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गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का संकट

संपादकीय ब्लॉग
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Nishikant Thakurदेश के तमाम सुदूर पिछड़े इलाकों में शिक्षा की हालत क्या होगी, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में ही स्थिति मानकों के अनुरूप नहीं है। हालत यह है कि यहां पढ़ने वाले बच्चों की संख्या तो लगातार बढ़ती जा रही है, लेकिन स्कूलों की संख्या में किसी बढ़ोतरी के आसार नजर नहीं आ रहे हैं। जो स्कूल हैं, उनमें भी शिक्षकों की भारी कमी है। ऐसी स्थिति में जबकि न तो सबके लिए स्कूल हैं और न स्कूलों में पर्याप्त शिक्षक ही हैं, शिक्षा की व्यवस्था कैसे चल रही है, यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है। दिल्ली में एक सौ स्कूलों और आठ हजार शिक्षकों की आवश्यकता तो तुरंत है, लेकिन सरकार ऐसा कुछ भी कर पाने की स्थिति में फिलहाल दिखाई नहीं दे रही है। इन तथ्यों को ध्यान में रखकर देखें तो सरकारी विद्यालयों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की कल्पना ही निरर्थक लगती है। सबके लिए शिक्षा का लक्ष्य केंद्र के साथ-साथ लगभग सभी राज्यों की सरकारों की भी प्राथमिकता सूची में है। इन हालात में यह कैसे और कितना संभव होगा, यह विचारणीय विषय है। सबके लिए शिक्षित होना अनिवार्य है। इसके लिए केवल कानून ही नहीं बनाया गया, लोगों को इस संबंध में जागरूक करने का प्रयास भी किया गया।


जनता पर इसका पूरा असर भी दिखाई देता है। लोग अपने बच्चों को शिक्षित करने के प्रति जागरूक हुए हैं। जिनके लिए भी संभव हो पा रहा है, वे अपने बच्चों की पढ़ाई पर पूरा ध्यान दे रहे हैं। आज हर शख्स यह चाहता है कि उसके बच्चे सबसे अच्छी शिक्षा हासिल कर सकें। अपनी दूसरी आवश्यकताओं में कटौती करके बच्चों को पढ़ाना-लिखाना चाहता है। इसके बावजूद शिक्षा का प्रसार उस गति से नहीं हो सका है, जिस गति से होना चाहिए। बहुत सारे बच्चे अभी भी सड़कों पर कूड़ा बीनते, ढाबों में प्लेटें धोते या दूसरी जगहों पर काम करते देखे जा सकते हैं। यहां तक कि बच्चों को भीख मांगते हुए भी दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के दूसरे हिस्सों में आसानी से देखा जा सकता है। इनमें ऐसे माता-पिता के बच्चे हैं, जिनके पास यह सुविधा नहीं है कि वे अपने बच्चों को सही शिक्षा दिला सकें। फीस भरने और कापी-किताब की व्यवस्था की बात तो छोड़ ही दें, वे अपने बच्चों को मुफ्त में भी स्कूल भेज पाने की हैसियत में नहीं हैं। क्योंकि वे अगर अपने बच्चों को स्कूल भेज दें तो उनका परिवार चलना ही मुश्किल हो जाए। जहां गरीबी का पहले से ही यह आलम है, वहीं स्कूलों की स्थिति भी बदतर होती चली जा रही है।


शिक्षा का अधिकार


अशोक गांगुली कमेटी की रिपोर्ट में यह सिफारिश की गई थी कि एक क्लास में 45 से अधिक बच्चे नहीं होने चाहिए। यह मानक बिलकुल व्यावहारिक है। किसी भी शिक्षक के लिए यह संभव नहीं है कि वह एक साथ इससे अधिक बच्चों पर ध्यान दे सके। जबकि वस्तुस्थिति यह है कि अनेक स्कूलों में एक ही कक्षा में 60 से लेकर सौ तक बच्चे पढ़ रहे हैं। कई जगहों पर बिल्डिंग का इंतजाम पर्याप्त न होने के कारण वहां अधिक बच्चों के लिए दूसरे वर्ग भी नहीं बनाए जा सकते। क्योंकि इसके लिए अलग से कमरों की जरूरत पड़ेगी। जाहिर है, ऐसी स्थिति में पढ़ाई के नाम पर वहां जैसे-तैसे काम चलाया जा रहा है। इसका सीधा असर शिक्षा की गुणवत्ता पर पड़ेगा। परिणाम चाहे जो दिखाए जा रहे हों, लेकिन सच्चाई यह है कि सरकारी स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता दिन-प्रतिदिन गिरती ही जा रही है। यही वजह है कि जिन लोगों के पास जरा भी सुविधा है, वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में कतई पढ़ाना नहीं चाहते हैं। आधुनिक भारत में शिक्षा की प्रचलित पद्धति की विफलताएं हम देख चुके हैं। यह आरोप इस पद्धति पर बार-बार लगाया जाता रहा है कि यह बच्चों की रचनात्मक क्षमता को उभार पाने में पूरी तरह विफल है। उन्हें कोई निश्चित दिशा देने में बिलकुल सक्षम नहीं है। इसीलिए शिक्षा को व्यवसाय से जोड़ने की अथक कोशिशें चल रही हैं। इसके लिए अलग तरह के शिक्षा संस्थानों की आवश्यकता पड़ी। ऐसे संस्थान जो न्यूनतम लागत पर तकनीकी शिक्षा उपलब्ध करा सकें।


