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चिदंबरम को लेकर उपजे संकट को न्यूयॉर्क में सुलझाने की कोशिश को राजनीतिक अपरिपक्वता की नई निशानी बता रहे है राजीव सचान
इसमें शायद ही किसी को संदेह हो कि मनमोहन सरकार अपनी ही जनता की नजरों में गिर गई है। देश में यह धारणा गहराती जा रही है कि इस सरकार ने अपने कर्मो से अपनी जैसी दुर्गति कर ली है उसे देखते हुए भगवान ही उसका मालिक है। ऐसा लगता है कि इस धारणा ने देश से ज्यादा दुनिया पर असर किया है, क्योंकि यह दुर्योग नहीं हो सकता कि संयुक्त राष्ट्र गए मनमोहन सिंह से पश्चिम के किसी विकसित देश के शासनाध्यक्ष ने भेंट करने की जरूरत नहीं महसूस की-न औपचारिक और न ही अनौपचारिक रूप से। यह भी दुर्योग नहीं हो सकता कि जब वह संयुक्त राष्ट्र आम सभा को संबोधित कर रहे थे तो सभागार लगभग खाली था। उनसे केवल जापान, ईरान, श्रीलंका, नेपाल और दक्षिण सूडान के शासनाध्यक्ष मिले। जापान और ईरान के शासनाध्यक्षों से उनकी मुलाकात को तो उल्लेखनीय कहा जा सकता है, लेकिन श्रीलंका, नेपाल और दक्षिण सूडान के शासनाध्यक्षों से बातचीत को महत्वपूर्ण बताने का कोई मतलब नहीं। विदेश मंत्रालय के पास इस सवाल का कोई स्पष्टीकरण हो सकता है कि मनमोहन सिंह से प्रमुख देशों के शासनाध्यक्ष क्यों नहीं मिले, लेकिन वह देश की जनता को शायद ही संतुष्ट कर पाए। न्यूयॉर्क में मनमोहन सिंह से जिस अन्य नेता की मुलाकात चर्चा में रही वह और कोई नहीं उनके ही वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी थे। इस मुलाकात का औचित्य समझना इसलिए कठिन है, क्योंकि प्रणब मुखर्जी को निर्धारित कार्यक्रम के तहत न्यूयॉर्क नहीं जाना था। न्यूयॉर्क में मनमोहन सिंह और प्रणब मुखर्जी की मुलाकात ने इस पर स्वत: ही मुहर लगा दी कि 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन को लेकर वित्त मंत्रालय का जो नोट सार्वजनिक हुआ है और जिसने तब के वित्तमंत्री और मौजूदा गृहमंत्री चिदंबरम की बोलती बंद कर दी उससे सरकार के समक्ष गंभीर संकट खड़ा हो गया है।
आम जनता के लिए यह समझना मुश्किल है कि मनमोहन सिंह और प्रणब मुखर्जी को न्यूयॉर्क में शिखर वार्ता करने की जरूरत क्यों महसूस हुई? विधिमंत्री सलमान खुर्शीद के हिसाब से इस नोट में ऐसा कुछ भी नहीं जिसे लेकर चिंता जताई जाए। यदि वास्तव में ऐसा है तो फिर प्रणब मुखर्जी न्यूयॉर्क क्यों गए? क्या ये दोनों नेता दिल्ली आकर मुलाकात नहीं कर सकते थे? क्या यह घर का झगड़ा सड़क पर सुलझाने जैसी कवायद नहीं?
