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टीम अन्ना के दबाव में ही सही, केंद्र सरकार को भ्रष्टाचार के खिलाफ सक्रिय होते देख रहे है संजय गुप्त
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री भुवनचंद्र खंडूरी ने जनलोकपाल बिल के अनुरूप लोकायुक्त विधेयक पारित कराकर केंद्र सरकार के सामने एक नई चुनौती पेश कर दी है। इस विधेयक के पारित होने से उत्साहित टीम अन्ना ने संसद के शीतकालीन सत्र में लोकपाल विधेयक पारित कराने को लेकर केंद्र सरकार पर दबाव बढ़ा दिया है। इस दबाव को सरकार भी महसूस कर रही है, लेकिन वह टीम अन्ना को निष्प्रभावी करने की कोशिश में भी है। इसके लिए एक हद तक टीम अन्ना भी जिम्मेदार है, जो अपना रवैया लगातार बदल रही है। कभी वह सरकार को चेताती है, कभी उसके प्रयासों से संतुष्ट होती है और कभी उस पर अविश्वास प्रकट करती है। ऐसा लगता है कि वह दलगत राजनीति में दखल न देने के अपने ही वायदे पर अडिग नहीं हो पा रही है। गत दिवस अन्ना हजारे ने फिर यह कहा कि यदि संसद के शीतकालीन सत्र में लोकपाल न आया तो वह खुद घूम-घूम कर कांग्रेस को वोट न देने की अपील करेंगे, जबकि इसके पहले ऐसा कुछ न करने की बात कह चुके थे।
पिछले दिनों राज्यपालों के सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने यह कहकर देश को भरोसा दिलाया कि भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने का समय आ गया है। केंद्र सरकार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी सक्रियता दिखाने के क्रम में कुछ कदम उठाए भी हैं। उसने विदेशी बैंकों में गोपनीय खाता रखने वाले भारतीयों को नोटिस जारी किए हैं और जनशिकायत निवारण अधिकार विधेयक लाने की तैयारी भी शुरू की है। भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ जारी मुहिम का असर जी-20 देशों के सम्मेलन में भी देखने को मिला। इस समय कालेधन से केवल भारत ही नहीं, बल्कि अन्य देश भी परेशान हैं। यही कारण है कि इस सम्मेलन में इस पर चर्चा हुई कि भ्रष्टाचार का सामना कैसे किया जाए? यदि भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना के अभियान की गूंज है तो विकसित देशों में बड़े वित्तीय संस्थानों की मनमानी के खिलाफ मुहिम छिड़ी हुई है। यह अच्छी बात है कि केंद्र सरकार संसद के इसी सत्र में जनशिकायत निवारण अधिकार विधेयक लाने जा रही है, लेकिन अच्छा होता कि यह विधेयक संप्रग शासन के पहले कार्यकाल में ही ले आया जाता, क्योंकि 2008 में संसदीय समिति ने इसके लिए स्पष्ट सिफारिश भी की थी। कोई नहीं जानता कि तब इस सिफारिश को क्यों ठुकरा दिया गया?
