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उदारता के साथ-साथ संयम और सहिष्णुता भारतीय समाज की विशिष्टता रही है। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो तमाम बाहरी आक्रमण और भीतरी संघर्षो को झेलने के बाद भी हमारी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के मजबूत बने रह जाने की यही मुख्य वजह है। परंतु, अब ऐसा लगता है जैसे हम इसे या तो पूरी तरह खो चुके हैं या फिर खोने के कगार पर पहुंच गए हैं। इधर पंजाब के मुक्तसर में एक सरपंच द्वारा एक शिक्षिका को थप्पड़ मारे जाने और फिर अमृतसर में एक पत्रकार पर जानलेवा हमले की बात से तो यही जाहिर होता है। दैनिक जागरण के क्राइम रिपोर्टर महिंदर पाल सिंह पर हमले के बाद उन्हें गंभीर हाल में अस्पताल में भर्ती कराया गया। फिलहाल उनकी हालत खतरे से बाहर है और इस सिलसिले में पुलिस ने कुछ लोगों की धरपकड़ भी की है। पुलिस ने आश्वासन दिया है कि बाकी हमलावरों को भी जल्द ही गिरफ्तार कर लिया जाएगा। उधर, शिक्षिका वरिंदर पाल कौर के मामले के राजनीतीकरण के बाद एक अलग ही बवंडर उठ गया है। पहले तो यह समझ पाना ही मुश्किल है कि आखिर ऐसा क्या हो गया जो एक पत्रकार पर हमले या शिक्षक को थप्पड़ मारने की नौबत आ गई? पत्रकार और शिक्षक दोनों ही तबकों का समाज के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान है। निश्चित रूप से इसका कोई संतोषजनक जवाब किसी के भी पास नहीं है। यह बेहद अफसोस की बात है कि शिक्षिका को थप्पड़ मारने की घटना को एक राजनीतिक व्यक्ति द्वारा अंजाम दिया गया।
भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में विधि निर्माण का कार्य संसद के जिम्मे है और इस मामले में वही अंतिम प्राधिकरण है। संसद हमारे चुने हुए जनप्रतिनिधि चलाते हैं, जो अपने मूल रूप में राजनीतिक हैं। राजनीति की दुनिया में पहले पायदान पर खड़े व्यक्ति का रास्ता भी हमारी व्यवस्था के इस सर्वोच्च शिखर तक जाता है और इसीलिए उससे यह उम्मीद की जाती है कि वह लोकतांत्रिक मूल्यों में दृढ़ आस्था रखने वाला हो। वह गलतियों-विसंगतियों के खिलाफ आवाज जरूर उठाए, लेकिन कानून को दरकिनार करके नहीं। जो काम कानून को करना है, उसे वह कानून को ही करने दे और कभी भी उसे अपने हाथ में लेने की कोशिश न करे। हमारी व्यवस्था में हिंसा के लिए कहीं कोई स्थान नहीं है। चाहे वह किसी के भी द्वारा क्यों न की जा रही हो। यह एक गंभीर सवाल है कि अगर कानून बनाने वाले स्वयं ही कानून का अनुपालन नहीं करेंगे तो बाकी लोग उस पर कैसे अमल कर सकेंगे? यह न केवल राजनीति, बल्कि समाज के नजरिये से भी चिंता का विषय है। अध्यापक घटना के बाद से ही इसका विरोध कर रहे थे। अकाली सरकार ने प्रदर्शन आदि के बाद शिक्षकों के साथ मिल-बैठ कर मामले को शांत करने का प्रयास भी किया था। उप मुख्यमंत्री सुखबीर बादल ने स्वयं शिक्षक संघ के प्रतिनिधियों को बुलाकर बैठक की थी। शिक्षकों ने सरपंच को तुरंत गिरफ्तार करने की मांग उठाई थी।
