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चुनौती हैं चुनावी घोषणाएं

संपादकीय ब्लॉग
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Nishikant Thakurदेश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की घोषणा हो चुकी है। इसके साथ ही राजनीतिक गहमागहमी शुरू हो गई है। कहने को भले ये केवल विधानसभाओं के चुनाव हों, लेकिन इन पर नजर पूरे देश की है। इन पर गौर करने वालों में केवल राजनेता ही नहीं, वे आम लोग भी शामिल हैं जो देश की राजनीतिक स्थितियों के प्रति गंभीर हैं। वजह यह है कि इन चुनावों से ही अगले लोकसभा चुनावों के लिए निहितार्थ निकाले जाएंगे। इस बात को राजनेता बहुत अच्छी तरह समझते हैं और इसीलिए वे भी इसे बहुत गंभीरता से ले रहे हैं। इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि राजनीतिक दृष्टि से देश के सबसे महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव भी इसी क्रम में होने हैं। उत्तर प्रदेश के चुनाव सात चरणों में होंगे, जबकि पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में केवल एक-एक चरण में ही चुनाव होने हैं। इस दृष्टि से अगले दो महीने यानी जनवरी और फरवरी बहुत सरगर्मी भरे होंगे। चूंकि इस बार प्रचार के लिए समयसीमा काफी घटा दी गई है और चुनावी खर्च समेत कई अन्य मसलों पर चुनाव आयोग सीधे नजर रख रहा है, इसलिए उम्मीदवारों के लिए यह चुनाव पहले की तुलना में काफी चुनौतीपूर्ण होगा।


पंजाब में राजनीतिक गहमागहमी काफी जोरदार होने जा रही है। यहां चुनावी प्रतिस्पर्धा की स्थिति लगभग साफ है। एक तरफ अकाली-भाजपा गठबंधन है और दूसरी तरफ कांग्रेस। अगर राज्य के राजनीतिक इतिहास पर नजर डालें तो पता चलता है कि आम तौर पर अदल-बदल कर बागडोर इन्हीं दोनों के हाथ में रही है। खेती, सोच और उद्यमिता के मामले में काफी उन्नत पंजाब के मामले में एक बात और गौर करने लायक है, वह यह कि यहां अकसर चुनाव के बाद सत्ता बदल जाती रही है। जनता अगर बार कांग्रेस को मौका देती है तो अगली बार अकाली-भाजपा और दुबारा फिर कांग्रेस। अभी बिलकुल नहीं कहा जा सकता कि वह अपने इस इतिहास को इस बार भी दुहराएगी या नहीं, लेकिन इस बात को लेकर कयासबाजी पूरे सूबे में चल रही है तथा इसके पक्ष और विपक्ष दोनों तरह के ढेरों तर्क भी दिए जा रहे हैं। यह अलग बात है कि अपने तर्को और निष्कर्षो को लेकर कोई भी आश्वस्त नहीं है। इसकी एक बहुत बड़ी वजह मुद्दों को लेकर बदली आम जनता की सोच है।


मुद्दों को लेकर अगर देखा जाए तो सोच केवल आम जनता ही नहीं, राजनेताओं की भी बदली है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि अभी भी कुछ राजनीतिक दल जाति-धर्म या संप्रदाय के नाम पर मतदाताओं को फुसलाने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं। इसी सोच के तहत जातिगत या सांप्रदायिक आधार पर सुविधाओं व लाभों के बंटवारे की बात चल रही है। कभी कोई झुनझुना थमाने की कोशिश की जा रही है तो कभी कोई। लेकिन यह बात राजनेताओं की समझ में भी अब आ गई है कि इन आधारों पर राजनीति बहुत दिन चलने वाली नहीं है और खास कर जनता को बांटना तो बिलकुल ही संभव नहीं रह गया है। इसीलिए लोग सुविधाओं की बात तो जरूर करते हैं, जब-तब किसी खास समुदाय के साथ किसी खास पार्टी द्वारा भेदभाव किए जाने के आरोप भी लगाए जा रहे हैं, लेकिन खुद जनता को बांटने जैसी कोई निरर्थक कोशिश अब नहीं दिख रही है। निश्चित रूप से हमारे देश में लोकतांत्रिक सोच के विकास का एक उम्दा सबूत है और इसका स्वागत किया जाना चाहिए।


