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जनता का शौक देख-इंतजार देख

संपादकीय ब्लॉग
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[आम जनता के अन्ना हजारे के पीछे एकजुट होकर खड़े होने के कारणों को रेखांकित कर रहे हैं राजीव सचान]


सांसद खरीदकर सरकार बचाने के आरोपों पर सफाई देते समय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने लोकसभा में जब यह शेर पढ़ा था कि माना कि तेरी दीद के काबिल नहीं हूं मैं, तू मेरा शौक देख मेरा इंतजार देख तब वह विपक्ष ही नहीं, देश की जनता को भी जवाब दे रहे थे। उसी जनता ने अन्ना हजारे के समर्थन में खड़े होकर बिना कोई शेर पढ़े अपना शौक भी दिखा दिया और इंतजार भी। यह नौबत इसलिए आई, क्योंकि मनमोहन सरकार पिछले लगभग एक वर्ष से भ्रष्ट तत्वों के खिलाफ कार्रवाई करने के नाम पर या तो उनका बचाव कर रही थी या फिर कार्रवाई करने का दिखावा। यदि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में नहीं हो रही होती तो यह तय मानिए कि जांच के नाम पर जैसी लीपापोती सुरेश कलमाड़ी और हसन अली खान के मामलों में हो रही है वैसी ही इस मामले में भी हो रही होती। इस पर भी गौर करें कि राष्ट्रमंडल खेलों में अनगिनत घपलों और स्पेक्ट्रम घोटाले को लेकर सरकार तब हरकत में आई जब उसके सामने और कोई उपाय नहीं रह गया था। देश की जनता यह भी नहीं भूल सकती कि बेदाग छवि के तमगे वाले मनमोहन सिंह की सरकार ने पहले दागी पीजे थॉमस को केंद्रीय सतर्कता आयुक्त बनाया और फिर तब तक उनका बचाव किया जब तक सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें एक तरह से धक्के देकर बाहर नहीं किया। भ्रष्टाचार और भ्रष्ट तत्वों के खिलाफ दिखाई जा रही निष्क्रियता से आम जनता गुस्से से उबल रही थी, लेकिन केंद्र सरकार कुछ करने के बजाय देश को गुमराह करने में लगी हुई थी। वह जिस लोकपाल विधेयक को पारित कराने की बात कर रही थी वह देश की आंखों में धूल झोंकने की एक और कोशिश थी। यह लोकपाल विधेयक इतना लचर है कि यदि वह पारित भी हो जाए तो कुछ होने वाला नहीं है। वैसे यह शायद ही पारित होता। आम सहमति के अभाव या फिर अन्य किसी कारण की आड़ लेकर उसे फिर ठंडे बस्ते में डाले जाने की आशंका अधिक थी। पिछले 43 सालों से यही हो रहा है।


ऐसे लोगों की कमी नहीं जो अन्ना हजारे के आंदोलन को एक किस्म की ब्लैकमेलिंग बता रहे हैं। क्या मजबूत लोकपाल बनाने की मांग करना ब्लैकमेलिंग है और यदि है तो इसकी नौबत इसलिए आई, क्योंकि राजनीतिक नेतृत्व चार दशक से देश को न केवल गुमराह कर रहा है, बल्कि उसकी आंखों में धूल भी झोंक रहा है। पिछले सात साल से यह काम मनमोहन सरकार भी कर रही है। यह तय मानिए कि यदि घपलों-घोटालों के कारण केंद्र सरकार की छवि धूल-धूसरित नहीं होती तो वह अभी भी लोकपाल विधेयक का स्मरण करने वाली नहीं थी। अन्ना हजारे से समझौते के बाद प्रधानमंत्री का यह कहना हास्यास्पद है कि मुझे खुशी है कि सरकार और नागरिक समाज के प्रतिनिधि भ्रष्टाचार से लड़ने के हमारे पारस्परिक संकल्प में एक समझौते पर पहुंच गए हैं। अगर उन्हें इस समझौते से खुशी है तो फिर अन्ना को अनशन क्यों करना पड़ा? वह अनशन पर तो इसीलिए बैठे, क्योंकि सरकार एक मजबूत लोकपाल विधेयक तैयार करने को लेकर आनाकानी कर रही थी। प्रधानमंत्री के संदर्भ में प्रणब मुखर्जी का यह कथन भी हास्यास्पद है कि वह भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बहुत सतर्क और सक्रिय हैं।


