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रिटेल कारोबार में एफडीआइ के मुद्दे पर उभरे गतिरोध के लिए विपक्ष के साथ-साथ सत्तापक्ष को जिम्मेदार मान रहे हैं संजय गुप्त
संसद के शीतकालीन सत्र का करीब-करीब आधा समय बिना कामकाज के निकल गया है और कोई नहीं जानता कि बुधवार तक सत्तापक्ष-विपक्ष की तकरार थम सकेगी या नहीं? यदि शेष दिन संसद की कार्यवाही चलती भी है तो भी तय विधायी काम पूरे होने के आसार नहीं। यह पहली बार नहीं जब संसद का सत्र ठप हो। इसके पहले भी ऐसा होता आ रहा है। पिछले एक वर्ष में संसद के सही तरह से न चल पाने के कारण सरकार के तमाम काम अटक गए हैं और अब विपक्ष इस स्थिति का फायदा उठा रहा है। इसमें दो राय नहीं कि पिछले एक वर्ष में सरकार ने अकर्मण्यता दिखाई है, लेकिन अब उसकी अकर्मण्यता बढ़ाने में विपक्ष भी योगदान दे रहा है। यह निराशाजनक है कि जब यह माना जा रहा था कि विपक्ष अपने नकारात्मक रवैये का परित्याग कर देशहित में संसद को चलने देगा तब वह रिटेल कारोबार में विदेशी पूंजी निवेश के मामले में राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगा हुआ है और सत्तापक्ष भी यह भूल गया है कि संसद चलाना मूलत: उसकी जिम्मेदारी है। सत्तापक्ष विपक्ष पर यह आरोप मढ़कर अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं कर सकता कि उसने अड़ियल रवैया अपना लिया है। कुछ ऐसा ही रवैया उसका भी है, क्योंकि वह इस पर अनावश्यक जोर दे रहा है कि इस मुद्दे पर चर्चा के प्रस्ताव की भाषा उसके मुताबिक ही हो। महत्वपूर्ण चर्चा होना है या फिर यह कि वह किस तरीके से हो?
विपक्ष को सरकार के निर्णयों में खोट निकालने का पूरा अधिकार है, लेकिन सरकार के गलत-सही निर्णय का निर्धारण संसद में बहस से होना चाहिए, न कि संसद को ठप करके। आज जो विपक्ष सरकार पर अदूरदर्शिता का आरोप लगा रहा है उसे इस पर भी विचार करने की जरूरत है कि वह स्वयं कितनी दूरदर्शिता दिखा रहा है? महंगाई और भ्रष्टाचार को लेकर सत्तापक्ष की घेरेबंदी में जुटे विपक्ष ने रिटेल कारोबार में विदेशी पूंजीनिवेश की अनुमति के सरकार के फैसले के खिलाफ जैसा माहौल खड़ा कर दिया है उसकी कहीं कोई आवश्यकता नहीं थी। यदि यह मान भी लिया जाए कि सरकार ने यह फैसला जल्दबाजी में लिया और उसके पीछे कॉरपोरेट जगत की लामबंदी अथवा अन्य कोई स्वार्थ रहा होगा तो भी इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि इस फैसले में कोई खामी नहीं। सच तो यह है कि यह फैसला करीब एक दशक से लंबित था।
यदि विपक्ष को यह लगता है कि सरकार ने रिटेल कारोबार में विदेशी कंपनियों को अनुमति देने का फैसला लेने के पहले उसे विश्वास में नहीं लिया तो इसका प्रतिकार इस मुद्दे पर संसद में बहस से आसानी से हो सकता है, लेकिन वह बहस की नौबत ही नहीं आने दे रहा और रही-सही कसर सत्तापक्ष के इस रवैये ने पूरी कर दी है कि इस मुद्दे पर उसकी कहीं कोई गलती नहीं। यह तो समझ आता है कि वामदल सैद्धांतिक रूप से विदेशी कंपनियों के खिलाफ हैं, लेकिन यह समझना कठिन है कि भाजपा क्यों हाय-तौबा मचा रही है? भाजपा का हल्ला-गुल्ला इसलिए उचित नहीं, क्योंकि राजग शासन के समय उसके दृष्टिकोण पत्र में रिटेल कारोबार में एफडीआइ की आवश्यकता जताई गई थी। अब भाजपा यह तर्क देने में लगी हुई है कि विदेशी कंपनियों से किसान और खुदरा व्यापारी तबाह हो जाएंगे। यह तर्क किसी भी दृष्टि से खरा नहीं उतरता, क्योंकि मल्टीब्रांड की देशी रिटेल कंपनियां भारत में कई वर्षो से कारोबार कर रही हैं और कहीं से यह आवाज नहीं उठी कि उन्होंने छोटे खुदरा व्यापारियों का अहित किया है। भाजपा चार-पांच करोड़ खुदरा व्यापारियों के हितों की बात करते समय इससे कई गुना अधिक उपभोक्ताओं के हितों की चर्चा जानबूझकर नहीं कर रही है। क्या विदेशी कंपनियों के आने से उपभोक्ताओं को राहत नहीं मिलेगी? भारत के खुदरा व्यापारी इतने गए-बीते नहीं कि बदली हुई परिस्थितियों के अनुरूप खुद को न ढाल सकें। सच तो यह कि उन्होंने ऐसा किया भी है। नि:संदेह ऐसा भी नहीं हैं कि बड़ी विदेशी कंपनियों की कथित मनमानी के खिलाफ कोई नियम-कानून अथवा नियामक तंत्र बनाने की मनाही हो। जब भारतीय रिटेल कंपनियां छोटे खुदरा व्यापारियों का कुछ नहीं बिगाड़ सकीं तो फिर इस मान्यता का क्या आधार कि विदेशी रिटेल कंपनियां सब कुछ तबाह कर देंगी?
