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केंद्र सरकार ने पेंशन में 26 फीसद प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी देने के साथ बीमा क्षेत्र में एफडीआइ की सीमा को 26 से बढ़ाकर 49 फीसदी करने के जो निर्णय लिए उन्हें आर्थिक सुधारों के दूसरे दौर के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की जा रही है, लेकिन सच्चाई यह है कि इन उपायों से वित्तीय ढांचे की सेहत पर कोई खास असर नहीं पड़ने वाला। पेंशन और बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश को मंजूरी देना अथवा सीमा बढ़ाना नीतिगत निर्णय से अधिक कुछ नहीं है। यही बात दो सप्ताह पूर्व खुदरा कारोबार में एफडीआइ को मंजूरी देने के फैसले के संदर्भ में भी कही जा सकती है। इन फैसलों के संदर्भ में संप्रग सरकार और उसके रणनीतिकारों की ओर से चाहे जैसे दावे किए जा रहे हों, लेकिन यह स्पष्ट नजर आ रहा है कि इनके पीछे आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने की सदिच्छा कम, अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों और विदेशी मीडिया को संतुष्ट करने की कोशिश अधिक है।
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यह गौर करने लायक है कि आर्थिक मुद्दों पर केंद्र सरकार की निष्कि्रयता पर जब घरेलू मीडिया और विशेषज्ञों ने अंगुली उठाई थी तो उन्हें झिड़क दिया गया था, लेकिन जब अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों और विदेशी मीडिया ने सरकार को कठघरे में खड़ा किया तो न केवल अनेक मंत्रियों, बल्कि प्रधानमंत्री कार्यालय तक ने अपनी प्रतिक्रिया दी। उचित तो यह था कि कम से कम प्रधानमंत्री कार्यालय एक विदेशी अखबार के निष्कर्षो पर प्रतिक्रिया देने से परहेज करता। पिछले कुछ समय से यकायक आर्थिक सुधारों के नाम पर अलग-अलग क्षेत्रों में विदेशी निवेश को मंजूरी देने के ऐसे फैसले किए जा रहे हैं जो देश में राजनीतिक बहस का विषय बने हुए हैं। पूर्व में कई विकसित देशों के शासनाध्यक्ष और राजनयिक यह विचार व्यक्त करते रहे हैं कि भारत को अपने बाजार विदेशी कंपनियों को खोल देने चाहिए। इसका मुख्य कारण यह है कि विकसित देशों के बाजारों में अब कंपनियों के लिए लाभ कमाने की बहुत अधिक गुंजाइश नहीं रह गई है।
ऐसे में विदेशी कंपनियों की नजर ऐसे बाजारों पर है जहां विकास की अधिक संभावनाएं हों और उन्हें अपने निवेश का अच्छा लाभ मिल सके। भारत इस समय विदेशी कंपनियों के लिए एक ऐसा ही बाजार है। यह कोई छिपी बात नहीं कि उड्डयन, रिटेल, बीमा और पेंशन आदि क्षेत्रों में काम कर रही बड़ी विदेशी कंपनियां भारत में अपना कारोबार फैलाना चाहती हैं। चूंकि भारत ने अब तक इन क्षेत्रों में विदेशी पूंजी को आने से रोका हुआ है इसलिए उनकी ओर से लगातार यह दबाव बनाया जाता रहा है कि इस बंदिश को हटाया जाए और इसके लिए अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा की दुहाई भी दी जाती रही है। हर कोई यह आसानी से समझ सकता है कि विदेशी कंपनियां सिर्फ अधिक कमाई के लिए भारत में निवेश करना चाहती हैं। यह दलील एक हद तक सही है कि विदेशी पूंजी आने से भारत की कंपनियों को भी अपना विकास करने में सहायता मिलेगी, लेकिन सवाल यह है कि क्या उड्डयन, रिटेल और बीमा जैसे क्षेत्रों में विदेशी पूंजी से भारतीय अर्थव्यवस्था का कायाकल्प हो जाएगा? सवाल यह भी है कि अगर भारतीय कंपनियां उड्डयन, रिटेल और बीमा क्षेत्र को बदहाली से नहीं उबार पा रही हैं तो विदेशी कंपनियां यह काम किस तरह कैसे कर सकेंगी?
