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आर्थिक नियमों की अवहेलना के चलते देश की अर्थव्यवस्था को गंभीर संकट से घिरते देख रहे हैं संजय गुप्त
2010 के प्रारंभ में यूरोपीय देशों में जिस आर्थिक संकट की शुरुआत हुई और जो दिन-प्रतिदिन गहराता जा रहा है उसका सीधा असर अब भारत पर भी दिखने लगा है। भारत से पूंजी बाहर जा रही है। इसके चलते डॉलर के मुकाबले रुपया कमजोर होता जा रहा है। रिजर्व बैंक के तमाम प्रयासों के बावजूद रुपये के अवमूल्यन का सिलसिला कायम है। इसके कारण भारी मात्रा में पेट्रोलियम पदार्थो का आयात करने वाले भारत की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं। तेल कंपनियों का घाटा बढ़ रहा है, लेकिन केंद्र सरकार राजनीतिक कारणों से उन्हें तेल के दाम बढ़ाने की अनुमति देने से बच रही है। समस्या इसलिए गंभीर होती दिख रही है, क्योंकि डीजल पर दी जाने वाली सब्सिडी को कम करने का कोई उपाय नहीं दिख रहा है। सरकार यह जानते हुए भी कुछ नहीं कर पा रही है कि इस सब्सिडी का एक बड़ा हिस्सा अपात्र लोगों तक जा रहा है, लेकिन यह ऐसी समस्या नहीं जिसका सामना करने के बजाय हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहा जाए। यदि ऐसा किया गया तो भारत भी यूरोप के रास्ते पर जा सकता है।
यूरोपीय देशों और विशेष रूप से ग्रीस, इटली, फ्रांस, स्पेन, पुर्तगाल, आयरलैंड आदि देशों की खस्ताहाल आर्थिक स्थिति का मूल कारण यह है कि इन देशों के नीति-नियंताओं ने अपनी अर्थव्यवस्था का संचालन आर्थिक नियमों के हिसाब से नहीं किया। वे घाटे की अर्थव्यवस्था चलाते रहे। धीरे-धीरे ऐसी स्थिति बनी कि कुछ यूरोपीय देश खासकर ग्रीस और स्पेन दीवालिया होने की कगार पर आ खड़े हुए। उनकी ऐसी हालत से अन्य यूरोपीय देश भी बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं। अब तो यूरोपीय समुदाय की एकजुटता खतरे में नजर आने लगी है। यूरोपीय देशों की आर्थिक स्थिति संभल सकेगी, फिलहाल इसमें संदेह है। अभी यह भी स्पष्ट नहीं कि ग्रीस, स्पेन, पुर्तगाल आदि उन कठोर आर्थिक फैसलों को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं या नहीं जिनके बारे में यह कहा जा रहा है कि उनके बगैर हालात संभलने वाले नहीं, क्योंकि इन देशों की आम जनता को वे रास नहीं आ रहे हैं और इसके चलते वह मौजूदा शासकों को सत्ता से बाहर होते हुए देखना चाहती है।
आज भारत में सब्सिडी की जो संस्कृति प्रचलित है उसका एक समय यूरोपीय देशों में बोलबाला था। माना जाता है कि इस संस्कृति ने ही इन देशों को आर्थिक रूप से जर्जर करने का काम किया है। इसमें दोराय नहीं कि किसी भी देश को अपने यहां के निर्धन-वंचित लोगों के सामाजिक, आर्थिक उत्थान और बुनियादी ढांचे के विकास के लिए सब्सिडी देनी ही पड़ती है, लेकिन वह तब हानिकारक हो जाती है जब उसका दुरुपयोग होने दिया जाता है अथवा उसका इस्तेमाल वोट बैंक बनाने-बढ़ाने और ऐसा करके सत्ता में बने रहने के लिए किया जाता है। सब्सिडी की यह संस्कृति तब और घातक हो जाती है जब आर्थिक नियमों की उपेक्षा की जाती है। इस समय भारत में भी ऐसा होता हुआ दिख रहा है।
