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[अन्ना हजारे के आंदोलन से शासकों को भूल सुधार के लिए एक अवसर मिलता देख रहे हैं कुलदीप नैयर]
जब सिविल सोसाइटी अपना धैर्य खो बैठती है तो वह सड़कों पर उतर आती है। सिविल सोसाइटी आक्रोशित है, किंतु है शांत। यह था वह परिदृश्य जो कुछ दिन पूर्व भारत में परिलक्षित हुआ था। माहौल ऐसा था कि जिसमें समग्र प्रणाली को लोग पूर्णतया गया गुजरा समझ रहे थे और उसमें आमूल-चूल परिवर्तन के पक्षधर थे। उनमें से हजारों समाज के विभिन्न वर्गो से संबद्ध थे जो एक गांधीवादी द्वारा दिए गए आज्जान पर एकत्रित हुए थे। उनका आज्जान था भ्रष्टाचार का उन्मूलन। अन्ना हजारे ने सरकार को भ्रष्ट जनों को दंडित किया जाना सुनिश्चित कराने के लिए विगत 42 वर्षो से लंबित लोकपाल संस्था के गठन संबंधी विधेयक को पुन: ड्राफ्ट करने के लिए एक दस सदस्यीय समिति के गठन पर बाध्य करने के लिए अनशन किया था। उनकी मांग थी कि इस दस सदस्यीय समिति में पांच सदस्य सत्ता पक्ष के हों और पांच सिविल सोसाइटी से हों। यह सिविल सोसाइटी का एक शुद्धीकरण था, जो ऊपर से नीचे तक व्याप्त भ्रष्टाचार की टीस तो अनुभव कर रही थी, किंतु स्वयं को असमर्थ और असहाय अनुभव कर रही थी।
हजारे के अभियान ने सिविल सोसाइटी को एक संघर्ष में योगदान का अवसर प्रदान किया। घोटालों के उस घटाटोप से हताश सिविल सोसाइटी की लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था में आस्था ही तिरोहित सी हो रही थी। उस आस्था को अन्ना हजारे ने पुनर्जीवित किया। जब सरकार ने अन्ना हजारे की संयुक्त समिति के गठन की मांग मान ली तो उन्होंने अपना अनशन समाप्त किया। इससे जनसमूह, जिसमें अनिवार्यत: मध्यम वर्ग की ही बहुलता थी, को यह भरोसा हो गया कि भ्रष्टाचार का उन्मूलन हो जाएगा।
हो सकता है कि लोगों की यह अपेक्षा से बहुत अधिक हो। हो सकता है कि वे लोकपाल के संस्थान को भ्रष्टाचार के उन्मूलन का माध्यम न मानकर अपने आप में एक लक्ष्य ही मान रहे हों। उनकी वरीयता चाहे जो हो, हजारे में उनका पूरा-पूरा विश्वास है। वे पूरी तरह उनके पीछे हैं, क्योंकि वे उनमें एक ऐसे व्यक्ति को देख रहे हैं जो भ्रष्टाचार का खात्मा करेगा। यह आंदोलन को अवमानित करने में आलोचकों और कुंठित बुद्धिजन ने हाथ मिला लिए हैं, किंतु वे इस बात को विस्मृत कर देते हैं कि ऐसा ही एक उपक्रम गांधीवादी जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में 1975 में हुआ था। 1975-77 में इंदिरा गांधी ने संस्थानों को आपातकाल के दौरान एक प्रकार से नष्ट कर दिया था। राज्यों में मुख्यमंत्रियों ने भी ऐसा ही किया था। प्रशासन को अब कमजोर कर एक ऐसी प्रणाली में बदला गया है जिसका संचालन राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों, एजेंसियों और अपराधियों के गठबंधन से हो रहा है। चाहे कोई मुख्य सचिव हो या जांच प्रमुख, वह ऊपर से आदेश की प्रतीक्षा करता है।
हजारे की उद्घोषणाओं पर मैं तनिक चिंतित भी हूं। आंदोलन के दौरान उन्होंने कहा कि महात्मा गांधी के अहिंसात्मक मार्ग का स्थान शिवाजी के हिंसक तरीके भी ले सकते हैं। दूसरे शब्दों में हजारे के कहने का तात्पर्य यह है कि वह अपने लक्ष्य की सिद्धि अहिंसात्मक तरीके से करेंगे और यदि ऐसा नहीं हुआ तो आवश्यक होने पर उग्रवाद का भी सहारा लेंगे। