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मुश्किल होते आर्थिक हालात

संपादकीय ब्लॉग
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Sanjay Guptअर्थव्यवस्था के समक्ष उभरे संकट के पीछे आर्थिक नियमों की अनदेखी को मुख्य वजह मान रहे हैं संजय गुप्त


डॉलर के मुकाबले रुपये में लगातार गिरावट हमारी अर्थव्यवस्था पर जैसा दुष्प्रभाव डाल रही है उससे आम आदमी ही नहीं, बल्कि मध्यम और उच्च वर्ग भी त्रस्त हो रहा है। अर्थशास्त्री यह समझ नहीं पा रहे हैं कि रुपये का इस कदर अवमूल्यन कैसे होता जा रहा है? वैसे तो कुछ अन्य देशों की मुद्राएं भी डालर के मुकाबले कमजोर होती जा रही हैं, लेकिन रुपये के मूल्य में गिरावट इसलिए चौंकाने वाली है, क्योंकि भारत की अर्थव्यवस्था विश्व की मजबूत अर्थव्यवस्थाओं में गिनी जाती है। रुपये में गिरावट के संदर्भ में वित्त मंत्रालय के मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु का कहना है कि यह एक बुलबुले जैसा है और बहुत जल्द रुपया अपने सही स्तर पर आ जाएगा, लेकिन इस पर गौर किया जाना चाहिए कि भविष्य में होने वाले सौदे प्रति डालर 60 रुपये के हिसाब से किए जा रहे हैं। इससे तो यह संकेत मिल रहा है कि डालर की कीमत 60 रुपये तक जा सकती है। यदि कौशिक बसु का आकलन सही साबित होता है अर्थात रुपया जल्द ही पहले की तरह मजबूती हासिल कर लेता है तो उन लोगों और कंपनियों को तगड़ा घाटा होना तय है जो डालर की कीमत 60 रुपये पहुंचने की संभावना के आधार पर सौदे कर रहे हैं।


केंद्र सरकार रुपये के अवमूल्यन के पीछे चाहे जो सफाई दे, लेकिन एक बड़ी हद तक इसके लिए रिजर्व बैंक की ढुलमुल नीति भी जिम्मेदार है। रिजर्व बैंक के गवर्नर ने बार-बार यह आश्वासन तो दिया कि ऐसे कदम उठाए जाएंगे जिससे रुपये का अवमूल्यन न हो, लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद स्थिति सुधर नहीं पा रही है। रुपये के मूल्य में तीव्र गिरावट का सबसे स्पष्ट दुष्प्रभाव पेट्रोल के दाम में वृद्धि के रूप में सामने आया है। पेट्रोलियम पदार्थ के आयात का बिल लगातार बढ़ने के कारण पिछले दिनों तेल कंपनियों ने पेट्रोल के दाम में साढ़े सात रुपये की एकमुश्त वृद्धि कर दी। आश्चर्यजनक रूप से यह वृद्धि संसद का बजट सत्र समाप्त होने के ठीक अगले दिन की गई। साफ है कि केंद्र सरकार इस वृद्धि के कारण संसद के भीतर विपक्षी दलों के निशाने पर नहीं आना चाहती थी। देश में अब यह एक नई रीति बनती जा रही है कि विवादास्पद मुद्दों पर कोई भी फैसला संसद सत्र के पहले या बाद में लिया जाता है। वैसे केवल पेट्रोल के मूल्य में वृद्धि से ही पेट्रोलियम पदार्थो के आयात में हो रहे घाटे की भरपाई नहीं होने वाली। सरकार को यह पता है कि इस घाटे का एक बड़ा कारण डीजल, केरोसिन और रसोई गैस की बिक्री में दी जाने वाली सब्सिडी है।


