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संपादकीय ब्लॉग
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पिछले दिनों में दिल्ली गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के लिए चुनाव घोषणापत्र जारी करते हुए अकाली दल बादल के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं पंजाब के उप-मुख्यमंत्री सुखबीर बादल ने कहा कि शिक्षा उनकी पार्टी के लिए सर्वोपरि है। उन्होंने इस मौके पर युवाओं की शिक्षा से जुड़ी कई महत्वपूर्ण घोषणाएं भी कीं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि शिक्षा की स्थिति पूरे देश में बहुत खराब हो चुकी है। हम योजनाओं के तौर पर सबके लिए शिक्षा और बच्चों एवं युवाओं की शिक्षा से जुड़े कई कार्यक्रमों का जिक्र भले कर लें, लेकिन सच्चाई यह है कि शिक्षा पर सरकार सबसे कम ध्यान दे रही है। लोगों में खुद तो शिक्षा के प्रति जागरूकता आई है, लेकिन सरकारी तंत्र इस मामले में पर्याप्त कारगर साबित नहीं हो पा रहा है। शिक्षा के महत्व से अब सभी सुपरिचित हैं और इसीलिए पिछड़े व गरीब तबके के लोग भी अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देना चाहते हैं। लोगों की जागरूकता के कारण शिक्षा का प्रसार बढ़ा है, लेकिन सरकारी तंत्र के ढीलेपन के कारण इसकी गुणवत्ता लगातार घट रही है। ऐसी स्थिति में सुखबीर सिंह अपनी पार्टी के लिए शिक्षा को सर्वोपरि बता रहे हैं तो यह एक शुभ संकेत है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि शिक्षा ही वह उपाय है, जिसके जरिये कोई राष्ट्र विकास के रास्ते पर आगे बढ़ सकता है। क्योंकि शिक्षा के जरिये ही अपने संसाधनों के बेहतर उपयोग के तरीके सीख सकते हैं और न्यूनतम लागत में अधिकतम लाभ प्राप्त कर सकते हैं। शिक्षा ही आदमी के मन में व्यवस्था के प्रति आस्था जगाती है और यही उसे व्यवस्था की खामियों के खिलाफ सही तरीके से लड़ने का जज्बा भी देती है। शिक्षा के अभाव में कोई व्यक्ति न तो अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो पाता है और वह अपने कर्तव्यों के प्रति ही सचेत होता है। अशिक्षित व्यक्ति किसी घटना या स्थिति विशेष के प्रति अपनी कोई स्पष्ट राय भी नहीं बना पाता है। आम तौर पर महत्वपूर्ण मसलों पर खुद असमंजस में होने के कारण वह अपना कोई पक्ष भी स्पष्ट तौर पर नहीं चुन पाता है। क्योंकि वह स्वयं अपने हित या अहित का ठीक-ठीक निर्णय भी नहीं कर पाता है। वह किसी घटना का तुरंत का प्रभाव तो देखता है, लेकिन दूरगामी परिणाम का आकलन आम तौर पर नहीं कर पाता है। एक लोकतांत्रिक देश के लिए यह स्थिति कभी भी अच्छी नहीं कही जा सकती है। क्योंकि लोकतंत्र की पूरी व्यवस्था ही लोगों की सम्मति पर टिकी होती है। सैद्धांतिक रूप से यहां सरकार के हर निर्णय को जनता का ही निर्णय माना जाता है। ऐसी जनता अपने हित या अहित का निर्णय कैसे कर सकती है, जिसे दुनिया के हालात का कुछ स्पष्ट पता ही न हो। वस्तुत: गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के अभाव का यह असर लोकतंत्र के प्रति हमारी सोच पर भी दिखाई देता है। अवसर चाहे विधानसभा या लोकसभा चुनाव का हो, या फिर किसी भी जनांदोलन का, दोनों ही मामलों में जनता का जो निर्णय सामने आता है, उस पर चल रही हवा के साथ बहने का भाव ज्यादा और सोच-विचार कर सही निर्णय का भाव कम होता है। कई बार लोग केवल विरोध के लिए विरोध कर रहे होते हैं, यह समझे बगैर कि जिस स्थिति के खिलाफ वे खड़े हैं, उसकी असलियत क्या है। वे यह जानने की कोशिश भी नहीं करते कि जैसा उन्हें बताया जा रहा है, वैसा कुछ हो भी सकता है या नहीं। इसका फायदा कई बार क्षुद्र स्वार्थी तत्व भी उठा लेते हैं और नुकसान अंतत: देश की व्यवस्था को झेलना पड़ता है। हम ऐसे नुकसान से बच सकें, इसका एक ही तरीका है और वह है लोकतंत्र के प्रति एक परिपक्व सोच का विकास करना। यह तभी संभव है जबकि शिक्षा का सही ढंग से विकास किया जाए।


