी करती हैं.
छठ पर्व पर दूसरे दिन यानि खरना पर पूरे दिन का व्रत रखा जाता है और शाम को गन्ने के रस की बखीर(कुछ जगह लोग गुड़ से खीर बनाते हैं वह भी बखीर ही मानी जाती है) बनाकर देवकरी में पांच जगह कोशा( मिट्टी के बर्तन) में बखीर रखकर उसी से हवन किया जाता है. बाद में प्रसाद के रूप में बखीर का ही भोजन किया जाता है व सगे संबंधियों में इसे बांटा जाता है. इस दिन का प्रसाद यानि खीर और रोटी बेहद स्वादिष्ट और सेहतमंद होता है.
षष्ठी यानि बड़का छठ के दिन सुबह से ही नदी या तालाबों के घाटों को सजाने-संवारने का काम शुरू हो जाता है. केले के थम्ब, आम के पल्लव, अशोक के पत्ते को मूंज की रस्सी के साथ बांधकर पूरे व्रत स्थल की सजावट करते हैं. व्रत सामग्री में खासकर बांस से बने दऊरा-सुपली, ईख, नारियल, फल-फूल, मूली, पत्ते वाले अदरक, बोरो, सुथनी, केला, आटे से बने ठेकुआ आदि होते हैं जिन्हें एक लकड़ी के डाले में रखा जाता है जिसे लोग दऊरा या ढलिया या बंहगी भी कहते हैं.
शाम के अर्घ्य के दिन दोपहर बाद से ही बच्चे, महिलाएं, बुजुर्ग और नौजवान नए वस्त्रों में सुशोभित होकर घाट की ओर प्रस्थान करते हैं. घर के पुरुष सिर पर चढ़ावे वाला दऊरा लेकर आगे-आगे चलते हैं, पीछे-पीछे महिलाएं गीत गाती व्रत स्थल को जाती हैं. वहां पहुंचकर पहले गीली मिट्टी से सिरोपता बनाती हैं. अक्षत-सिंदूर, चंदन, फूल चढ़ाकर वहां एक अर्घ्य रखकर छठी मइया की सांध्य पूजा का शुभारम्भ करती हैं. फिर व्रती नदी में पश्चिम की और मुंह करके खड़े होते हैं और भगवान दिवाकर की आराधना करते हैं.
वैसे तो लोग इस दिन घाट पर अपनी मर्जी और सामर्थ्य से फल ले जाते हैं लेकिन विधिवत रुप से एक सूप में नारियल कपड़े में लिपटा हुआ नारियल, पांच प्रकार के फल, पूजा का अन्य सामान ही काफी होता है.
छठ पूजा का सबसे खास प्रसाद है ठेकुआ. गेहूं के आटे में घी और चीनी मिलाकर बनाया जाने वाला यह प्रसाद बड़ा लोकप्रिय और स्वादिष्ट होता है. चक्की में गेहूं पीसती महिलाओं के कंठ से फूटते छठी मैया को संबोधित गीत श्रम के साथ संगीत के रिश्ते का बखान करती हैं. इस पर्व का बेहद लोकप्रिय लोकगीत है जो कुछ इस प्रकार है:
“काचि ही बांस कै बहिंगी लचकत जाय
भरिहवा जै होउं कवनरम, भार घाटे पहुँचाय
बाटै जै पूछेले बटोहिया ई भार केकरै घरै जाय
आँख तोरे फूटै रे बटोहिया जंगरा लागै तोरे घूम
छठ मईया बड़ी पुण्यात्मा ई भार छठी घाटे जाय”
छठ पर्व की महिमा बेहद अपार है. बिहार समेत देश के कई हिस्सों में आज से शुरु होना वाला यह पर्व बाजार की महंगाई से जरुर प्रभावित होगा लेकिन कम बिलकुल भी नहीं हो सकता.
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