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ईमानदार होने का राग अलाप रही और ईमानदारी का प्रमाण-पत्र बांट रही कांग्रेस के नेतृत्व वाली मनमोहन सरकार अपने आचरण से जो कुछ प्रदर्शित कर रही है उससे सिर्फ और सिर्फ यह साबित हो रहा है कि वह स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच कराने के लिए तैयार नहीं। इस घोटाले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति न गठित करने के लिए वह हर दिन एक नया कुतर्क देती है। चूंकि उसे नित नए बहाने गढ़ने पड़ रहे हैं इसलिए यह स्वत: साबित हो जाता है कि वह संयुक्त संसदीय समिति से भयभीत है। चूंकि सरकार संयुक्त संसदीय समिति गठित न करने पर आमादा है इसलिए इस पर यकीन करने का सवाल ही नहीं उठता कि वह स्पेक्ट्रम घोटाले की नीर-क्षीर ढंग से जांच कराएगी। सच तो यह है कि इसके प्रमाण भी सामने आने लगे हैं। पहला प्रमाण सुप्रीम कोर्ट का सीबीआई से यह सवाल है कि उसने राणा से पूछताछ क्यों नहीं की? दूसरा प्रमाण जनता का ध्यान बटाने के लिए प्रवर्तन निदेशालय का कॉरपोरेट लॉबिइस्ट नीरा राडिया के पीछे पड़ना है।
नीरा राडिया की विभिन्न लोगों से टेलीफोन बातचीत यह तो साबित करती है कि उनकी दिलचस्पी इसमें भी थी कि द्रमुक के नेताओं को महत्वपूर्ण मंत्रालय मिलें, लेकिन आखिर इसके लिए लॉबीइंग करना अपराध कैसे हो गया? यदि अपराध है तो फिर केवल नीरा से ही पूछताछ क्यों?
सवाल यह भी है कि क्या 2009 में मंत्रियों और मंत्रालयों का निर्धारण लॉबीइंग के जरिए हुआ? यदि वास्तव में ऐसा हुआ तो फिर सरकार के लोगों से पूछताछ क्यों नहीं होनी चाहिए। यदि किसी सरकार में मंत्रियों का चयन और उनके मंत्रालयों का बंटवारा कारपोरेट घरानों की पैरोकारी से होता है तो फिर लॉबीइंग करने वाले तो सक्रियता दिखाएंगे ही। सच तो यह है कि यदि कल को प्रधानमंत्री के चयन भी कारपोरेट घरानों और गठबंधन विशेष के घटक दलों के दबाव में होने लगे तो लाबिइस्ट इसके लिए भी प्रयास करेंगे। उनका तो काम ही है अपने ग्राहकों के हितों की रक्षा करना। यदि सरकारी काम पैरवी और पैरोकारों के बल पर ही होने लगे है तो फिर कठघरे में भी उसे होना चाहिए। अगर किसी सरकार के कार्यकाल में लॉबीइंग करने वाले सफल हैं तो इसका एक मतलब यह है कि वह सरकार सत्ता के दलालों से घिरी है।
यदि नीरा राडिया ने किन्हीं नियम-कानूनों का उल्लंघन नहीं किया है तो फिर उन्हें तंग क्यों किया जाना चाहिए-और यदि उनसे सात घंटे पूछताछ जरूरी थी तो फिर उन लोगों से सात मिनट भी पूछताछ क्यों नहीं की गई जो अपना काम-धंधा छोड़कर उनके सहायक की भूमिका में आ गए थे अथवा उनके हरकारे या फिर मददगार बने हुए थे?
