Menu
blogid : 133 postid : 1891

पंजाब में कांग्रेस का संकट

संपादकीय ब्लॉग
संपादकीय ब्लॉग
  • 422 Posts
  • 640 Comments

Nishikant Thakur इन दिनों पंजाब कांग्रेस में जिस तरह सिर फुटौवल की शुरुआत हुई है, उससे न केवल पंजाब में कांग्रेस की मौजूदा स्थिति और कार्यशैली, बल्कि उसके नेताओं की वैचारिक अपरिपक्वता भी जाहिर हो रही है। इस बात से किसी को एतराज नहीं होना चाहिए कि कांग्रेस के विभिन्न गुट आपस में जिस तरह एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का खेल खेलने में लगे हुए हैं, उससे कोई पार्टी की स्थिति सुधरने नहीं जा रही है। इससे आम जनता के बीच पार्टी की साख और बिगड़नी ही है। नतीजा यह होगा कि रही-सही मर्यादा भी चली जाएगी। इसके बावजूद देश की सबसे पुरानी पार्टी, जिसकी पंजाब में भी एक दशक पहले तक अच्छी हैसियत और साख रही है, के भीतर सिर फुटौवल में लगे सभी नेता जिम्मेदार और रसूख वाले हैं। इनमें सभी आपसी फूट को सिर्फ हवा देने में लगे हुए हैं। पंजाब का एक भी बड़ा नेता जोरदार ढंग से यह कह पाने की हैसियत में अपने को नहीं पाता है कि बहुत हो गए आरोप-प्रत्यारोप, अब बंद करो। क्या इसका यह अर्थ यह लिया जाए कि पंजाब में कांग्रेस के नेताओं को अपने ही कार्यकर्ताओं के संबंध में अपनी साख का भरोसा नहीं रह गया है? पार्टी के भीतर से ही अब ऐसी बातें उठने लगी हैं जो आम तौर पर विरोधी दल करते हैं। पंजाब की मुख्यमंत्री रह चुकी कांग्रेस की कद्दावर नेता राजिंदर कौर भट्ठल अपनी ही पार्टी के अध्यक्ष कैप्टन अमरिंदर सिंह पर जिस तरह के आरोप लगा रही हैं और उनके लिए वह जिस तरह की भाषा का प्रयोग कर रही हैं, उसके बहुत अर्थ निकाले जा सकते हैं।


राजनीतिक जानकारों और आम जनता के बीच वे सारे अर्थ निकाले भी जा रहे हैं। यह बात भट्ठल भी बहुत अच्छी तरह जानती हैं कि पार्टी की साख पर उनके ऐसे बयानों का असर क्या होगा। इसके बावजूद अगर वह इस हद तक चली गई हैं, तो निश्चित रूप से उसकी कुछ ठोस वजहें तो होंगी। यह पीड़ा सिर्फ सूबे में पार्टी की हार को लेकर ही नहीं है। इसके मूल में और भी कई बातें हैं, जो शायद अभी उभर कर सामने नहीं आ पा रही हैं। यह अलग बात है कि बिटवीन द लाइंस बहुत कुछ समझ लेने का आदी हमारा भारतीय जनमानस और राजनीतिक पंडित अपने-अपने ढंग से बहुत कुछ समझ ले रहे हैं। हालांकि अलग-अलग खेमों में इन बातों के जितने अर्थ निकाले जा रहे हैं, उनमें कितना दम है, यह अलग विचार का विषय है। इसमें जो सबसे गहरी पीड़ा उभर कर सामने आ रही है, वह है कार्यकर्ताओं की उपेक्षा। केवल भट्ठल ही नहीं, यह बात पार्टी से ग्रास रूट लेवल पर जुड़े कार्यकर्ता भी इन दिनों कह रहे हैं कि उनकी सुनी नहीं जाती। शायद यही वजह है कि मौजूदा लड़ाई में कोई भी खुलकर कैप्टन के साथ नहीं है और सभी हार का ठीकरा उनके मत्थे फोड़ रहे हैं। कैप्टन खुद जिस तरह कार्यकर्ताओं के सवालों का सामना करने से बच रहे हैं, उससे इस बात को और बल मिलता है। हालांकि सवाल यह भी है कि कांग्रेस की दुर्गति केवल पंजाब में ही नहीं हुई है। दूसरे राज्यों में भी कांग्रेस का प्रदर्शन कुछ खास अच्छा नहीं रहा है। सारी ताकत लगा देने के बावजूद उत्तर प्रदेश में भी उसका प्रदर्शन सुधर नहीं पाया।