कोई भी इससे इंकार नहीं कर सकता कि विदेशी ब्रांड की उपभोक्ता वस्तुओं की सहज उपलब्धता और रिटेल कारोबार में विदेशी कंपनियों के सहयोग से देशी कंपनियों की मौजूदगी के बावजूद खुदरा व्यापारी अपनी अहमियत बनाए हुए हैं। यदि उनके समक्ष प्रतिस्पर्धा बढ़ती है तो वे खुद को और सक्षम बनाने के साथ अपनी कमियां भी दूर कर सकते हैं। इसका सीधा लाभ उपभोक्ताओं को मिलेगा। विपक्षी दलों को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि व्यापार में प्रतिस्पर्धा ही व्यापारियों की तरक्की और आम आदमी के लाभ का कारण बनती है। भाजपा रिटेल एफडीआइ के खिलाफ जो तमाम तर्क दे रही है उनमें से एक विदेशी कंपनियों द्वारा आगे चलकर किसानों का शोषण किया जाना है, लेकिन तथ्य यह है कि किसानों की मूल समस्या अपने उत्पाद की बिक्री के ज्यादा विकल्प न होना है। जब भी कोई उपज उम्मीद से अच्छी हो जाती है तो किसानों को घाटा सहना पड़ता है। वर्तमान में पंजाब और यूपी के तमाम किसान अपने आलू खेत में ही नष्ट करने के लिए मजबूर हैं।
भाजपा के इस तर्क का भी कोई मूल्य नहीं कि रिटेल एफडीआइ के लिए अभी सही समय नहीं आया। क्या वह बताएगी कि जो फैसला करीब एक दशक देर से लिया जा रहा है उसके लिए सही समय क्या होगा? क्या यह सही नहीं कि भारत सरीखे अन्य अनेक देशों में विदेशी रिटेल कंपनियां वर्षो पहले ही प्रवेश कर चुकी हैं? विदेशी रिटेल कंपनियों को लेकर भय का भूत खड़ा कर रहे भाजपा एवं अन्य विपक्षी दल इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकते कि टेलीकॉम एवं अन्य अनेक क्षेत्रों में भी विदेशी कंपनियां सक्रिय हैं और उनसे भारतीय हितों के लिए कहीं कोई खतरा नहीं पैदा हुआ। विदेशी रिटेल कंपनियों के मामले में विपक्षी दलों के तर्क भारत की जगहंसाई कराने वाले हैं, क्योंकि दुनिया भारत को एक उभरती हुई महाशक्ति मान चुकी है।
यदि विपक्षी दलों ने रिटेल एफडीआइ को लेकर हौवा खड़ा करने के बजाय इस मुद्दे पर संसद में बहस की होती तो यह लगभग तय है कि व्यापारी संगठनों के भारत बंद का माहौल कुछ दूसरा ही होता। आम आदमी यह अच्छी तरह जान रहा है कि संसद के न चल पाने के लिए सत्तापक्ष-विपक्ष में से कौन कितना जिम्मेदार है? उसे दोनों के दोष दिख रहे हैं। विपक्ष यह कहकर नहीं बच सकता कि केवल सत्तापक्ष के कारण संसद नहीं चल रही। सत्तापक्ष की छवि खराब करने के फेर में उसे इस हद तक नहीं जाना चाहिए कि राष्ट्रीय हितों की बलि चढ़ जाए। इसी तरह सत्तापक्ष भी इससे मुंह नहीं मोड़ सकता कि शासन का दायित्व संभालने के नाते उसकी यह जिम्मेदारी बनती है कि वह संसद चलाने के लिए कुछ अतिरिक्त प्रयास करे।
इस आलेख के लेखक संजय गुप्त हैं
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