फिलहाल तो यही लगता है कि नीरा राडिया को बलि का बकरा बनाया जा रहा है? खिसियाई केंद्र सरकार उनके पीछे उसी तरह पड़ी है जिस तरह एक समय ललित मोदी के पीछे पड़ गई थी, क्योंकि शशि थरूर को इस्तीफा देना पड़ा था। राष्ट्रमंडल घोटाले में भी सरकार बलि के बकरों के रूप में सुरेश कलमाड़ी के सहायकों को घेरने में लगी हुई है। आश्चर्य नहीं कि आदर्श सोसायटी घोटाले में भी ऐसा ही हो, क्योंकि केवल अशोक चज्जाण का त्यागपत्र लेकर यह ढोल पीटा जा रहा है आवश्यक कार्रवाई कर दी गई?
यह एक पहेली है कि स्पेक्ट्रम आवंटन में न तो मनमानी करने वाले राजा का कुछ बिगड़ता नजर आ रहा है और न ही उन कंपनियों का जिन पर राजा ने विशेष कृपा दिखाई और जिसके चलते उन्होंनेअपनी झोलियां भर लीं। यह शर्मनाक है कि प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से हजारों करोड़ रुपये के वारे-न्यारे करने वाले किसी भी तरह की कार्रवाई से बचे हुए हैं और फिर भी संसद से लेकर सड़क तक यह कर्णभेदी शोर मचाया जा रहा है कि हम ईमानदारी की मिसाल कायम कर रहे हैं। कुछ कांग्रेसी नेता यह कुतर्क पेश करने में जुट गए हैं कि राजा ने स्पेक्ट्रम आवंटन उसी नीति के तहत किया जिसके तहत राजग शासन में किए गए थे। देश जानना चाहेगा कि भाजपा की नीतियां कांग्रेस के लिए कब से अनुकरणीय हो गईं? काग्रेस यह कहकर भी खुद को पाक-साफ बताने की कोशिश कर रही है कि हमने तो अशोक चज्जाण को हटा दिया, लेकिन भाजपा ने येद्दयुरप्पा को बख्श दिया। नि:संदेह भाजपा ने येद्दयुरप्पा के समक्ष घुटने टेक दिए हैं, लेकिन क्या कांग्रेस केवल भाजपा के प्रति जवाबदेह है या फिर उसने नीतिगत स्तर पर यह तय कर लिया है कि भ्रष्टाचार के मामलों में जैसा भाजपा करेगी वैसा ही वह भी करेगी? यदि एक क्षण के लिए यह मान लिया जाए कि किसी विपक्षी दल के नेता चोरी करते थे तो क्या इस आधार पर सत्तापक्ष के नेताओं को डाका डालने का अधिकार मिल जाना चाहिए?
ए. राजा ने जो कुछ किया है वह सरकारी खजाने पर डाका डालने जैसा है और फिर भी देश को यह घुट्टी पिलाने की कोशिश हो रही है कि केंद्र सरकार को भ्रष्टाचार सहन नहीं। इसके साथ-साथ प्रधानमंत्री की ईमानदार छवि की भी आड़ ली जा रही है, जबकि सवाल प्रधानमंत्री की ईमानदारी का नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी सक्रियता का है। चूंकि खुद सुप्रीम कोर्ट उनकी निष्क्रियता पर सवाल उठा चुका है इसलिए कांग्रेस की सफाई का कोई मतलब ही नहीं रह जाता। यदि सुप्रीम कोर्ट स्पेक्ट्रम घोटाले पर प्रधानमंत्री की निष्क्रियता को परेशान करने वाली नहीं करार देता तो भी यह साबित होने वाला नहीं था कि वह भ्रष्टाचार के खिलाफ सचेत और सक्रिय हैं। आखिर यह तथ्य है कि राष्ट्रमंडल घोटाला उनकी नाक के नीचे हुआ। इसके अतिरिक्त यह भी साफ है कि बोफोर्स दलाल क्वात्रोची के बैंक खातों पर लगी रोक उनके ही शासनकाल में हटी। अब किसी को यह कहने की जरूरत नहीं कि प्रधानमंत्री कमजोर हैं, क्योंकि खुद उन्होंने अपनी कमजोरी पर मुहर लगा दी है।
इस आलेख के लेखक राजीव सचान दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं
Source: Jagran Yahoo
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