उत्तराखंड में उसकी जीत भी कोई इतराने लायक नहीं है। इससे यह सवाल तो उठता है कि पंजाब में कांग्रेस नेतृत्व के प्रति नाराजगी क्या सिर्फ कार्यकर्ताओं तक ही सीमित थी? अगर ऐसा था तो दूसरे राज्यों में पार्टी की ऐसी दुर्गति क्यों हुई? क्या वहां भी पार्टी के आम कार्यकर्ताओं की उपेक्षा जिम्मेदार नेताओं द्वारा की गई है? इस प्रश्न पर पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। देश को पंडित जवाहर लाल नेहरू, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, लाल बहादुर शास्त्री जैसे सर्वस्वीकार्य नेता देने का श्रेय कांग्रेस के ही हिस्से में है। पंजाब में भी प्रताप सिंह कैरो और बेअंत सिंह जैसे कद्दावर नेता कांग्रेस के पास रहे हैं। आज वहां कांग्रेस के पास नेताओं के अकाल जैसी स्थिति दिख रही है। आखिर वजह क्या है इसकी? इसकी सबसे बड़ी वजह शायद यही है कि राजनीति आम जनता से टूट रही है। जनता के बीच साख गिरने ही नहीं, आपसी उखाड़-पछाड़ की बहुत बड़ी वजह भी शायद यही है। असल में जब राजनीति जमीन से टूट कर ड्राइंग रूम तक सीमित हो जाती है तो वह हर चीज का शॉर्टकट तलाशने लगती है। शॉर्टकट का सारा दारोमदार चापलूसी और साथियों के विरुद्ध षड्यंत्र पर ही टिका होता है। इससे नेताओं का कद कुछ खास लोगों की नजर में भले बढ़ता चला जाए, पर आम जनता के सामने गिरता ही चला जाता है और इसके साथ ही गिरती चली जाती है पार्टी की साख। अभी चल रहे विवाद से भी यही बात जाहिर हो रही है।


कांग्रेस में इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि खुद कुछ जिम्मेदार नेता ही चापलूसी को लगातार प्रश्रय देते रहे हैं। वे ऐसे लोगों की बातें शायद सुनना ही नहीं चाहते जो आम जनता की भावनाएं उन तक पहुंचा सकते हैं। कई बार इसे विरोध का स्वर मान कर दबाने की कोशिश भी होती रही है। नतीजा यह हुआ है कि अब लोग कहना चाहकर भी कहते नहीं हैं। लोकतंत्र में संसद की सबसे बड़ी उपयोगिता ही यही है कि वह जनता के दुख-दर्द को अभिव्यक्ति दे और उसकी समस्याओं के समाधान तलाशे। जब नेता सच सुनने के लिए ही तैयार नहीं होंगे तो फिर संसद की भूमिका ही क्या रह जाएगी? आम जनता की भावनाओं की बेकद्री का ही नतीजा है जो कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा। ऐसा केवल कांग्रेस के साथ ही नहीं है। यह विडंबना देश की अन्य बड़ी पार्टियों के साथ भी बढ़ रही है और इसका नतीजा भी साफ तौर पर देखा जा रहा है। सच तो यह है कि न केवल कांग्रेस, बल्कि अन्य बड़ी पार्टियों को भी इस मसले पर सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर सोचना चाहिए।


आम तौर पर होता यह है कि जब भी कोई पार्टी चुनाव में करारी हार खाती है तो वहां हार की वजहों का विश्लेषण शुरू हो जाता है। सारे सोच-विचार के बाद आखिरकार ठीकरा किसी न किसी व्यक्ति के सिर फोड़ दिया जाता है। लेकिन इससे समस्या का हल निकलने वाला नहीं है। काम सिर्फ हार की वजहों की समीक्षा करने से नहीं चलेगा। हार की वजह तो स्पष्ट है-आम जनता से टूटना। अब देखना यह होगा कि आम जनता से टूटने की वजह क्या है? पहले नेताओं की छटपटाहट चुनाव जीतने के बजाय आम जनता से जुड़ने, उसके दुख-दर्द को समझने और समाधान करने को लेकर होती थी। जनता आज भी ऐसे नेताओं की कद्र करती है और उन्हें सिर आंखों पर बिठाती है। यह उसने पंजाब और बिहार में बता दिया है। अगर राजनेता इस दौर में अपना कद बनाना चाहते हैं तो उन्हें यही करना होगा। आरोप-प्रत्यारोप से कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है।


लेखक निशिकांत ठाकुर दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं


Read Hindi News


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh