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अनैतिकता पर अतिरिक्त कृपा

संपादकीय ब्लॉग
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इसे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का दुर्भाग्य कहें या उनके कर्मो का फल कि बोफोर्स मामला एक बार फिर सतह पर आ गया। यह प्रकरण जिस तरह इस तथ्य के साथ उभरा है कि ओत्रवियो क्वात्रोची और विन चड्ढा को दलाली दी गई थी उससे मनमोहन सिंह की मुसीबत बढ़ना तय है। विन चड्ढा की तो मौत हो चुकी है, लेकिन कमबख्त क्वात्रोची अभी जिंदा है। जिस तरह देश इस सच्चाई से परिचित है कि क्वात्रोची को गुपचुप रूप से भगाने का काम नरसिंह राव के प्रधानमंत्रित्व काल में हुआ उसी तरह इससे भी कि लंदन स्थित उसके बैंक खातों पर लगी रोक हटाने का काम मनमोहन सिंह के शासन में हुआ। बोफोर्स मामले में सामने आया नया तथ्य केंद्रीय जांच ब्यूरो की साख का भी कचरा करने वाला है, क्योंकि यह तथ्य ऐसे समय सामने आया है जब दिल्ली की एक अदालत को सीबीआइ की उस याचिका पर निर्णय देना है जिसमें उसने सबूतों के अभाव में क्वात्रोची के खिलाफ मामला बंद करने की अनुमति मांगी है।


चूंकि देश को यह भी पता है कि प्रधानमंत्री के वायदे के बावजूद उन लोगों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई जिन्होंने क्वात्रोची पर मेहरबानी दिखाई इसलिए कुछ कठिन सवाल नए सिरे से उनके सामने होंगे? चूंकि मनमोहन सरकार दागियों पर विशेष मेहरबानी दिखाती रही है इसलिए अनैतिक और संदिग्ध तत्वों को समर्थन देना उसका अलिखित एजेंडा नजर आने लगा है। यदि ऐसा नहीं होता तो केंद्र सरकार के सबसे बड़े संकटमोचक प्रणब मुखर्जी यह नहीं कहते कि ए. राजा ने कुछ गलत नहीं किया और उन्होंने तो स्पेक्ट्रम आवंटन में वही नीति अपनाई जो राजग शासन के समय तय की गई थी। यह एक पुराना और लचर तर्क है। अब यदि प्रणब मुखर्जी भी इस फटेहाल तर्क की शरण लेने को विवश हैं तो इसका मतलब है कि स्पेक्ट्रम घोटाले पर केंद्र सरकार को कुछ सूझ नहीं रहा। अगर राजा ने कुछ गलत नहीं किया तो उनकी स्पेक्ट्रम आवंटन नीति पर खुद प्रधानमंत्री को एतराज क्यों था?


इससे भी महत्वपूर्ण सवाल यह है कि यदि राजा गलत नहीं थे तो फिर उनसे त्यागपत्र क्यों लिया गया? यदि स्पेक्ट्रम आवंटन में हेराफेरी नहीं हुई तो प्रधानमंत्री पौने दो लाख करोड़ रुपये की राजस्व क्षति का आकलन करने वाली नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रपट की छानबीन कर रही लोक लेखा समिति के समक्ष हाजिरी लगाने को क्यों तैयार हैं? इस सवाल के जवाब में यह एक पुराना प्रश्न उठ खड़ा होता है कि जब प्रधानमंत्री को लोक लेखा समिति के सामने हाजिर होने में हर्ज नहीं तो फिर संयुक्त संसदीय समिति के समक्ष पेश होने में क्या परेशानी है? यदि केंद्र सरकार इस एक सवाल का कोई तर्कसंगत जवाब दे दे तो वह इस संदेह से मुक्त हो सकती है कि स्पेक्ट्रम घोटाले में कुछ छिपाने-दबाने की कोशिश नहीं की जा रही है।


केंद्र सरकार और उसका नेतृत्व कर रही कांग्रेस यह माहौल बनाने की कोशिश में है कि स्पेक्ट्रम घोटाले में सरकार की भूमिका पर सिर्फ भाजपा को संदेह है। यथार्थ यह है कि यह संदेह सारे देश को है। यदि किन्हीं कारणों से भाजपा अथवा अन्य विपक्षी दल स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच संयुक्त संसदीय समिति से कराने की मांग करने की जगह मौन साध लें तो भी जनता के मन में घर कर चुका संदेह मिटने वाला नहीं है। प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह का यह दायित्व बनता है कि वह जनता के संदेह को दूर करने के लिए हर संभव उपाय करें, लेकिन इसके उलट वह निष्क्रियता दिखा रहे हैं और वह भी तब जब उनकी छवि पर बन आई है। यदि उनकी यह निष्क्रियता कायम रही तो वह इतिहास में अनैतिक और भ्रष्ट तत्वों को प्रोत्साहन देने वाले शासक के रूप में भी याद किए जाएंगे। विडंबना यह है कि ऐसे तत्वों को प्रोत्साहन देने का काम केवल स्पेक्ट्रम घोटाले में ही नहीं किया जा रहा है। राष्ट्रमंडल घोटाले की जांच में भी यही हो रहा है।


देश इस नतीजे पर पहुंच चुका है कि मनमोहन सिंह द्वारा नियुक्त केंद्रीय सतर्कता आयुक्त पीजे थॉमस इस पद के लिए सर्वथा अनुपयुक्त भी हैं और दागदार भी, लेकिन केंद्र सरकार उनसे पीछा छुड़ाने के लिए तैयार नहीं। सवाल एक अकेले पीजे थॉमस का ही नहीं है, क्योंकि देश यह भी देख रहा है कि अन्य महत्वपूर्ण पदों पर कैसे-कैसे लोगों को नियुक्त किया गया? आखिर मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष के रूप में केजी बालाकृष्णन ही सरकार की पहली पसंद क्यों थे? बालाकृष्णन के सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश पद से रिटायर होने के पहले ही यह तय हो गया था कि वह राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष बनेंगे। अब उन पर राजा का बचाव करने और अपने संबंधियों को अनुचित तरीके से संपन्न बनाने के जो आरोप लग रहे हैं उसके छींटों से केंद्र सरकार बच नहीं सकती। केंद्र सरकार पर कुछ ऐसे ही छींटे उन आरोपों के कारण भी पड़ रहे हैं जो प्रसार भारती के सीईओ बीएस लाली पर लग रहे हैं। यदि लाली, बालाकृष्णन और थॉमस मनमोहन सिंह की पसंद नहीं थे तो फिर वह प्रधानमंत्री हैं ही क्यों?


इस पर भी गौर करें कि इस नए वर्ष में मनमोहन सरकार क्या करने जा रही है? सूचना अधिकार कानून की धार कुंद करना पहले से ही उसके एजेंडे में है। इसके अतिरिक्त वह लोकपाल विधेयक पेश करने का इरादा जाहिर कर रही है, लेकिन इस विधेयक का मसौदा सिर्फ यह बताता है कि भ्रष्टाचार से लड़ाई का दिखावा करने वाली एक और नख-शिख-दंत विहीन संस्था का निर्माण करने की तैयारी हो रही है। यह लोकपाल आवश्यक अधिकारों से वंचित एक सलाह देने वाली संस्था भर तो होगा ही, उसके दायरे में केवल राजनेता होंगे, नौकरशाह और न्यायाधीश नहीं। केंद्रीय सत्ता के ऐसे आचरण से यदि किसी को सबसे अधिक बल मिल रहा होगा तो वे होंगे भ्रष्ट तत्व। आश्चर्य नहीं कि नया वर्ष सबसे अधिक उन्हें ही शुभ-लाभ दे।


[राजीव सचान: लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर है]

Source: Jagran Yahoo

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