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दुर्भाग्य यह है कि इस मामले में पूरे देश की ही स्थिति ठीक नहीं है। देश भर में गरीब जनता की मजबूरी यह है कि एक निश्चित हद से अधिक खर्च कर नहीं सकती। ऐसी स्थिति में उसे अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना पड़ता है और वहां अध्यापकों के जिम्मे शिक्षणेतर कार्य ही इतने अधिक हैं कि उनका अधिकतर समय उन्हें पूरा करने में ही निकल जाता है। कभी जनगणना तो कभी मतदाता सूची का संशोधन, कभी चुनावी ड्यूटी तो कभी मतगणना और इन सबके अलावा मिड डे मील भी। अधिकतर राज्यों में मिडडे मील बंटवाने के अलावा उसे तैयार करवाने का काम भी शिक्षकों की ही जिम्मेदारी है। मुश्किल यह है कि इन शिक्षणेतर कार्यो की निगरानी के लिए कई तंत्र भी हैं। जबकि शिक्षकों का जो मुख्य कार्य है, यानी शिक्षण, उसकी निगरानी के लिए तंत्र केवल नाममात्र का है। इससे भी कष्टप्रद स्थिति कई राज्यों में शिक्षा की व्यवस्था को लेकर है। अधिकतर सरकारी स्कूलों में तो विद्यार्थियों के बैठने के लिए ही उचित व्यवस्था नहीं है। कहीं भवन ही नहीं है तो कहीं बेंच नहीं हैं। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली तक में कई स्कूलों में छात्रों को टाट-पट्टी पर बैठना पड़ता है। इस सबके अलावा सबसे कष्टप्रद अध्यापकों की कमी है। इन स्थितियों में कहीं भी सुधार की कोई प्रभावी गति दिखाई नहीं दे रही है। ऐसी स्थिति में बच्चों के व्यक्तित्व का विकास क्या होगा, जब वे अपने पाठ ही पूरे नहीं पढ़ सकेंगे? इस आधी-अधूरी पढ़ाई का ही नतीजा है जो अधिकतर युवा पढ़ाई पूरी करने के बाद अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी करने के लिए रोजगार के ही संकट से जूझ रहे होते हैं। बहुत लंबा समय वे नौकरी की तलाश में ही गुजार देते हैं और इसके बाद भी संतोषजनक जीवन नहीं जी पाते। बहुत सारे लोगों के हाथ सिर्फ हताशा लगती है। जबकि अच्छे स्कूलों से पढ़े हुए विद्यार्थियों के लिए रोजगार कभी समस्या का कारण ही नहीं रहा। सच तो यह है कि आज के समय में शिक्षा की सारी सार्थकता उद्यमिता के विकास में निहित है।


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विद्यार्थियों को इस बात के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए कि वे नौकरियों की तलाश में कई साल बेरोजगार रहने के बजाय स्वयं अपने दम पर उद्यम शुरू करने और दूसरों को भी रोजगार देने का प्रयास करें। उद्यमिता के मामले में पंजाब पहले से ही अव्वल है, अब सुखबीर बादल की बात से यह उम्मीद भी जगी है कि कम से कम अपने अधिकार क्षेत्र में वह शिक्षा की बेहतरी पर ध्यान देंगे। बादल सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद पंजाब में अभी भी शिक्षा व्यवस्था दुरुस्त नहीं हो सकी है। कृषि और उद्यमिता जैसे मामलों में पंजाब देश का अग्रणी राज्य है। शिक्षा के मसले पर अगर सरकार पूरा ध्यान देकर इसे सही दिशा दे दे तो इस मामले में भी यह देश को दिशा देने वाला राज्य हो सकेगा।


लेखक निशिकांत ठाकुर दैनिक जागरण में स्थानीय संपादक हैं



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