ऐसे लोगों की भी कमी नहीं जो यह कटाक्ष कर रहे हैं कि क्या लोकपाल बनने से हर किस्म का भ्रष्टाचार थम जाएगा? केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने तो लोकपाल का मजाक उड़ाते हुए यहां तक कह दिया कि यदि कहीं पानी न आ रहा हो या फिर किसी गरीब बच्चे का एडमिशन न हो रहा हो तो क्या लोकपाल काम आएगा? बिल्कुल नहीं आएगा, लेकिन क्या इसका यह मतलब है कि भ्रष्ट तत्वों को हतोत्साहित और दंडित करने की कोई व्यवस्था न बने? स्पष्ट है कि ऐसे लोग अन्ना हजारे के आंदोलन और उसे समर्थन देने वाली जनता की भावनाओं की अनदेखी कर रहे हैं। जनता अन्ना के समर्थन में इसलिए आई, क्योंकि वह भ्रष्टाचार, अव्यवस्था के खिलाफ दिखाई जा रही निष्क्रियता से आजिज आ चुकी है। वह केवल यही नहीं चाहती कि लोकपाल बने। वह और भी बहुत कुछ चाहती है। दुर्भाग्य से इसके आसार कम ही है कि सत्ता में बैठे लोग चेतेंगे, क्योंकि वे चेत जाते तो द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग को ठंडे बस्ते से निकालने और भ्रष्टाचार रोधी संयुक्त राष्ट्र की संधि को अंगीकार करने का कोई उपक्रम करते दिख रहे होते। इस संधि पर 2005 में हस्ताक्षर किए गए थे, लेकिन उसे अंगीकार करने से बचने के लिए यह बहाना बनाया जा रहा है कि इसके लिए आवश्यक कानून बनाने शेष हैं। क्या ये कानून बनाने का काम किसी और देश के लोग करेंगे?


ऐसे लोगों की भी कमी नहीं जो यह सिद्ध करने में लगे हुए हैं कि अन्ना हजारे के तौर-तरीकों से तो लोकतंत्र और संवैधानिक व्यवस्था ही खत्म हो जाएगी। नि:संदेह यह पहली बार है जब किसी विधेयक का मसौदा तैयार करने का काम किसी जनसंगठन के लोग करेंगे, लेकिन ऐसी नई-अनूठी मांग को जनता ने अपना समर्थन इसलिए दिया, क्योंकि सत्ता में बैठे लोग लोकतंत्र और संवैधानिक व्यवस्था की जड़ें खोदने में लगे हुए हैं। क्या संकीर्ण राजनीतिक हितों के लिए केंद्रीय जांच ब्यूरो का दुरुपयोग करने, केंद्रीय सतर्कता आयोग को अधिकारविहीन बनाए रखने से संवैधानिक व्यवस्था मजबूत हो रही है? क्या काले धन के जरिये राजनीति चलाने, वोट खरीद कर चुनाव जीतने, आपराधिक तत्वों को प्रत्याशी बनाने अथवा गठबंधन राजनीति के नाम पर ब्लैकमेलिंग को बढ़ावा देने से लोकतंत्र मजबूत हो रहा है? बेहतर हो कि सरकार और राजनीतिक दल यह समझें कि अन्ना के समर्थन में देश इसलिए उठ खड़ा हुआ, क्योंकि वह उनके नाकारापन से पक गया है।


[लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं]


साभार: जागरण नज़रिया

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