वोट बैंक की राजनीति के कारण सरकार सब्सिडी के इस बोझ को घटाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है। हालांकि सरकार यह अच्छी तरह जानती है कि डीजल और केरोसिन में दी जाने वाली सब्सिडी का दुरुपयोग हो रहा है, लेकिन वह कोई कड़ा कदम नहीं उठा पा रही है। यह समझना कठिन है कि केंद्र सरकार अथवा कांग्रेस पहले कीमतें बढ़ाने और फिर उसमें थोड़ी राहत देने की नीति के जरिये क्या राजनीतिक लाभ हासिल करना चाहती है? यह भी समझना कठिन है कि जो राजनीतिक दल पेट्रोल के मूल्य में वृद्धि का विरोध कर रहे हैं वे राज्य सरकारों से यह अपेक्षा क्यों नहीं कर रहे कि पेट्रोल पर वैट कम किया जाए? आखिर सभी राज्य सरकारें गोवा के रास्ते क्यों नहीं चल रहीं, जिसने पेट्रोल पर वैट लगभग खत्म ही कर दिया है? यदि वे ऐसा नहीं करतीं तो फिर केवल केंद्र पर यह दबाव क्यों बना रही हैं कि वह पेट्रोलियम पदार्थो पर अपने टैक्स कम करे? इसमें संदेह नहीं कि खराब आर्थिक स्थिति का कारण केवल डालर के मुकाबले रुपये के मूल्य में गिरावट ही नहीं है, बल्कि केंद्र सरकार की अनिर्णय की स्थिति भी है। अपने दूसरे कार्यकाल के तीन वर्ष पूरे होने के अवसर पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और संप्रग प्रमुख सोनिया गांधी ने यह कहा कि वायदे से नहीं, काम से बात बनेगी, लेकिन यह कोई नहीं बता पा रहा कि जरूरी काम क्यों नहीं किए जा रहे हैं? आर्थिक मामलों में कड़े कदम उठाने की बात करीब एक वर्ष से की जा रही है, लेकिन किसी न किसी बहाने उनसे बचा जा रहा है।


ज्यादातर मामलों में विधानसभा चुनावों का हवाला देकर जरूरी फैसले लेने से इन्कार किया गया है। कभी पश्चिम बंगाल के चुनावों के कारण आर्थिक फैसले टाले गए और कभी यूपी के चुनावों के कारण। अब यह माना जा रहा है कि राष्ट्रपति चुनाव के बाद जरूरी फैसलों का नंबर आएगा। आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए कड़े कदम उठाने की आवश्यकता सभी जता रहे हैं, लेकिन कोई नहीं जानता कि इसकी शुरुआत कब होगी? यदि सरकार यह सोच रही है कि उसने पेट्रोल की कीमतों में वृद्धि कर कड़े कदमों की शुरुआत कर दी है तो यह सही नहीं। यह तो सबसे सरल उपाय है कि घाटे को पूरा करने के लिए आम जनता पर बोझ डाल दिया जाए। यह खुद की अकर्मण्यता और नाकामी की सजा आम जनता को देने जैसा है। समस्या इसलिए और अधिक गंभीर हो गई है, क्योंकि सरकार न तो महंगाई पर नियंत्रण कर पा रही है और न ही खाद्यान्न के सुरक्षित भंडारण के उपाय कर पा रही है। अन्न भंडारण के उपाय न हो पाने के कारण जिस तरह वर्ष दर वर्ष खाद्यान्न बर्बादी का सिलसिला कायम है उससे अब ऐसा लगने लगा है कि खाद्यान्न के मामले में की जाने वाली राजनीति चरमराते आर्थिक ढांचे पर भारी पड़ने लगी है। आखिर यह किसी से छिपा नहीं कि उन स्थानों पर भी किसानों से गेहूं की सरकारी खरीद का सिलसिला कायम है जहां भंडारण के सही प्रबंध नहीं हैं। सरकार यह भी नहीं देख पा रही कि कुछ ही फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किए जाने के कारण भी गंभीर समस्याएं पैदा हो रही हैं।


न्यूनतम समर्थन मूल्य वाली फसलों के किसान अधिक उपज के कारण समस्याओं से ग्रस्त हैं तो बाकी किसान अपनी फसल की लागत भी न निकाल पाने के कारण। सरकार को इससे परिचित होना चाहिए कि किसान अभी भी आत्महत्या कर रहे हैं। अब समय आ गया है जब राजनीतिक दल इस पर आम सहमति कायम करें कि वे कार्यक्रम-योजनाएं कैसे समाप्त हों जो आर्थिक नियमों के विपरीत हैं? आम जनता को भी यह देखना होगा कि बात चाहे सब्सिडी की हो अथवा अन्य लोकलुभावन योजनाओं की-ऊपरी तौर पर वे भले ही उनके लिए लाभदायक नजर आएं, लेकिन अंतत: उनका बोझ उन्हें ही उठाना पड़ता है। जहां जनता को यह समझना होगा कि पेटोलियम पदार्थो पर सब्सिडी के दुष्परिणाम उसे अन्य क्षेत्रों और विशेष रूप से शिक्षा-स्वास्थ्य के क्षेत्र में भोगने पड़ रहे हैं वहीं सरकार को यह समझना होगा कि लोकलुभावन योजनाओं-कार्यक्रमों के कारण ही यूरोप का बुरा हाल है। बेहतर हो कि केंद्र और राज्यों की सत्ता संभालने वाले राजनीतिक दल आर्थिक नियमों की अनदेखी बंद करें।


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