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नाकामी के बाद नसीहत

संपादकीय ब्लॉग
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Sanjay Guptउत्तराखंड में एक रेल परियोजना के शिलान्यास के अवसर पर पढ़े गए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के भाषण में भ्रष्टाचार को लेकर टीम अन्ना पर जिस तरह निशाना साधा गया उससे कांग्रेस और इस टीम के बीच की तकरार एक नए स्तर पर पहुंचती दिखाई दी। इसके पहले कांग्रेस की ओर से टीम अन्ना पर आरोप मढ़ने का काम कांग्रेस के प्रवक्ताओं और विशेष रूप से उसके महासचिव दिग्विजय सिंह कर रहे थे। कभी-कभी केंद्र सरकार के मंत्री भी इस मुहिम में शामिल होते दिखते थे, लेकिन यह पहली बार है जब खुद सोनिया गांधी ने टीम अन्ना को निशाने पर लेते हुए कहा कि केवल भाषणबाजी से भ्रष्टाचार नहीं रुकेगा और इस मुद्दे पर शोर-शराबा करने वालों को अपने अंदर भी झांकना चाहिए। उनके इस कथन में कुछ भी अनुचित नहीं, लेकिन यह अवश्य आश्चर्यजनक है कि रेल परियोजना के शिलान्यास के अवसर पर उन्हें टीम अन्ना को यह संदेश देने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई? कहीं ऐसा तो नहीं कि लोकपाल विधेयक को लेकर टीम अन्ना की ओर से केंद्र सरकार पर बनाए जा रहे दबाव का असर सोनिया गांधी पर पड़ने लगा है? सच्चाई जो भी हो, इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए सोनिया गांधी ने पिछले वर्ष पार्टी के पूर्ण अधिवेशन में जो पांच सूत्रीय उपाय बताए थे उनके अनुरूप कोई ठोस काम नहीं हो सका है।


यह सही है कि केंद्र सरकार संसद के शीतकालीन सत्र में मजबूत लोकपाल विधेयक लाने के लिए वचनबद्ध है और खुद प्रधानमंत्री ने टीम अन्ना को इस बारे में भरोसा दिलाया है, लेकिन क्या कोई यह सुनिश्चित करने की स्थिति में है कि यह विधेयक पारित भी होगा? सवाल यह भी है कि लोकपाल विधेयक लाने के अतिरिक्त और क्या ऐसे कदम उठाए जा रहे हैं जिससे भ्रष्टाचार पर लगाम लग सके? यह सवाल इसलिए, क्योंकि सभी यह मान रहे हैं कि एक अकेले लोकपाल से भ्रष्टाचार पर लगाम लगने वाली नहीं है। कांग्रेस और केंद्र सरकार के लिए ऐसे किसी सवाल का जवाब देना भी मुश्किल है कि राष्ट्रमंडल खेल घोटाले के सामने आने के बाद भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए क्या कदम उठाए गए हैं? केंद्र सरकार भ्रष्टाचार का खात्मा करने के लिए प्रतिबद्ध है, इस दावे का तब तक कोई अर्थ नहीं जब तक इस दिशा में ठोस कदम उठाकर उन पर अमल नहीं किया जाता। वैसे भी तथ्य यह है कि पिछले सात वर्षो में संप्रग सरकार ने एक भी ऐसा कदम नहीं उठाया जिससे भ्रष्ट तत्वों पर लगाम लगती। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि यदि अन्ना अपने गांव रालेगण सिद्धि से निकलकर दिल्ली नहीं आते तो भ्रष्टाचार के खिलाफ कोरे भाषण देने के अलावा और कुछ होने वाला नहीं था। यदि केंद्र सरकार भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के प्रति गंभीर है, जैसा कि बार-बार दावा किया जा रहा है तो फिर कांग्रेस के नेता टीम अन्ना को बदनाम करने के लिए अतिरिक्त मेहनत क्यों कर रहे हैं? क्या दिग्विजय सिंह को टीम अन्ना को बदनाम करने की भी जिम्मेदारी सौंपी गई है? आखिर भ्रष्टाचार से लड़ने का यह कौन सा तरीका है कि उसके खिलाफ आवाज उठाने वालों को हर संभव तरीके से लांछित किया जाए?


यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कांग्रेस की ओर से टीम अन्ना को बदनाम करने का सिलसिला कायम है। कांग्रेस भ्रष्टाचार से निपटने पर कम उसे लेकर राजनीति करती ज्यादा दिख रही है। संभवत: यही कारण है कि टीम अन्ना उसके निशाने पर बनी ही रहती है। वैसे टीम अन्ना के लिए भी यह आवश्यक है कि वह संसद के शीतकालीन सत्र तक शांत बैठे-इसलिए और भी, क्योंकि खुद प्रधानमंत्री ने चिट्ठी लिखकर लोकपाल लाने का वादा किया है। यह ठीक नहीं कि टीम अन्ना न केवल सरकार पर अनावश्यक दबाव बना रही है, बल्कि यह भी संकेत देने की कोशिश कर रही है कि लोकपाल व्यवस्था उसकी मर्जी के हिसाब से बननी चाहिए। हाल ही में टीम अन्ना ने बिहार के लोकायुक्त कानून को पूरी तरह समझे बगैर जिस तरह खारिज किया उससे तो ऐसा लगता है कि उसे लोकायुक्त और लोकपाल व्यवस्था बनाने का कोई विशेष अधिकार मिल गया है। यदि टीम अन्ना आलोचना से बचना चाहती है तो फिर उसे ऐसे काम करने से भी बचना होगा जिससे उसे नैतिक सवालों से घेरा जा सके। हाल में उस पर जो भी सवाल उठे हैं उनके लिए वही अधिक जिम्मेदार है। टीम अन्ना की जरूरत से ज्यादा राजनीतिक सक्रियता यही आभास कराती है कि वह खुद को राजनीति करने से नहीं रोक पा रही है। उसने हिसार लोकसभा चुनाव में जिस तरह हस्तक्षेप किया उससे देश को यही संदेश गया कि उसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा बढ़ गई है। शायद उसके इसी रवैये पर सोनिया गांधी ने उसे शोर-शराबा न करने की नसीहत दी।


उत्तराखंड में सोनिया के भाषण से यह तो साफ हुआ कि भ्रष्टाचार से निपटना उनकी प्राथमिकता सूची में है, लेकिन केवल इतना ही पर्याप्त नहीं। उन्हें यह अहसास होना चाहिए कि देश में निराशा का माहौल बनने का एक अन्य कारण आर्थिक मोर्चे पर उभर रहीं चुनौतियां भी हैं। ये चुनौतियां लगातार गंभीर होती जा रही हैं। महंगाई ने आम आदमी को चपेट में लेने के बाद अर्थव्यवस्था पर भी असर डालना शुरू कर दिया है। अब यह और स्पष्ट है कि सरकार ने महंगाई से पार पाने की जिम्मेदारी केवल रिजर्व बैंक के कंधों पर डालकर ठीक नहीं किया। ब्याज दरों में वृद्धि का दुष्परिणाम औद्योगिक उत्पादन में गिरावट के रूप में सामने आया है। रही-सही कसर पूंजी निवेश में कमी और जरूरी आर्थिक फैसलों के अटके होने से पूरी हो गई है। सरकार जरूरी आर्थिक फैसले भी नहीं ले पा रही है। यह अच्छी बात है कि सोनिया गांधी सरकार की अंदरूनी कलह से चिंतित हैं, लेकिन उसे दूर कर पाना इतना आसान नहीं, क्योंकि झगड़ा शीर्ष स्तर के मंत्रियों के बीच है और अब हर कोई इससे अवगत है। सरकार की अंदरूनी कलह के दुष्परिणाम सामने आ गए हैं और वे दुनिया को नजर भी आ रहे हैं। संसद के शीतकालीन सत्र के लिए लंबित विधेयकों का अंबार भी यही बताता है कि सरकार ने काम करना बंद कर दिया है।


यदि केंद्र सरकार शीतकालीन सत्र में लोकपाल विधेयक ले भी आती है तो भी उसकी चुनौतियां कम होने वाली नहीं, क्योंकि अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर समस्याएं गंभीर होती जा रही हैं। चूंकि भ्रष्टाचार पर लगाम न लगने के साथ विकास और सुधार की रफ्तार भी थम गई है इसलिए हालात अधिक चिंतित करने वाले हैं। भ्रष्टाचार से लड़ना एक सतत प्रक्रिया है और उसे एक सीमा तक नियंत्रित ही किया जा सकता है, पूरी तौर पर खत्म नहीं। इसके विपरीत थमते विकास को आसानी से गति दी सकती है। यह ऐसा काम नहीं जिसे बाद के लिए टाला जा सके। यदि विकास को गति दी जा सके तो भ्रष्टाचार से उत्पन्न निराशा के माहौल को भी आसानी से दूर किया जा सकता है।


टीम अन्ना से उलझने के स्थान पर कांग्रेस से भ्रष्टाचार के खिलाफ ठोस उपायों की अपेक्षा कर रहे हैं संजय गुप्त


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