सरकार के समक्ष उभरे संकट की गंभीरता चिदंबरम के चेहरे की रंगत ने भी बयान की है और उनके बचाव में उतरने वाले दिग्विजय सिंह ने भी। क्या इससे दयनीय और कुछ हो सकता है कि चिदंबरम को अब उन दिग्विजय सिंह के प्रमाणपत्र की जरूरत पड़ रही है जो उन्हें चार दिन पहले ही आंतरिक सुरक्षा में नाकामी के लिए जिम्मेदार ठहरा चुके हैं-और वह भी लिखित रूप में। इसके पहले वह लिखित रूप में ही उन्हें बौद्धिक रूप से अहंकारी बता चुके हैं। चिदंबरम के बचाव में उतरे दिग्विजय सिंह ने हमेशा की तरह कुतर्को का सहारा लिया। उनकी मानें तो भाजपा इसलिए उनके पीछे पड़ी है, क्योंकि वह कथित संघी आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई कर रहे हैं। समस्या यह है कि इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है कि प्रणब मुखर्जी चिदंबरम के पीछे क्यों पड़े? आखिर उनके मंत्रालय को यह नोट लिखने की जरूरत क्यों पड़ी कि यदि चिदंबरम चाहते तो 2जी स्पेक्ट्रम का आवंटन नीलामी के जरिये हो सकता था? चूंकि प्रधानमंत्री को भेजे गए इस नोट के बारे में यह भी स्पष्ट है कि उसे वित्तमंत्री ने देखा था यानी स्वीकृति दी थी इसलिए इस बहाने से भी बात बनने वाली नहीं कि उसे तो एक कनिष्ठ अधिकारी ने लिखा था। यह नोट इसलिए रहस्यमय है, क्योंकि उसे इसी वर्ष मार्च में लिखा गया। इस समय तक ए.राजा गिरफ्तार हो चुके थे। वित्त मंत्रालय की ओर से भेजे गए इस नोट का मकसद का कुछ भी हो, उसने चिदंबरम की खोट उजागर कर दी है।
एक अन्य नोट भी सरकार के खोट को उजागर कर रहा है। यह स्पेक्ट्रम की कीमत तय करने संबंधी राजा और चिदंबरम की मुलाकात से संबंधित है। अभी तक सरकार की ओर से यह बताया जा रहा था कि राजा और चिदंबरम की यह मुलाकात औपचारिक किस्म की थी और इसीलिए उसके ब्यौरे को दर्ज करने की जरूरत नहीं समझी गई। इस बारे में पवन बंसल ने सफाई पेश करते हुए यह भी समझाने का प्रयास किया था कि मंत्रियों के बीच इस तरह की मुलाकातें होती रहती हैं। इस सफाई के बाद देश ने भी यह समझ लिया था कि राजा और चिदंबरम की मुलाकात वाकई औपचारिक किस्म की रही होगी और इसीलिए उसका ब्यौरा भी तैयार नहीं किया होगा, लेकिन पिछले हफ्ते वह नोट सामने आ गया जिसमें इस मुलाकात का ब्यौरा दर्ज है। यह ब्यौरा किसी और न नहीं तबके वित्त सचिव और रिजर्व बैंक के मौजूदा गवर्नर डी. सुब्बाराव ने तैयार किया था। इसका सीधा मतलब है कि सरकार झूठ बोलकर देश को गुमराह कर रही थी। क्या कोई बताएगा कि इस नोट के अस्तित्व से क्यों इंकार किया जा रहा था? आखिर किस झूठ को छिपाने के लिए झूठ पर झूठ बोले जा रहे हैं? अभी तक आम धारणा यह थी कि स्पेक्ट्रम आवंटन में जो भी बंदरबांट हुई वह राजा ने अपने दम पर की, लेकिन अब तो यह लग रहा है कि उन्हें कोई और बल प्रदान कर रहा था। आखिर कौन था यह शख्स? नि:संदेह वित्त मंत्रालय के नोट से यह साबित नहीं होता कि 2जी स्पेक्ट्रम के मनमाने तरीके से आवंटन के लिए चिदंबरम उतने ही दोषी हैं जितने कि राजा, लेकिन यह नोट उन्हें निर्दोष होने का प्रमाणपत्र भी नहीं देता। प्रधानमंत्री ने महज एक वक्तव्य देकर चिदंबरम से इस्तीफे की विपक्ष की मांग खारिज कर दी, लेकिन वह जनता के मन में घर कर गए संदेह को इतनी आसानी से दूर नहीं कर सकते-इसलिए और भी नहीं, क्योंकि उनकी साख पर बत्र लग चुका है?
लेखक राजीव सचान दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं
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