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आर्थिक सुधारों की दिशा में कुछ महत्वपूर्ण फैसले लेने के बाद संप्रग सरकार को उच्चतम न्यायालय की इस राय ने भी काफी राहत दी है कि प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन का एकमात्र रास्ता नीलामी नहीं है। यह राहत इसलिए कहीं अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि अपने दूसरे कार्यकाल में उसे भ्रष्टाचार के जिन बड़े मामलों का सामना करना पड़ा उनमें प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन में हुई गड़बड़ी ने उसकी छवि को सबसे अधिक क्षति पहुंचाई। एक ओर जहां भ्रष्टाचार के मामलों ने सरकार की साख को रसातल में पहुंचा दिया वहीं राजनीतिक दबाव के कारण महत्वपूर्ण फैसलों में हो रही देरी के कारण आर्थिक विकास ठप होने की नौबत आ गई। कुल मिलाकर देश में निराशा का ऐसा वातावरण बनता जा रहा था जिससे भविष्य को लेकर चिंताएं गहराने लगी थीं। फिलहाल यह तो नहीं कहा जा सकता कि 2जी स्पेक्ट्रम और कोयला खदानों के आवंटन में कहीं कोई गड़बड़ी नहीं हुई, लेकिन उच्चतम न्यायालय के फैसले ने सरकार के नीति-नियंताओं को यह कहने का अवसर अवश्य दे दिया है कि प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन की उनकी नीति सही थी और नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी कैग की ओर से संभावित हानि का जो आकलन बताया जा रहा है वह सही नहीं।
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एक तरह से उच्चतम न्यायालय की यह राय केंद्र सरकार की नैतिक जीत है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन के लिए पहले आओ पहले पाओ की नीति न केवल अपारदर्शी है, बल्कि वह घपले-घोटालों की गुंजाइश भी प्रदान करती है। भले ही केंद्रीय मंत्री-कपिल सिब्बल, सलमान खुर्शीद और पी. चिदंबरम यह दावा कर रहे हों कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले से यह साफ हो गया कि सरकार ने जो किया वह सही था और कैग को सरकार की नीतियों के आधार पर लाभ-हानि के आकलन से दूर रहना चाहिए, लेकिन वे ऐसा कोई दावा करने की स्थिति में नहीं कि 2जी स्पेक्ट्रम और कोयला खदानों के आवंटन में कोई घोटाला नहीं हुआ। सच्चाई यह है कि 2जी स्पेक्ट्रम के आवंटन में भी गड़बड़ी हुई और कोयला खदानों के आवंटन में भी। इसका प्रमाण है 2जी स्पेक्ट्रम के आवंटन से संबंधित सभी लाइसेंसों का रद किया जाना और अनुचित तरीके से कोयला खदानें प्राप्त करने वाली कंपनियों पर हो रही कार्रवाई। पता नहीं इन दोनों घोटालों का पूरा सच कभी सामने आ सकेगा या नहीं? केंद्र सरकार के लिए एक राहत की बात यह भी है कि उसे तृणमूल कांग्रेस के दबाव से मुक्ति मिल गई। डीजल के मूल्य में वृद्धि और सब्सिडी वाले घरेलू रसोई गैस सिलेंडरों की संख्या सीमित करने के साथ-साथ रिटेल कारोबार में विदेशी निवेश को मंजूरी देने के फैसलों के विरोध में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने केंद्र सरकार से समर्थन वापस ले लिया, लेकिन सपा और बसपा ने सरकार की मुश्किल आसान कर दी है।