2009 में जब अमेरिका में कई बड़े बैंकों एवं वित्तीय संस्थानों के दीवालिया होने से मंदी आई थी तब तो भारत उसका सामने करने में सक्षम साबित हुआ था, लेकिन यह आश्चर्यजनक है कि अब वह अपनी आर्थिक समस्याओं के लिए बार-बार यूरोपीय देशों के संकट को जिम्मेदार ठहरा रहा है। यूरोपीय देशों की आर्थिक स्थिति पिछले कई वर्षो से डांवाडोल है। सवाल यह है कि हमारे नीति-नियंता यूरोप की कमजोर आर्थिक स्थिति के दुष्प्रभाव से बचने के कोई ठोस उपाय समय रहते क्यों नहीं कर सके? वे इससे अनजान नहीं हो सकते थे कि यूरोप का संकट एक न एक दिन भारत को भी प्रभावित करेगा। अगर ग्रीस, पुर्तगाल आदि वास्तव में दीवालिया हो जाते हैं तो भारत सहित पूरी दुनिया की आर्थिक समस्याएं और अधिक बढ़ना तय है। क्या इसके प्रति सुनिश्चित हुआ जा सकता है कि भारत ने इस संभावित संकट से बचने के उपाय खोजने शुरू कर दिए हैं? यह सवाल इसलिए, क्योंकि फिलहाल ऐसे कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिल रहे हैं। यूरोपीय देशों का आर्थिक संकट गहराने के बाद वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने कहा कि भारत इससे अछूता नहीं रह सकता और वह कुछ कड़े कदम उठाने जा रहे हैं। यह आश्चर्यजनक है कि इन कड़े कदमों के दायरे में वे आर्थिक फैसले नजर नहीं आ रहे जो एक लंबे अर्से से लंबित हैं। यह हास्यास्पद है कि वित्त मंत्री एक ओर कड़े कदम उठाने का ऐलान कर रहे हैं और दूसरी ओर यह भी कह रहे हैं कि घबराने की कोई बात नहीं। ये दोनों बातें विरोधाभासी हैं।
हर छोटी-बड़ी आर्थिक समस्या के लिए यूरोपीय संकट को जिम्मेदार बताने वाले नेताओं के पास किसी भी सवाल का सीधा जवाब नहीं है। वे यह बता सकने की स्थिति में नहीं कि अन्य एशियाई देशों की तुलना में भारतीय मुद्रा का इतना अवमूल्यन क्यों हो रहा है? क्या कारण है कि रिजर्व बैंक भी रुपये को गिरने से रोक नहीं पा रहा? कहीं इसके पीछे कोई राजनीतिक चाल तो नहीं? दरअसल ये वे सवाल हैं जिनके जवाब सामने आने ही चाहिए।
मौजूदा राजनीतिक माहौल में केंद्र सरकार ऐसे कोई ठोस संकेत नहीं दे रही है कि वह अपने आर्थिक-वित्तीय तौर-तरीकों में आमूल-चूल परिवर्तन करने जा रही है। सच तो यह है कि ऐसा कुछ करने के बजाय वह पिछले तीन साल से हाथ पर हाथ रखे बैठी है। आखिर आवश्यक आर्थिक फैसले लेने से बच रही सरकार किस मुंह से अपने घटकों और विपक्षी दलों को कठोर कदमों के लिए तैयार करेगी? केंद्रीय सत्ता की दुर्बल स्थिति को देखते हुए इसमें संदेह है कि विपक्षी दल उसका सहयोग करेंगे। समस्या यह है कि सरकार का सहयोग उसके घटक और यहां तक कि सत्ता में साझीदार दल भी नहीं कर रहे हैं। तृणमूल कांग्रेस वित्तीय सुधार के हर कदम पर अड़ंगा लगा रही है। तृणमूल कांग्रेस सरीखा रवैया उन क्षेत्रीय दलों का भी है जो राज्यों में सत्तारूढ़ हैं। यह किसी से छिपा नहीं कि तृणमूल कांग्रेस की तरह का आचरण अन्नाद्रमुक, बीजू जनता दल आदि का भी है। केंद्र सरकार कई मामलों में इन्हीं दलों की अड़ंगेबाजी के कारण आगे नहीं बढ़ पा रही है। कुछ मामलों जैसे बीमा-पेंशन क्षेत्र में सुधार, विनिवेश, सब्सिडी आदि पर तृणमूल कांग्रेस का नजरिया कुछ वैसा ही है जैसा वामपंथी दलों का। फिलहाल आर्थिक सुधारों की दिशा में आगे बढ़ने से यह कहकर बचा जा रहा है कि इससे महंगाई से त्रस्त जनता की कमर टूट जाएगी। इस तरह की सोच अनेक कांग्रेसी नेता भी रखते हैं। स्पष्ट है कि ये नेता इस बात को समझने से इन्कार कर रहे हैं कि जनता की कमर सुधार कार्यक्रमों को लागू न करने से टूट रही है। यदि सब्सिडी को दुरुपयोग रोका जा सके और उसका सही इस्तेमाल हो तो इससे आम जनता को ही लाभ होगा। यह निराशाजनक है कि गंभीर संकट की आहट के बावजूद राजनीतिक दल वोट बैंक की राजनीति को ही महत्व दे रहे हैं।
इस आलेख के लेखक संजय गुप्त हैं
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