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दिल्ली हाईकोर्ट के सामने आतंकियों ने भीषण विस्फोट कर एक बार फिर सुरक्षा एजेंसियों को शर्मसार किया। इस हमले से केंद्र सरकार को भी शर्रि्मदगी उठानी पड़ी है। आतंकियों ने सुरक्षित माने जाने वाले दिल्ली हाईकोर्ट के बाहर जिस तरह धमाका किया उससे यह साफ है कि उनका दुस्साहस बेलगाम हो गया है। चिंताजनक यह है कि सुरक्षा एजेंसियां आतंकियों के दुस्साहस का मुकाबला करने में नाकाम दिख रही हैं। अभी जुलाई माह में आतंकियों ने मुंबई में भीड़भाड़ वाले इलाकों में बम धमाके किए थे। यहां भी सुरक्षा के कोई खास इंतजाम नहीं थे। आतंकियों के समक्ष खुफिया तंत्र भी नाकाम साबित हो रहा है। वह न तो आतंकी हमले रोक पाने में सहायक है और न ही इन हमलों को अंजाम देने वालों का सुराग लगा पाने में। खुफिया एजेंसियां जब कभी कोई सूचना हासिल करने में समर्थ होती भी हैं तो पुलिस कोई ठोस कार्रवाई करने में नाकाम साबित होती है। हर आतंकी घटना के बाद सरकार की ओर से वही पुराने आश्वासन सुनने को मिलते हैं। इस बार भी ऐसा ही हुआ। केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों की चूक मानने से इंकार किया, लेकिन इसी के साथ उन्होंने सभी को चौकन्ना और अनुशासित रहने की नसीहत भी दे डाली। उन्होंने जिस तरह यह कहा कि हर आतंकी हमले को रोका नहीं जा सकता और अभी पुख्ता सुरक्षा व्यवस्था करने में वक्त लगेगा उससे यह साफ है कि देश और आतंकी हमलों के लिए तैयार रहे। गृहमंत्री के बाद राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में प्रधानमंत्री ने जिस तरह नक्सलवाद और आतंकवाद को समाज एवं राजनीति की दो प्रमुख चुनौतियां बताते हुए खुफिया सूचनाएं एकत्र करने के तंत्र को और सशक्त बनाने पर बल दिया उससे यही लगता है कि सरकार के पास कुछ नया कहने के लिए नहीं है।
अब आतंकवाद नया खतरा नहीं है। पिछले लगभग दो दशक से देश आतंकी हमलों से जूझ रहा है। दिल्ली, मुंबई और देश के दूसरे शहरों में लगातार आतंकी हमले हो रहे हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि न राजनेता कोई सबक सीखने के लिए तैयार हैं और न ही सुरक्षा एवं खुफिया एजेंसियां। आतंकियों को यथाशीघ्र कठोर सजा देने के प्रभावी कानून बनाने की बात तो दूर रही, सरकार सुरक्षा के सामान्य उपाय भी नहीं कर पा रही है। दिल्ली हाईकोर्ट के बाहर इसके बावजूद सीसीटीवी कैमरे नहीं लगाए गए कि तीन माह पहले वहां एक मामूली धमाका किया गया था। इस धमाके को आतंकी हमले का अभ्यास माना गया था, फिर भी सुरक्षा एजेंसियों की नींद नहीं टूटी। परिणाम यह हुआ कि आतंकी इसी जगह एक बड़ी वारदात को अंजाम देने में सफल रहे। अब यह बताया जा रहा है कि हाईकोर्ट के बाहर सीसीटीवी न लग पाने के लिए अमुक-अमुक विभाग जिम्मेदार हैं। आखिर इस जिम्मेदारी का संज्ञान पहले क्यों नहीं लिया जा सका? यह निराशाजनक है कि सुरक्षा एजेंसियां अभी तक यह पता लगाने में नाकाम हैं कि इस हमले के लिए कौन जिम्मेदार है? हालांकि हूजी और इंडियन मुजाहीदीन ने ई-मेल भेजकर हमले की जिम्मेदारी ली है, लेकिन फिलहाल यह कहना कठिन है कि इन ई-मेल पर कितना यकीन किया जाए? एक अन्य ई-मेल में अहमदाबाद में हमला करने की धमकी दी गई है। यह धमकी सही भी हो सकती है, लेकिन यह भी लगता है कि कोई सुरक्षा एजेंसियों के साथ शरारत कर रहा है। वैसे यह किसी से छिपा नहीं कि बांग्लादेश आधारित आतंकी संगठन हूजी पाकिस्तान के इशारे पर भारत में पहले भी आतंकी हमले कर चुका है। दिल्ली में आतंकी हमला तब हुआ जब भारतीय प्रधानमंत्री बांग्लादेश की यात्रा पर थे। हो सकता है कि हूजी को बांग्लादेश-भारत के संबंधों में सुधार रास न आ रहा हो और इसीलिए उसने यह घटना अंजाम दी हो। हूजी की तरह इंडियन मुजाहिदीन भी पाकिस्तानी आंतकी संगठनों द्वारा तैयार किया गया आतंकी संगठन है। इसे तथाकथित कराची प्रोजेक्ट का हिस्सा बताया जा रहा है।