तृणमूल कांग्रेस के अलग होने के बाद जैसी परिस्थितियां बनीं उन्होंने एक तरह से सरकार के लिए संजीवनी का काम किया है। जहां तक भाजपा का प्रश्न है तो उसने अपनी राष्ट्रीय परिषद की बैठक में रिटेल में एफडीआइ का विरोध किया और भ्रष्टाचार के कारण सरकार को कठघरे में भी खड़ा किया, लेकिन फिलहाल वह ऐसी स्थिति में नजर नहीं आ रही कि सरकार की स्थिरता के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न कर सके। इस समय तो भाजपा अपने सहयोगी दलों के प्रति भी इसे लेकर आश्वस्त नहीं है कि वे सरकार गिराने में उसकी मदद करेंगे। स्पष्ट है कि संप्रग सरकार के लिए जो राजनीतिक मुश्किलें खड़ी होती दिखाई दे रही थीं वे अब एक हद तक समाप्त होती जा रही हैं और इसका सीधा असर शेयर बाजार पर भी नजर आ रहा है। यह उल्लेखनीय है कि जो केंद्र सरकार आर्थिक सुधारों की दिशा में हाथ पर हाथ धरे बैठे नजर आ रही थी वह अब कुछ आगे बढ़ती हुई दिखाई दे रही है। कारण कुछ भी हो, लेकिन जब से प्रणब मुखर्जी के स्थान पर पी. चिदंबरम फिर से वित्त मंत्री बने हैं तब से एक ऐसे माहौल का निर्माण हुआ है जिससे यह प्रतीत हो रहा है कि सरकार ऐसे नीतिगत फैसले लेने की इच्छुक है जिससे देश की अर्थव्यवस्था वापस पटरी पर आ सके। वैसे अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के काम में सफलता तब मिलेगी जब राजकोषीय घाटे को कम किया जा सके।
राजकोषीय घाटे को नियंत्रित करने के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है। हो सकता है कि कुछ आर्थिक फैसले आम जनता को कड़े प्रतीत हों और मूल्यवृद्धि के रूप में उसे उनकी कुछ मार भी झेलनी पड़े, लेकिन उसे यह हमेशा याद रखना चाहिए कि असली फायदा तभी है जब उसे सब्सिडी के सहारे अपना जीवन न बिताना पड़े। आम जनता का हित तो तभी है जब पर्याप्त संख्या में रोजगार के अवसर उपलब्ध हों। रोजगार तभी उपलब्ध होंगे जब उद्योगीकरण होगा और उद्योगीकरण तभी संभव है जब ब्याज दरें कम होंगी। ब्याज दरें कम होने के लिए आवश्यक है कि राजकोषीय घाटा नियंत्रण में आए। सब्सिडी राजकोषीय घाटे की सबसे बड़ी वजह है और इससे भी अधिक निराशाजनक यह है कि भ्रष्टाचार के कारण इस रियायत का लाभ पात्र व्यक्तियों तक सही तरह नहीं पहुंच पाता। पिछले कई वर्षो से यह चर्चा चल रही है कि सब्सिडी को नियंत्रित करने के साथ उसके वितरण की प्रक्रिया में सुधार हो, लेकिन इस दिशा में कोई प्रगति नहीं हो सकी। अब केंद्र सरकार सब्सिडी की राशि सीधे पात्र व्यक्तियों के खाते तक पहुंचाने की व्यवस्था पर अमल करने के संकेत दे रही है, लेकिन देखना यह है कि उसे इस काम में कितनी सफलता मिलती है? अगर वाकई ऐसा हो सके तो यह गरीबों के भी हित में होगा और देश के भी। यह भी संभव है कि अभी विभिन्न मदों पर दी जाने वाली सब्सिडी में लगभग डेढ़ लाख करोड़ रुपये की जो धनराशि खर्च हो रही है उससे कहीं कम में निर्धन तबके को राहत पहुंचाई जा सके।
फिलहाल जो सब्सिडी दी जा रही है उसका एक बड़ा हिस्सा लचर व्यवस्था के कारण भ्रष्ट तत्वों की जेब में पहुंच जाता है। आर्थिक मोर्चे पर केंद्र सरकार की सक्रियता का सिलसिला कायम रहना चाहिए, विशेषकर अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए विभिन्न समितियों की ओर से जो सुझाव दिए जा रहे हैं उन पर यथाशीघ्र अमल होना चाहिए। यह शुभ संकेत नहीं कि विगत दिवस केलकर समिति ने सब्सिडी घटाने, कर ढांचे को सुधारने के संबंध में जो सिफारिशें दीं उनके प्रति सरकार का रवैया सकारात्मक नहीं है। केंद्र सरकार के लिए यह संतोष की बात है कि उसे आर्थिक फैसलों में अब तृणमूल कांग्रेस के दबाव का सामना नहीं करना पड़ेगा और भाजपा समेत अन्य विपक्षी दलों की स्थिति भी कोई बहुत अच्छी नहीं। इन स्थितियों में उसके पास आर्थिक सुधार के लंबित एजेंडे को आगे बढ़ाने का एक आदर्श अवसर है। देखना यह है कि वह अपने शेष कार्यकाल में इस अवसर का लाभ उठा पाती है या नहीं?
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लेखक संजय गुप्त
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