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बड़े फैसले में हड़बड़ी

संपादकीय ब्लॉग
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Sanjay Gupt रिटेल कारोबार में विदेशी निवेश को मंजूरी देने के फैसले में व्यापक विचार-विमर्श का अभाव देख रहे हैं संजय गुप्त


संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होते ही संप्रग सरकार ने रिटेल कारोबार में विदेशी पूंजीनिवेश को स्वीकृति देकर राजनीतिक दृष्टि से मुसीबत मोल लेने का काम किया है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि देश के खुदरा बाजार को पूंजी की जरूरत है। बावजूद इस सबके सरकार के इस फैसले को साहसिक के साथ जल्दबाजी में उठाया गया कदम भी कहा जाएगा। उसके इस कदम को देखते हुए ऐसा लगता है कि उसने रुके पड़े आर्थिक सुधारों को गति देने का फैसला कर लिया है। यदि वास्तव में ऐसा है तो इसका मतलब है कि संप्रग सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल के सबसे खराब दौर से निकलने के लिए कमर कस ली है, लेकिन उसे यह भी बताना होगा कि इस समय इस फैसले को लेने की ऐसी क्या आवश्यकता आन पड़ी थी कि न तो राजनीतिक स्तर पर व्यापक विचार-विमर्श किया गया और न ही किसानों और छोटे खुदरा व्यापारियों की आशंकाएं दूर की गईं? यह ठीक है कि विदेशी पूंजी की सहायता से रिटेल बाजार का आधुनिकीकरण तो होगा ही, उपभोक्ताओं को भी लाभ मिलेगा, लेकिन यह एक कमजोर तर्क है कि दस लाख से ज्यादा आबादी वाले शहरों में ही विदेशी कंपनियों को अपने स्टोर खोलने की अनुमति देने के कारण छोटे शहर अप्रभावित बने रहेंगे। सच्चाई यह है कि बड़े शहरों में विदेशी रिटेल स्टोर खुलते ही छोटे शहरों के भी खुदरा व्यापारी प्रभावित होंगे। शायद यही कारण है कि अकाली दल को छोड़ शेष विपक्षी दलों के साथ-साथ संप्रग के भी कुछ घटक दलों को यह फैसला मंजूर नहीं। तृणमूल कांग्रेस ने तो इस फैसले का खुला विरोध किया है। द्रमुक भी इस फैसले से संतुष्ट नहीं दिख रहा। संभवत: इसी वजह से रिटेल कारोबार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति संबंधी फैसले की घोषणा करते समय वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री आनंद शर्मा ने यह स्पष्ट किया कि यदि राज्य सरकारें चाहें तो अपने यहां विदेशी कंपनियों को अनुमति न दें।


भाजपा, वामदलों के साथ-साथ सपा-बसपा आदि का तर्क है कि रिटेल कारोबार में विदेशी पूंजी निवेश को अनुमति का फैसला उन छोटे दुकानदारों के लिए बड़ी मुसीबत है जिनकी संख्या लाखों में है। भारत में हर गली कूचे में खुदरा व्यापारी मौजूद हैं। केंद्र सरकार की मानें तो विदेशी रिटेल कंपनियों के आने से केवल तीन वर्ष में एक करोड़ से ज्यादा रोजगार के अवसर पैदा होंगे। इसके साथ ही उपभोक्ताओं के सामने खरीददारी के बेहतर विकल्प होंगे। नि:संदेह रिटेल कारोबार में विदेशी कंपनियों के आने से शिक्षित युवाओं के लिए रोजगार के तमाम अवसर उपलब्ध होंगे, लेकिन आखिर छोटे व्यापारियों के हितों की रक्षा कैसे होगी? इन व्यापारियों के लिए अन्य कोई काम तलाशना मुश्किल होगा।


मल्टीब्रांड रिटेल कारोबार में 51 फीसदी विदेशी निवेश और सिंगल ब्रांड रिटेल में विदेशी निवेश की मौजूदा सीमा 51 फीसदी को बढ़ाकर सौ फीसदी करने के साथ यह सुनिश्चित किया जाएगा कि विदेशी पूंजी का इस्तेमाल जमीन खरीदने या इमारत बनाने में न किया जाए। यह सतर्कता उचित ही है, लेकिन बेहतर होता कि सरकार दूरगामी असर वाला यह फैसला करते समय विपक्षी दलों के साथ-साथ खुदरा व्यापारियों की आशंकाओं को भी दूर करने का काम करती। सरकार यह दावा तो कर रही है कि उसने इस संदर्भ में अनेक अध्ययन कराए हैं, लेकिन यह समझना कठिन है कि उसने खुदरा व्यापारियों के संगठनों से कोई सीधा संवाद क्यों नहीं किया? उसे व्यापारियों के साथ-साथ किसानों को भी भरोसे में लेना चाहिए था। यह महज आर्थिक फैसला नहीं है। इस आर्थिक फैसले के सामाजिक और राजनीतिक पहलू भी हैं। सरकार को यह पता होना चाहिए कि जब स्वदेशी कारपोरेट घरानों ने अपने बल पर रिटेल स्टोर खोलने की योजना बनाई थी तो व्यापारियों, किसानों के साथ-साथ नेताओं के स्तर पर उनका विरोध हुआ था। कुछ राज्यों में तो स्वदेशी कंपनियों को ऐसे स्टोर खोलने की अनुमति भी नहीं दी गई थी या फिर उन्हें बंद करा दिया गया था।