दिल्ली में हमले के पीछे चाहे जिसका हाथ हो, यह साफ है कि केंद्र सरकार आतंकियों को जवाब देने का साहस नहीं जुटा पा रही है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि यह सरकार आतंकवाद का मुकाबला करने की इच्छाशक्ति खो बैठी है। यह सामान्य बात नहीं कि पहले जो आतंकी संगठन सीमा पार से अपनी गतिविधियां चलाते थे उन्होंने अब देश में ही आतंकियों की खेप तैयार कर ली है। सुरक्षा एजेंसियों की तमाम सक्रियता के बावजूद इंडियन मुजाहिदीन पर नियंत्रण नहीं पाया जा सका है। खुद गृहमंत्री यह मान रहे हैं कि देशी आतंकियों का एक नेटवर्क खड़ा हो चुका है। आतंकी हमलों का खतरा बढ़ते चले जाने के बावजूद सुरक्षा उपायों की अनदेखी हर स्तर पर जारी है। बड़े शहरों में महत्वपूर्ण ठिकानों पर सीसीटीवी कैमरे लग जाने चाहिए थे, लेकिन नौकरशाही की रस्साकसी के कारण ऐसा नहीं हो पाया है। खुद चिदंबरम ने यह स्वीकार किया कि दिल्ली हाईकोर्ट के बाहर सीसीटीवी कैमरे इसलिए नहीं लग सके, क्योंकि पीडब्ल्यूडी ने कई बार टेंडर रद कर दिए। ऐसा लगता है कि भारतीय नेताओं ने यह मान लिया है कि आतंकवाद को रोका नहीं जा सकता और लोगों को उसके साथ जीना सीखना होगा। सरकार की इस मानसिकता की झलक विकिलीक्स के अनेक खुलासों से होती है। एक खुलासे के अनुसार भारत सरकार मुंबई हमले की साजिश में शामिल रहे पाकिस्तान मूल के अमेरिकी आतंकी डेविड हेडली के प्रत्यर्पण का दिखावा भर कर रही थी। सुरक्षा विशेषज्ञ इस नतीजे पर पहुंच चुके हैं कि पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों के पास ऐसे अधिकार नहीं जिससे वे आतंकियों का दमन कर सकें, लेकिन सरकार यह बताने के लिए तैयार नहीं कि वह आतंकवाद के खिलाफ मजबूत कानून कब तक बना सकेगी?
लगातार घटती आतंकी घटनाओं से भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि बुरी तरह प्रभावित हो रही है। सुरक्षा मामलों के अनेक अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञ यह मानने लगे हैं कि आतंकवाद से लड़ने के मामले में भारत एक नरम राष्ट्र है। उनकी इस मान्यता का खंडन इसलिए नहीं किया जा सकता, क्योंकि दिल्ली और मुंबई में रह रहकर आतंकी हमले हो रहे हैं। ये हमले यही बताते हैं कि सरकार आतंकवाद को नियंत्रित करने के लिए संकल्पबद्ध नहीं। सरकार के ढुलमुल रवैये का पूरा लाभ आतंकी संगठन उठा रहे हैं। अब तो वे हमला करने के बाद उसकी जिम्मेदारी लेने से भी नहीं चूक रहे। इन स्थितियों में देशवासियों के पास आतंकवाद के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई का इंतजार करने के अलावा और कोई उपाय नहीं। जब तक यह निर्णायक कार्रवाई नहीं होती तब तक आम जनता को नेताओं के घड़ियाली आंसुओं से ही काम चलाना होगा।
सरकार में आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए जरूरी साहस और इच्छाशक्ति का अभाव देख रहे हैं संजय गुप्त
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