लेकिन तकनीकी शिक्षा प्राप्त कर पाने की स्थिति तक पहुंचने लायक भी तमाम छात्र नहीं रह गए हैं, क्योंकि उसके लिए यह जरूरी है कि एक निश्चित स्तर तक सामान्य शिक्षा हासिल की जाए। कम से कम दसवीं या बारहवीं कक्षा तक शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद ही इन तकनीकी शिक्षा संस्थानों में प्रवेश प्राप्त किया जा सकता है। सवाल यह है कि जब दसवीं-बारहवीं कक्षा तक के लिए शिक्षा की सही व्यवस्था नहीं है तो बच्चे उसके आगे तकनीकी शिक्षा हासिल करने के लिए क्या करें? सवाल यह भी है कि शिक्षा के नाम पर केवल औपचारिकता पूरी करके भी वे क्या करें? शिक्षा केवल एक औपचारिकता बन कर न रह जाए, इसका वाकई कुछ मतलब हो, इसके लिए आवश्यक है कि उसे गुणवत्तापूर्ण बनाया जाए। बच्चे यह समझ सकें कि जो कुछ उन्होंने पढ़ा है, उसकी उनके जीवन में क्या उपयोगिता है। वे अपने और अपने समाज के लिए सही निर्णय लेने में सक्षम हों। ऐसा तभी संभव है जब शिक्षक की भूमिका केवल जल्दी-जल्दी कोर्स पूरा कराकर उन्हें सर्टिफिकेट दिला देने तक ही सीमित न हो। जबकि जो वास्तविक स्थितियां हैं, उनमें शिक्षक चाहे कितनी भी कोशिश क्यों न कर ले, उसकी भूमिका इससे अधिक हो ही नहीं सकती। सच तो यह है कि बच्चों को जीवन जीने लायक शिक्षा दे पाना तभी संभव है जब शिक्षकों का उनसे निरंतर संपर्क हो। वे एक-एक बच्चे से सीधा संवाद स्थापित कर सकें तथा उन्हें प्रेरित कर सकें। इसके लिए उन्हें समय चाहिए होगा और सुविधा चाहिए होगी।


जिस क्लास में 60 से लेकर सौ तक बच्चे होंगे, वहां ऐसा कैसे संभव होगा? यह बात अब बिलकुल साफ हो चुकी है कि ऐसी शिक्षा का कोई अर्थ नहीं है, जो केवल कुछ पाठ रटाने पर आधारित हो। मौलिक सोच रहित याद्दाश्त की कोई उपयोगिता नहीं है। शिक्षा का अर्थ तभी है जब वह हमारे समाज और जीवन में सकारात्मक परिवर्तन ला सके। इसके लिए यह अनिवार्य है कि शिक्षा को गुणवत्तापूर्ण बनाने का प्रयास किया जाए। सरकार को चाहिए कि शिक्षा व्यवस्था को कम से कम मानकों के अनुरूप लाने के लिए चाहे जो कुछ करना पड़े, उसकी व्यवस्था बनाए। क्योंकि अगर इसे हम आने वाले दिनों पर टालते चले जाएंगे तो समस्या कभी हल नहीं हो सकेगी। आज जितने स्कूलों और शिक्षकों की आवश्यकता है, आने वाले दिनों में निश्चित रूप से उससे बहुत अधिक की जरूरत होगी। अगर हम आज के लिए पर्याप्त व्यवस्था नहीं बना सके तो भविष्य के लिए फिर यह काम कैसे हो सकेगा? इसीलिए इस दिशा में जितनी जल्दी हो, मुकम्मल कार्ययोजना तैयार की जानी चाहिए और निश्चित समय के भीतर पर्याप्त संख्या में नए शिक्षकों की भर्ती कर तथा नए स्कूल बनाकर लक्ष्य हासिल करने की दिशा में आगे बढ़ा जाए।


लेखक निशिकांत ठाकुर दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं


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