खुदरा व्यापारियों की आशंकाओं पर अलग-अलग राय हो सकती हैं, लेकिन रिटेल कारोबार में विदेशी कंपनियों के आगमन से किसानों को लाभ होने की उम्मीद है। अभी किसानों के हिस्से का लाभ आमतौर पर आढ़ती उठाते हैं। उनकी अच्छी-खासी राजनीतिक पहुंच है और इसी कारण कई बार वे किसानों के नाम पर सरकार के फैसलों का विरोध करते हैं। अक्सर यह विरोध किसानों के लिए अहितकारी साबित होता है। यह किसी से छिपा नहीं कि किसानों को अपने उत्पाद का जो मूल्य मिलता है वह उपभोक्ताओं तक पहुंचते-पहुंचते कई गुना हो जाता है। यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि रिटेल कारोबार में विदेशी कंपनियों के आने से एक तो किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य मिलेगा और दूसरे फल एवं सब्जियों की बर्बादी कम होगी। यदि किसानों की स्थिति में सुधार होता है तो सरकार उर्वरकों पर सब्सिडी कम करने के बारे में सोच सकती है। इस समय केंद्र सरकार के सामने सब्सिडी के बोझ को कम करने की गंभीर चुनौती है। उर्वरकों और पेट्रोलियम पदार्थो पर सब्सिडी और समाज कल्याण की योजनाओं के कारण विकास के लिए सरकार आवश्यक धन नहीं जुटा पा रही है। सरकार उर्वरकों पर सब्सिडी कम करने के बारे में तभी सोच सकती है जब वह किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य दिलाने में सफल हो जाए। सरकार ने यह उम्मीद जताई है कि रिटेल कारोबार में विदेशी निवेश से महंगाई पर काबू पाने में मदद मिलेगी, लेकिन यह तय है कि हाल-फिलहाल ऐसा होने नहीं जा रहा। वैसे भी सरकार को रिटेल कारोबार में विदेशी कंपनियों को आमंत्रित करने के फैसले के साथ कृषि उत्पाद विपणन संबंधी अधिनियम में संशोधन करना होगा। यह आसान नहीं, क्योंकि विरोधी दल इसके खिलाफ हैं।


रिटेल कारोबार में विदेशी कंपनियों को आमंत्रित करने का फैसला पिछले कई वर्षो से लंबित था। शायद यही कारण है कि अनेक अर्थशास्त्रियों ने इसे देर से लिया गया सही फैसला बताया है, लेकिन इसे सरकार की गलती ही कहा जाएगा कि इतना बड़ा फैसला बिना माहौल बनाए और व्यापक बहस के ले लिया गया। कहीं इसके पीछे विदेशी रिटेल कंपनियों के साथ-साथ भारतीय रिटेल कंपनियों का दबाव तो नहीं? इस सिलसिले में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकता कि भारतीय कंपनियां विदेशी पूंजी के लिए हाथ-पांव मार रही थीं और उन्हें अपना मुनाफा बनाए रखने में कठिनाई हो रही थी। यदि सरकार सभी पहलुओं पर विचार करने के बाद ऐसा कोई फैसला लेती तो शायद उसे राजनीतिक दलों के इतने तीखे विरोध का सामना नहीं करना पड़ता और खुदरा व्यापारियों एवं किसानों की आशंकाएं भी कुछ हद तक दूर हो जातीं। ऐसा लगता है कि चौतरफा घिरी सरकार ने जल्दबाजी में एक ऐसा फैसला लिया, जिसे आर्थिक रूप से सही ठहराया जा सके। आर्थिक फैसलों में राजनीति नहीं की जानी चाहिए, लेकिन उनके संदर्भ में सामाजिक पहलुओं की अनदेखी भी ठीक नहीं। देखना यह है कि सरकार के रणनीतिकार इस फैसले से उपजे संकट का सामना किस तरह करते हैं और सरकार को उसके कार्यकाल के खराब दौर से निकाल पाते हैं या नहीं?


इस आलेख के लेखक संजय गुप्त हैं


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