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की उन्होंने जो प्रशंसा की है वह भी आंदोलन की उस भावना के विरुद्ध है जो अपने सार तत्व के रूप में सेक्युलर है। मोदी ने विकास के क्षेत्र में अच्छा काम किया है, किंतु यह तथ्य है कि उनके राज्य में 2,500 मुस्लिम मारे गए थे। फर्जी मुठभेड़ों के मामले अभी भी अदालतों में चल रहे हैं। उन्हें हजारे एक प्रमाणपत्र कैसे दे सकते हैं? हो सकता है कि उन्होंने यह सरल स्वभाव से कह दिया हो, किंतु उन्हें सतर्क रहना चाहिए था, क्योंकि लोगों ने उन्हें उच्चासन पर आसीन किया है। लोग क्या कर सकते है? बेहतर लोगों को आगे लाने के लिए एक प्रक्रिया अपेक्षित है। आज राजनीतिक प्रक्रिया इतनी महंगी हो गई है कि लोकसभा प्रत्याशी को पंद्रह करोड़ रुपया व्यय करना होता है। राजनीतिक दल अपने प्रत्याशियों की सूची में से अपराधियों को अलग नहीं करना चाहते।
निर्वाचन आयोग दलों को इस बात के लिए आश्वस्त करने के लिए प्रयासरत है कि वे अपराधियों को परे रखें, किंतु कोई सफलता नहीं मिली। इसका तात्पर्य यह है कि चुनावी सुधार होने चाहिए ताकि ईमानदार लोग उनमें डटकर भाग ले सकें। धन और बाहुबली जन को बाहर रखना ही होगा। लोकपाल विधेयक के नए ड्राफ्ट को 30 जून तक अंतिम रूप देने पर सरकार और सिविल सोसाइटी में सहमति हुई है। वे सुधार उसका भाग नहीं हो सकेंगे। हजारे ने कहा है कि 15 अगस्त तक कानून बन जाना चाहिए। मुझे मंत्रियों के समूह की ओर से प्रतिरोध की आशंका है, जिसके प्रमुख वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी हैं। सरकार यह नहीं चाहती कि लोकपाल सीधे ही शिकायतें प्राप्त कर सके। उन्हें निपटाना दूर की बात है। मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने तो लोकपाल विधेयक का मखौल ही बना दिया। वह कहते हैं कि वह निर्धनों को शिक्षा और ‘मेडिकल केयर’ उपलब्ध नहीं करा सकता। हम सभी जानते हैं कि लोकपाल देश की व्याधियों के लिए अचूक औषधि नहीं है, किंतु यह संस्थान जब स्थापित हो जाएगा तो यह देखेगा कि राजनीतिज्ञों, न्यायाधीशों और नौकरशाहों को जवाबदेह बनाया जाए।
सरकार ने संयुक्त समिति की नियुक्ति संबंधी अधिसूचना के मामले में जो रवैया अपनाया उससे मैं चिंतित हूं। कांग्रेस के प्रवक्ता ने यह तर्क दिया कि यदि अधिसूचना जारी होती है तो उससे संविधान का मखौल हो जाएगा और एक ऐसा पूर्व उदाहरण हो जाएगा जो राष्ट्र के लिए भयावह होगा। इंदिरा गांधी ने कैबिनेट तक से परामर्श न कर आपातकाल थोपने की अधिसूचना जारी की थी। वह सीधे ही राष्ट्रपति के पास गई थीं और लगभग अर्द्धरात्रि में ही अधिसूचना पर हस्ताक्षर करा लिए थे। सत्तारूढ़ दल संवैधानिक औचित्य की बात कैसे कर सकता है जब उसने ही संविधान का कभी-कभार ही सम्मान किया है? बुनियादी तथ्य जो ध्यान देने योग्य है वह यह है कि शहरी मध्यम वर्ग ने पहली बार शांतिपूर्ण और सामूहिक ढंग से अपना क्षोभ व्यक्त किया है। मध्यम वर्ग दिन प्रतिदिन के घटनाक्रम का आकलन अध्ययन कर रहा है। दोनों पक्ष ही सिंह की सवारी कर रहे हैं, जब वे एक मत हों तभी उससे उतर सकते है। आंदोलन यह भी संकेत देता है कि देश खौल रहा है। यदि शासकों ने देश के सामान्य जन की आवश्यकताओं पर ध्यान नहीं दिया तो नीचे धधक रहा लावा फट सकता है। मैं महसूस करता हूं कि यही समय है जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह स्वयं को पुन: जनप्रिय बना सकते हैं। उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा काफी हद तक गंवा दी है। उन्हें हस्तक्षेप करना चाहिए और ऐसा करते हुए वह दिखाई भी देने चाहिए।
[लेखक प्रख्यात स्तंभकार हैं]
साभार: जागरण नज़रिया
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