शिक्षकों का प्रदर्शन इसे लेकर काफी उग्र हो चुका था। यहां तक कि कुछ शिक्षक इस मसले को लेकर आत्महत्या की धमकी तक दे चुके थे। उन्होंने काफी देर तक सड़क भी जाम की थी, जिससे नागरिकों के साथ सेना के एक काफिले को भी मुश्किलें झेलनी पड़ गई थीं। इस बीच कुछ शिक्षकों ने नहर में कूदकर जान देने की कोशिश भी की, जिन्हें जैसे-तैसे रोका गया। प्रशासन की बड़ी मिन्नतों के बाद जाकर शिक्षकों ने जाम हटाया और तब जाकर जनजीवन सामान्य हो सका। शिक्षक हमारे समाज का एक बेहद जिम्मेदार वर्ग है और जब वह ऐसा कोई काम करते हैं तो यह सबके लिए चिंता का विषय हो जाता है, क्योंकि उनसे ही समाज को रास्ता दिखाने की उम्मीद की जाती है। मुश्किल यह है कि सरकारें शांतिपूर्वक कोई मांग उठाए जाने पर आम तौर पर बात सुनती ही नहीं हैं। अब यह चाहे बात उठाने वालों की खामी हो या सुनने वालों की, लेकिन हमारे समाज में ऐसा मान लिया गया है कि शांतिपूर्वक उठाने पर कोई बात सुनी ही नहीं जाएगी। चूंकि समाज में ऐसे सैकड़ों उदाहरण भरे पड़े हैं, इसलिए आम तौर पर लोग आंदोलनकारियों के उग्र तरीके अपनाने से परेशान भले हों, पर ऐसे तरीके अपनाने के लिए वे जिम्मेदार सरकार को ही मानते हैं। बेशक, सरकार इसके लिए जिम्मेदार होती भी है। चाहे कोई भी सरकार हो, उसे जनता के जुड़े कार्यो, उसकी तकलीफों के निवारण से जुड़े मामलों में पारदर्शिता बरतनी चाहिए। साथ ही, यह सुनिश्चित करना भी सरकार की ही जिम्मेदारी है कि अगर किसी को कोई कष्ट है और वह अपनी बात सरकार के सामने रखना चाहता है या कोई अपनी समस्या का निराकरण सरकार से चाहता है तो उसकी बात बुनियादी स्तर पर ही सुनी जाए, ताकि शांत और सौहार्दपूर्ण माहौल में समस्या का समाधान तलाशा जा सके।
दुर्भाग्य यह है कि हमारी व्यवस्था के सर्वोच्च शिखर पर मौजूद लोग यह प्रवृत्ति ही छोड़ चुके हैं। वे खुद सत्ता हासिल करने और प्राप्त सत्ता को बचाने में ही इस तरह व्यस्त हैं कि आम जनता की उन्हें कोई फिक्र नहीं रह गई है। इस प्रवृत्ति का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि इसी घटना का कांग्रेस ने किसी चुनावी मुद्दे की तरह इस्तेमाल कर डाला। उन्होंने इसके लिए पीडि़त शिक्षिका से पूछने और उसकी सहमति लेने तक की जरूरत नहीं समझी। यह न सिर्फ संवेदनहीनता, बल्कि मनमानेपन की भी इंतहां है। हैरत होती है कि क्या देश के सम्मानित नागरिकों की संवेदनाएं अब राजनेताओं के लिए सिर्फ उपयोग की चीज होकर रह गई हैं? इस भद्दे इस्तेमाल के खिलाफ शिक्षकों को प्रेस कान्फ्रेंस करनी पड़ी। शिक्षकों ने यह भी कहा कि खुद कांग्रेस ने अपने शासन के दौरान शिक्षकों को पुलिस से पिटवाया था। वास्तव में उनके मुद्दा नहीं है और इसीलिए वे इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। सच तो यह है कि मसला हमारे पूरे समाज के धैर्य और संयम की अपनी परंपरा से भटकने का नमूना है। इससे यह जाहिर होता है कि हममें इतना धैर्य भी नहीं बचा है कि हम किसी की संवेदना को समझ सकें। चाहे सरपंच द्वारा हाथ उठाने की बात हो, या शिक्षकों द्वारा जाम लगाए जाने या आत्महत्या के प्रयास, या सरकार द्वारा समुचित कार्रवाई न किए जाने, या फिर कांग्रेस द्वारा इस मामले के राजनीतिक इस्तेमाल की बात.. हर तरह से यह धैर्य, संयम व सहिष्णुता के अभाव तथा बढ़ती संवेदनहीनता की मिसाल है। इसके परिणाम क्या होंगे, यह हम सभी जानते हैं। इसके बावजूद ऐसा कोई कदम उठाने से पहले थोड़ा सा धैर्य बरतने और ठहर कर सोचने की जरूरत नहीं समझते। आखिर यह शुरुआत कहां से होगी? क्या वाकई हमारे समाज और हमारी व्यवस्था के शीर्ष पर मौजूद लोग इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं? क्या उन्हें स्वयं अपने आचरण से आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करने की शुरुआत नहीं करनी चाहिए? अगर वे ऐसा नहीं करेंगे तो और कौन करेगा, और क्यों?
लेखक निशिकांत ठाकुर दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं
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