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पिछले कुछ वर्षों से दिल्ली को अपराध की राजधानी कहा जाने लगा है। शहर में रोजाना ही दो-चार दुष्कर्म, कत्ल होते हैं। बुज़ुर्ग नागरिकों का दिल्ली में रहना मुश्किल है। हर हफ्ते किसी बुज़ुर्ग की हत्या की खबर सुनने को मिल जाती है। यह कहने में कोई सकोच नहीं है कि दिल्ली में अपराध रोक पाने में सरकार पूरी तरह विफल रही है, लेकिन गृहमत्री पी. चिदंबरम इसकी जिम्मेदारी स्वीकारने के बजाय बढ़ते अपराध के लिए रोजी-रोटी की तलाश में आए लोगों को दोषी ठहरा रहे हैं। गृहमत्री ने फरमाया कि दिल्ली में बहुत बड़ी सख्या में अनधिकृत कॉलोनिया हैं। बाहर से आए जो लोग इन कॉलोनियों में रहते हैं, उन्हीं की वजह से यहां अपराध बढ़ रहे है। यह अलग बात है कि बाद में उन्होंने अपना बयान वापस ले लिया, लेकिन फिर भी बयान से शासक वगरें की नकारात्मक सोच तो जाहिर हो ही गई। इस बयान के बाद पी. चिदंबरम ने इतिहास के बारे में अपनी समझ को भी उजागर कर दिया है। बयान से साफ है कि उन्हे मालूम ही नहीं है कि दिल्ली वास्तव में बाहर से आए हुए लोगों का शहर है। अगर वह 1951 की जनगणना रिपोर्ट पर नजर डालें तो उन्हें पता चल जाएगा कि उस साल दिल्ली की आबादी 4.65 लाख थी, जबकि कानपुर की आबादी 4.75 लाख थी।
चिदंबरम की पार्टी की गलत आर्थिक और औद्योगिक नीतियों के कारण आज कानपुर शहर उजड़ गया है और दिल्ली शहर की आबादी 25 गुना से भी ज्यादा बढ़ गई है। 1951 में दिल्ली में तीन मिलें थीं, जबकि कानपुर में सैकड़ों मिलें थीं और इतना बड़ा औद्योगिक तत्र था कि उसे मैनचेस्टर ऑफ द ईस्ट कहते थे। कानपुर में आकर अपनी रोजी-रोटी कमाने वालों के वशज दिल्ली आने लगे। उसके बाद भी गांवों के विकास के लिए केंद्र और राज्यों की काग्रेसी सरकारों ने कुछ नहीं किया और आज उत्तर प्रदेश व बिहार के गांवों में रहने वाले गरीब लोग दो जून की रोटी के लिए दिल्ली आने को मजबूर हैं। राजनीति की इस गैरजिम्मेदार प्रक्रिया की वजह से आम आदमी दिल्ली आता है और शासक वगरें की गालियां खाता है।
दिल्ली या किसी भी बड़े शहर की बढ़ती आबादी इस बात का प्रमाण है कि गांवों में विकास कार्य नहीं हो रहे है। भारत को गांवों का देश कहा जाता है, लेकिन गांवों के विकास के लिए सरकारी नीतियों में घोर तिरस्कार का भाव है। पहली पचवर्षीय योजना में जो कुछ गांवों के लिए तय किया गया था, वह भी नहीं पूरा किया जा सका, जबकि शहरों के विकास के लिए नित ही नई योजनाएं बनती रहीं। नतीजा यह हुआ कि गांवों और शहरों के बीच की खाईं लगातार चौड़ी होती रही। सत्तर के दशक में तो ग्रामीण विकास का जिम्मा पूरी तरह से उन लोगों के आर्थिक योगदान के हवाले कर दिया गया जो शहरों में रहते थे और अपने गांव में मनीऑर्डर भेजते थे। गांवों के आर्थिक विकास के लिए पहली पचवर्षीय योजना में ब्लॉक की स्थापना की गई और ब्लॉक को ही विकास की इकाई मान लिया गया। यह महात्मा गाधी की सोच से बिल्कुल उलटी सोच थी। गांधी जी ने कहा था कि गांव को विकास की इकाई बनाया जाए और ग्रामीण स्तर पर उपलब्ध ससाधनों को गांव के विकास में लगाया जाए। गांधीजी की इच्छा थी कि पचायती राज सस्थाओं को इतना मजबूत कर दिया जाए कि ग्रामीण स्तर पर ही बहुत सारी समस्याओं का हल निकल आए लेकिन चिदंबरम के काग्रेसी पूर्वजों ने ऐसा नहीं होने दिया और ब्लॉक डेवलपमेंट के खेल में देश के गांवों के आर्थिक विकास को फंसा दिया।
काग्रेस ने विकास का जो दोषपूर्ण मॉडल 1950 में बनाया था, आज उत्तर प्रदेश, बिहार और बाकी राज्यों के गांवों में रहने वाला व्यक्ति उसी का शिकार हो रहा है। उत्तर प्रदेश और बिहार के गांवों में रोजगार के अवसर बहुत कम है। उनमें न तो हिम्मत की कमी है और न ही उद्यमिता की। सरकारी नीतियों की गड़बड़ी की वजह से उनके पास अवसर की भारी कमी है। एक उदाहरण से बात और साफ हो जाएगी। जबसे ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत गांवों में काम शुरू हुआ है, उत्तर प्रदेश और बिहार से पजाब जा कर खेतिहर मजदूर बनने वालों की सख्या में भारी कमी आई है। इसका मतलब यह हुआ कि अगर गांवों में रोजगार के नाम पर मजदूरी के अवसर भी मिलें तो नौजवान दिल्ली जैसे बड़े शहरों में आने के बारे में सोचना बद कर देंगे। तकलीफ की बात यह है कि अपना घर-बार और परिवार छोड़कर दिल्ली आने वाले नौजवानों को उन लोगों ने अपराध के लिए जिम्मेदार ठहराया है, जिनकी पार्टी की गलत नीतियों के कारण उनके गांवों की दुर्दशा हई है।
दिल्ली के अपराधों के लिए उत्तर प्रदेश और बिहार के गांवों से आकर अनधिकृत बस्तियों में रहने वाले लोगों को जिम्मेदार ठहराने वाले चिदंबरम के मत्रालय के अधीन काम करने वाले पुलिस विभाग को ही दिल्ली के अपराधों के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। दिल्ली में पुलिस की अपराधियों से मिलीभगत रहती है। पुलिस अपराधियों से हफ्ता वसूलती है। गृहमत्री को चाहिए कि इस तरह की गतिविधियों पर लगाम लगाने के लिए कोई कारगर कदम उठाएं।
दिल्ली में जहा तक अपराधों की बात है, उनकी पार्टी के ही सुरेश कलमाड़ी हैं और उनकी पार्टी के सहयोगी ए. राजा हैं। क्या उन्हें यह बताने की जरूरत है कि इतिहास के बहुत बड़े आर्थिक अपराधियों की जब भी सूची बनेगी, इन महानुभावों का नाम उसमें बहुत ऊपर होगा। इसलिए भारत के गृहमत्री को चाहिए कि गरीब आदमी को अपराधी कहने से पहले थोड़ा सोच-विचार कर लें वरना उनको भी जनता एक गैर जिम्मेदार नेता के रूप में पहचानना शुरू कर देगी।
[शेष नारायण सिह: लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार है]
Source: Jagran Yahoo
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