देर से ही सही, यदि देश की जनता सूचना अधिकार की तर्ज पर जनशिकायत निवारण अधिकार से लैस होती है तो भ्रष्ट सरकारी कर्मचारियों की मनमानी पर अंकुश लगेगा, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि सरकारी विभागों की शिथिलता से सूचना आयोग की समस्याएं बढ़ रही हैं। पर्याप्त संख्या में आरटीआइ अर्जियों का जवाब नहीं दिया जा रहा है। स्पष्ट है कि जनशिकायत निवारण कानून को प्रभावी बनाने के लिए उपयुक्त तंत्र की स्थापना किए बगैर भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने का लक्ष्य पूरा होने वाला नहीं। यह आश्चर्यजनक है कि टीम अन्ना को जन शिकायत निवारण विधेयक रास नहीं आ रहा है। टीम अन्ना की मानें तो सरकार लोकपाल के टुकड़े कर उसे कमजोर करने में लगी हुई है। फिलहाल ऐसे किसी निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी, क्योंकि अभी तो इस विधेयक के मसौदे पर विचार-विमर्श भी शुरू नहीं हुआ है। टीम अन्ना ने लोकपाल विधेयक पर सरकार को चेताते हुए उसे हिसार लोकसभा उपचुनाव की याद दिलाई है। यह सही है कि हिसार में कांग्रेस उम्मीदवार की जमानत जब्त होने में टीम अन्ना की मुहिम का भी हाथ रहा, लेकिन तथ्य यह भी है कि आम जनता ने इस मुहिम का स्वागत नहीं किया।
यह शुभ संकेत नहीं कि अन्ना हजारे के दिल्ली आने के साथ ही कांग्रेस और उनकी टीम के बीच तकरार बढ़ गई है। दिग्विजय सिंह अन्ना के हर हमले का अपनी तरह से जवाब दे रहे हैं। कांग्रेस के रवैये पर टीम अन्ना की आपत्ति जायज हो सकती है, लेकिन पिछले दिनों किरण बेदी द्वारा अपने मेजबानों से हवाई यात्रा का पूरा किराया वसूलने से टीम अन्ना की साख को धक्का लगा है। किरण बेदी के बाद अरविंद केजरीवाल को चंदे का हिसाब किताब दुरुस्त न रखने के लिए जिस तरह घेरा गया उससे सरकार की नीयत पर संदेह तो होता है, लेकिन टीम अन्ना नैतिक सवालों का सामना करने से बच नहीं सकती। यह ठीक है कि किरण बेदी और केजरीवाल के नैतिक सवालों से घिरने के बावजूद टीम अन्ना एकजुट है, लेकिन यदि वह कांग्रेस के हमलों का सही तरह जवाब देना चाहती है तो उसे एकजुटता की घोषणा करने के साथ एकजुट दिखना भी चाहिए। दरअसल तभी कांग्रेस और साथ ही केंद्र सरकार यह समझेगी कि टीम अन्ना पर हमला बोलने से उसे कुछ मिलने वाला नहीं है। सरकार की प्राथमिकता तो भ्रष्टाचार के मोर्चे पर उभरी चुनौतियों से पार पाना होना चाहिए, न कि टीम अन्ना को खारिज करना। वैसे भी सरकार की चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं, खासकर उत्तराखंड सरकार द्वारा लोकायुक्त विधेयक पारित करने से।
यह लगभग तय है कि संसद के शीतकालीन सत्र में भ्रष्टाचार की गूंज रहेगी। इसका एक कारण भ्रष्टाचार के खिलाफ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा भी है। संसद के इस सत्र में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के मामले में सरकार के साथ-साथ अन्य राजनीतिक दलों के दावों की भी परीक्षा होगी। नि:संदेह कुछ कानूनों के निर्माण भर से भ्रष्टाचार पर अंकुश नहीं लगने वाला। प्रभावी कानून बनाकर भ्रष्टाचार को नियंत्रित तो किया जा सकता है, लेकिन उसे पूरी तरह खत्म करना मुश्किल है। भ्रष्टाचार भारत की जीवन शैली का एक अंग बन गया है। भ्रष्टाचार पर कारगर ढंग से अंकुश लगाने के लिए आम भारतीयों को अपने आचरण में तब्दीली लानी होगी। लोगों को अपना काम कराने के लिए सुविधा शुल्क देने की आदत छोड़ने के साथ-साथ नैतिक-अनैतिक में भेद करना भी सीखना होगा। यह सबक कारपोरेट जगत के लोगों को खास तौर पर सीखना होगा, क्योंकि वे सही-गलत काम कराने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं। सूचना अधिकार हो अथवा आगे आने वाले जनशिकायत निवारण अधिकार और लोकपाल के तहत मिलने वाले अधिकार-ये सब तब हमारी मदद करेंगे जब हम उनका सही ढंग से इस्तेमाल करेंगे। यह राहतकारी है कि सरकार ने भ्रष्टाचार को रोकने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखानी शुरू कर दी है, लेकिन बात तब बनेगी जब ऐसी ही इच्छाशक्ति का परिचय देश की जनता भी देगी। टीम अन्ना का अभियान आम जनता को दैनिक जीवन में भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए प्रेरित कर सकता था, लेकिन यह निराशाजनक है कि यह टीम अब राजनीति करती दिख रही है। यदि अन्ना और उनके साथी परोक्ष रूप से भी दलगत राजनीति के फेर में पड़ेंगे तो इससे वे अपनी विश्वसनीयता ही खोएंगे।
इस आलेख के लेखक संजय गुप्त हैं
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