इसी तरह क्या विदेशी निवेश को अनुमति देने के साथ वे नियम-कायदे भी बदले जा रहे हैं जो इन क्षेत्रों के सही तरह विकास न कर पाने के लिए जिम्मेदार हैं? यह आवश्यक है कि इन क्षेत्रों में विदेशी निवेश को अनुमति देने के साथ जमीनी स्तर पर जो बदलाव किए जाने हैं वे भी किए जाएं अन्यथा सुधार की जो उम्मीद की जा रही है वह पूरी नहीं होने वाली। भारत की अर्थव्यवस्था के लिए जो सबसे बड़ी चुनौती है वह है सब्सिडी का बढ़ता बोझ। इस बोझ के तले हमारी अर्थव्यवस्था चरमरा रही है। चूंकि सब्सिडी के संदर्भ में साहसिक राजनीतिक फैसले लेने से लंबे समय से बचा जा रहा है इसलिए अर्थव्यवस्था को मजबूती देने की कोशिशें भी रंग लाती नहीं दिख रही हैं। पेट्रोलियम पदार्थो के आयात पर होने वाले जबरदस्त घाटे के पीछे रुपये के कमजोर होने का तर्क दिया जाता है, लेकिन यह अधूरी सच्चाई ही है। इससे इन्कार नहीं कि चार क्षेत्रों में एफडीआइ को मंजूरी देने से विदेशी कंपनियों को सकारात्मक संकेत गया है और इसका असर शेयर बाजार में भी देखने को मिला है। इन चार क्षेत्रों में विदेशी पूंजी के आने की संभावना से रुपया फिर से मजबूत होने लगा है। इससे फौरी तौर पर घाटे में कुछ कमी तो नजर आ सकती है, लेकिन भारत की अर्थव्यवस्था को इसके कोई दूरगामी लाभ नहीं मिलने वाले। दूरगामी लाभ तो तब मिलेगा जब सब्सिडी के बोझ को कम करने के लिए अर्थव्यवस्था के बुनियादी आधारों में सुधार किया जाएगा।
अभी तो ऐसा लगता है कि सरकार का सारा ध्यान डालर के मुकाबले रुपये को मजबूत करने पर ही लगा हुआ है। यह ठीक नहीं और केवल इस उद्देश्य के लिए किए जाने फैसलों से बात बनने वाली नहीं। एक समस्या यह भी है कि केंद्र सरकार ने जो भी फैसले लिए हैं उन्हें लेकर राजनीतिक आम सहमति दूर-दूर तक नजर नहीं आती। विपक्ष की बात तो दूर रही, सरकार के सहयोगी दलों को भी ये फैसले रास नहीं आ रहे हैं। स्पष्ट है कि जो फैसले लिए गए हैं उन पर राजनीतिक आम सहमति कायम करना खासा मुश्किल है। देखना यह है कि केंद्र सरकार विपक्ष और अपने सहयोगी दलों के दबाव का सामना कर उन विधेयकों को पारित करा पाती है या नहीं जिन्हें कैबिनेट ने मंजूरी दी है? इससे भी बड़ी चुनौती सरकार के सामने यह है कि वित्तीय घाटे को किस तरह नियंत्रित किया जाए? वित्तीय घाटे में कमी लाकर ही सरकार रिजर्व बैंक से रियायत की अपेक्षा कर सकती है। दुर्भाग्य से वित्तीय घाटे में कमी लाने की चुनौती की लंबे समय से अनदेखी की जा रही है। सब्सिडी की राजनीति वित्तीय सुधार के कार्यक्रम में सबसे बड़ी बाधा है। अब तो स्थिति यह है कि पूरा राजनीतिक वर्ग इसके पक्ष में है कि सब्सिडी कम न होने पाए। यह ठीक नहीं। राजनीतिक दलों को इसकी चिंता करनी ही होगी कि सब्सिडी का बढ़ता बोझ कैसे कम हो? सरकार को भी सोचना होगा कि देश की वित्तीय हालत सिर्फ विदेशी पूंजी पर निर्भर न रहे। बेहतर हो कि पक्ष-विपक्ष के नेता इस पर आत्ममंथन करें कि राजनीतिक लाभ-हानि की परवाह किए बिना आर्थिक सुधारों को किस तरह आगे बढ़ाया जाए, जिससे वित्तीय ढांचे की हालत सुधरे। यह ठीक है कि सब्सिडी को पूरी तरह समाप्त नहीं किया जा सकता, लेकिन इसे कम अवश्य किया जा सकता है। सब्सिडी वाली अर्थव्यवस्था का युग अब समाप्त होना चाहिए। सब्सिडी जरूरतमंद तबके के लिए एक रियायत के रूप में होनी चाहिए और वह भी उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए। अभी तो सब्सिडी एक अधिकार बनती जा रही है।
सब्सिडी का बैसाखी की तरह इस्तेमाल करके वंचित तबके को उसके पैरों पर नहीं खड़ा किया जा सकता। सब्सिडी अधिकार नहीं है। सब्सिडी पर आवश्यकता से अधिक निर्भरता के क्या दुष्परिणाम होते हैं, इसका उदाहरण हैं स्पेन, ग्रीस, इटली आदि। यहां समृद्ध तबका भी सरकारी खर्चो में कटौती पर इसलिए हाय-तौबा मचाए हुए हैं, क्योंकि उसने सब्सिडी को अपना अधिकार समझ लिया है।
लेखक संजय गुप्त
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