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अब सारी दुनिया इससे परिचित है कि भारत में दो चीजों में तेजी से गिरावट हो रही है-अर्थव्यवस्था और प्रधानमंत्री की साख में। दुनिया इससे भी अवगत हो रही है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में गिरावट का कारण केवल यूरोपीय देशों और विशेष रूप से ग्रीस की खस्ताहाल आर्थिक स्थिति नहीं है, क्योंकि सभी को पता है कि भारत 2008 में मंदी का मुकबला करने में सफल रहा था। अब यह धारणा भी गहरी होती जा रही है कि एक समय बतौर वित्तमंत्री अर्थव्यवस्था में जान फूंकने वाले मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री के रूप में हर मोर्चे पर नाकाम हो रहे हैं। उन्हें सबसे ज्यादा नाकामी उसी क्षेत्र यानी अर्थव्यवस्था में मिल रही है जिसके वह विशेषज्ञ माने जाते हैं। केंद्र सरकार अर्थव्यवस्था में गिरावट के हर नए संकेत के बाद यही कहती है कि चिंता की बात नहीं, सब कुछ ठीक हो जाएगा। इसके साथ ही देश को यह भी बताया जाता है कि वैश्विक आर्थिक हालात के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था पर दबाव है। नि:संदेह यह एक सच्चाई है, लेकिन क्या आर्थिक सुधारों संबंधी महत्वपूर्ण विधेयक भी अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के कारण लटके हैं? क्या भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक इसी वजह से पारित नहीं हो पा रहा है? क्या पर्यावरण मंजूरी के अभाव में जो तमाम परियोजनाएं लटकी हैं उसके पीछे भी यूरो जोन या फिर ग्रीस का हाथ है? हम यह सगर्व कहते रहे हैं कि मिट गए यूनान, मिस्र, रोमां कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, लेकिन अब हमारे नीति-नियंता बता रहे हैं कि आज का यूनान हमारी तमाम समस्याओं की जड़ है।
प्रधानमंत्री की मानें तो आर्थिक हालात पर उनका कोई जोर नहीं। यह तर्क गले उतरना मुश्किल है। क्या प्रधानमंत्री अर्थशास्त्री के रूप में असफल हो रहे हैं? सबसे बड़ी विडंबना यह है कि अब खुद उन पर घपले-घोटाले के आरोप लग रहे हैं। कोयला ब्लॉक आवंटन में कैग की रपट के आधार पर प्रधानमंत्री को कठघरे में खड़े किए जाने से वह ढाल कमजोर होती दिख रही है जो कांग्रेस और सरकार का मजबूत सहारा हुआ करती थी। वह ढाल थी प्रधानमंत्री की छवि। यह छवि एक लंबे अर्से से छीज रही है, लेकिन 2009 के बाद से उसके क्षरण में कुछ ज्यादा ही तेजी आई है। प्रधानमंत्री की छवि को पहली जोरदार चोट तब लगी जब 2जी घोटाले में फंसे दूरसंचार मंत्री ए.राजा को उन्होंने क्लीनचिट दी। बाद में यही राजा घोटाले के आरोप में जेल भेजे गए। इसके बाद वह तब कठघरे में खड़े दिखे जब सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के रूप में पीजे थॉमस की नियुक्ति रद कर दी। यह नियुक्ति कोई घोटाला नहीं थी, लेकिन उसने असर एक बड़े घोटाले जैसा ही किया। प्रधानमंत्री और उनकी सरकार 2जी घोटाले से उबर भी नहीं पाई थी कि एंट्रिक्स-देवास करार ने प्रधानमंत्री कार्यालय को अपनी चपेट में ले लिया। इस संदिग्ध करार से पीछा छूटा ही था कि कोयला ब्लॉक आवंटन में अनियमितता ने खुद प्रधानमंत्री को घेर लिया। इस बार उन्हें अपना बचाव करना इसलिए मुश्किल हो रहा है, क्योंकि जब कोयला ब्लॉक आवंटन मनमाने तरीके से किया गया तब कोयला मंत्रालय उनके ही पास था।
बावजूद इस सबके कोई यह नहीं मान सकता कि प्रधानमंत्री ने निजी हित के लिए जानबूझकर कोई गड़बड़ी की होगी या होने दी होगी, लेकिन ऐसा मानने वाले लोग बढ़ते जा रहे हैं कि वह अपने इर्द-गिर्द के लोगों को गड़बड़ी करने से रोक नहीं पा रहे हैं। पता नहीं कोयला ब्लॉक आवंटन में किस किस्म का घोटाला हुआ है और कैग की रिपोर्ट के आधार पर प्रधानमंत्री पर लगाए जा रहे आरोपों में कितना वजन है, लेकिन म्यांमार से लौटते समय जब खुद प्रधानमंत्री ने इन आरोपों का लिखित जवाब दिया तो कुछ अजीब सा लगा। आखिर प्रधानमंत्री को इन आरोपों का लिखित जवाब तैयार करने की जरूरत क्यों पड़ी? इसके पहले ऐसा कभी नहीं हुआ कि संभावित सवालों का लिखित जवाब तैयार करके रखा जाए। प्रधानमंत्री ने खुद पर लगे आरोपों का लिखित-मौखिक जवाब तो दिया ही, कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में सोनिया गांधी ने भी प्रधानमंत्री का बचाव करते हुए उन पर लगे आरोपों को विपक्ष की साजिश करार दिया। वह चाहे जिस आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंची हों, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि जिस रिपोर्ट के कारण प्रधानमंत्री पर आरोप लगे हैं वह कैग ने तैयार की है। यह रिपोर्ट आसानी से पीछा नहीं छोड़ने वाली।
कोयला ब्लॉक आवंटन में अनियमितता का मामला इसलिए और संदेहास्पद होता जा रहा है, क्योंकि पहले तो किसी किस्म के घोटाले से इन्कार किया गया, फिर यह सफाई दी गई कि सस्ती बिजली के लिए कोयला खदानों का आवंटन सस्ते दाम पर किया गया। जब इससे भी बात बनती नहीं दिखी तो यह कहा गया कि कोयला खदान आवंटन राजग शासन के समय तय नीति के तहत किया गया। कृपया ध्यान दें कि कुछ ऐसा ही तर्क 2जी घोटाले पर भी दिया गया था। यह भी एक पहेली ही है कि एक ओर कोयला खदान आवंटन में गड़बड़ी से इन्कार किया जा रहा है और दूसरी ओर इस आवंटन प्रक्रिया को दुरुस्त करने के साथ पारदर्शी भी बनाया जा रहा है। आम जनता के लिए यह समझना भी मुश्किल हो रहा है कि कोयला खदानों के आवंटन में कोई खामी नहीं तो फिर सीबीआइ किस चीज की जांच करने जा रही है? चूंकि इन सवालों का कोई सीधा जवाब नहीं इसलिए कोयला घोटाले की गूंज बढ़ती जा रही है। आने वाले समय में कोयला आवंटन में गड़बड़ी का मामला कोलावरी डी की तरह गूंज सकता है। कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में प्रधानमंत्री को विपक्ष के आरोपों के साथ-साथ जिस तरह अपनों की शिकायतों से भी बचाना पड़ा उससे यह साफ है कि उनकी साख वास्तव में गिरी है।
लेखक राजीव सचान दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं
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