सबसे अच्छी बात यह देखी जा रही है कि चुनावी मुद्दे अब हवा-हवाई नहीं रह गए हैं। केंद्रीय मुद्दे के तौर पर अगर देखा जाए तो सबका ध्यान विकास पर केंद्रित है। पंजाब में अभी हाल ही में हुई एक रैली में अकाली-भाजपा गठबंधन ने अपना मुख्य मुद्दा प्रदेश में भाईचारा, शांति और विकास कार्य बताया है। ऐसा नहीं है कि अकाली-भाजपा गठबंधन ने यह मुद्दा केवल इसलिए उठा लिया है कि उसने विकास किया है, बल्कि सच यह है कि यही मुद्दे जनता की सोच के केंद्र में हैं। पिछले दिनों देश के दूसरे कई राज्यों में हुए चुनावों में भी राजनीतिक पार्टियों ने यह देख लिया है कि आम जनता झूठ-मूठ के मुद्दों पर टिकने वाली नहीं है। वह अपना और प्रदेश का बहुआयामी विकास चाहती है। वह बिजली, सड़क और पानी जैसी बुनियादी चीजों की किल्लत से उबरना चाहती है। उसे महंगाई और बेरोजगारी से मुक्ति चाहिए। शिक्षा, चिकित्सा और रोजी-रोटी का समुचित प्रबंध चाहिए। वह शांति और सुरक्षा भी चाहती है। वह अपनी अगली सरकार के लिए फैसला इन्हीं आधारों पर करना चाहती है।


इस नजरिये से अगर देखा जाए तो अकाली-भाजपा सरकार ने काफी काम किया है। कम से कम उससे जितना हो सकता था, उतना तो उसने किया ही है। शहरों के भीतर और गांवों में भी सड़क, पानी और बिजली की व्यवस्था काफी सुधारी गई है। शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था सुधारने की दिशा में भी इस सरकार ने काफी काम किया है। इन मोर्चो पर विपक्ष के पास कुछ कहने लायक मौका इस सरकार ने नहीं छोड़ा है। अराजकता-प्रताड़ना जैसे जो कुछ मुद्दे उठाने की कोशिश की जा रही है, वह भी कोई जोर नहीं पकड़ पा रहे हैं। हालांकि यह सब अभी शुरुआती दौर की स्थिति है। चुनावी बिसात पर वास्तविक स्थिति अंतिम समय में जाकर ही ठीक-ठीक स्पष्ट हो पाती है। अकसर ऐसा देखा गया है कि अंतिम समय में कहीं न कहीं से कुछ ऐसे मुद्दे आ जाते हैं जिनके होने न होने का कोई मतलब नहीं होता है। कई बार तो ये मुद्दे प्रयास करके तैयार किए जाते हैं और कभी-कभी किसी परिस्थितिवश सहज रूप से सामने आ जाते हैं। अंत में होता यह है कि उनकी भूमिका ही निर्णायक हो जाती है।


सच तो यह है कि ऐसे मुद्दों से बचना ही मतदाताओं के लिए असली चुनौती है। केवल निरर्थक मुद्दे ही नहीं, निरर्थक वादे भी चुनावी घोषणापत्रों के अनिवार्य अंग बन चुके हैं। शायद ही कोई पार्टी होगी, जो अपने चुनावी घोषणापत्र में ऐसे असंभव वादे न करती हो, जिन्हें पूरा कर पाना किसी कीमत पर संभव न हो। यह बात ये पार्टियां ऐसी बातें घोषणापत्र में शामिल करते समय भी जानती हैं। इसके बावजूद वे इन्हें शामिल करती हैं। यही नहीं, सबसे हैरतअंगेज बात यह है कि लोकतांत्रिक इतिहास के इतने लंबे अनुभव के बावजूद भारतीय मतदाता अभी तक इन घोषणाओं पर विश्वास करता है और इनके फेर में फंस भी जाता है। लालच की इस मनोवृत्ति से बचना ही मतदाताओं के लिए असली चुनौती होगी। जनता को यह बात समझनी होगी कि सूबे का खजाना सीमित होता है और यह पूरे सूबे के विकास के लिए होता है, किसी एक व्यक्ति या वर्ग के लिए नहीं। इसलिए घोषणापत्रों की बातों में विश्वास उतने ही पर किया जाए, जितने में राज्य और आम जनता के विकास की बात हो। साथ ही, सरकार के कामकाज की परख भी इसी आधार पर हो।


लेखक निशिकांत ठाकुर दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं


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