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राजनीति की खतरनाक राह

संपादकीय ब्लॉग
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छठे दशक के अंत में उपद्रव के दौरान पश्चिम बंगाल का कभी खत्म न होने वाला पतन का दौर शुरू हो गया था। तब सत्ताधारी वर्ग में रचनात्मक सोच रखने वालों ने दो पहलुओं पर माथापच्ची शुरू कर दी थी। इनमें से अधिक दूरदर्शी लोगों ने तो अपना बोरिया बिस्तर समेटा और उस नरक से बाहर निकल लिए। शेष ने खुद को ऐसे आत्मघाती जड़ उद्यम में डुबो लिया जिसकी कोई मंजिल नहीं थी। लंबे समय से कोलकाता की ढहती दीवारों पर विचारधारात्मक संघर्ष चलता रहा, जो आधुनिकीकरण के पुनर्जीवन के लिए तड़प रहा था। उन दिनों का चित्रण मौलिक, विविध और हास्य का पुट लिए हुए होता था। माकपा की पैरोडी करने वाला द्विजेंद्रलाल रॉय का नाटक चंद्रगुप्त मुझे खासतौर पर अब तक याद है। सिंधु नदी की ओर तकते हुए विश्व विजेता सिकंदर ने अपने जनरल सैल्युकस से उसके भारत के प्रति लगाव का इजहार किया, ‘सैल्युकस यह कितनी दिलचस्प जगह है! दिन में वे नक्सली हैं और रात को कांग्रेसी!’

1967 में नक्सलियों का जन्म माकपा के भ्रूण से हुआ, किंतु इस असहज सच्चाई ने भी ज्योति बसु, प्रमोद दासगुप्ता और हरे कृष्णा कोनार को अपनी संतति को क्रांति के औजार के रूप में इस्तेमाल करने से नहीं रोका। यह अवधारणा पूरी तरह निराधार नहीं थी। अब यह बिल्कुल साफ हो गया है कि इंदिरा गांधी और सिद्धार्थ शंकर रे ने शहरी गुरिल्लाओं के इस हथकंडे को ‘श्वेत आतंक’ के लिए इस्तेमाल किया, जिसने माओवादियों के खात्मे के साथ-साथ 1971 से 1977 तक माकपा को निष्क्रिय कर दिया। माओ त्से दुंग की उक्ति, ‘लाल झंडे पर हमला करने के लिए लाल झंडे को फहराना जरूरी है’ को पश्चिम बंगाल में सफलतापूर्वक प्रयोग किया गया, यद्यपि प्रदेश को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी।


ममता बनर्जी कांग्रेस में तब सक्रिय हुईं, जब नक्सलवादी बिखर गए थे और माकपा शीतनिंद्रा में चली गई थी। यह सही जान पड़ता है कि छह साल पहले उन्होंने अपने राजनीतिक परामर्शदाताओं से यह जान लिया कि राज्य में कांग्रेस फिर से मजबूत हो सकती है। लंबे समय से और शक्तिशाली माकपा के खिलाफ अपने एकल युद्ध के दौरान ममता युद्ध के मात्र एक पक्ष-सड़कों पर संघर्ष और प्रदर्शन से संतुष्ट रहीं। वह माकपा का प्रतिरोध करने वाली सबसे प्रबल शक्ति बन गईं। बाद में ममता बनर्जी ने इस पहलू में एक नया आयाम जोड़ा-राजनीतिक कूटनीति। इटली के महान कम्युनिस्ट एनतोनियो ग्राम्सी की अलंकारिक भाषा में थोड़ा-सा बदलाव करते हुए उन्होंने इसे ‘दांवपेंच के युद्ध’ के स्थान पर ‘संघर्षपूर्ण युद्ध’ में बदल दिया।

पिछले सप्ताह लालगढ़ में ममता बनर्जी द्वारा आयोजित ‘गैरराजनीतिक’ रैली में पश्चिमी मिदनापुर के माओवादियों की सक्रियता पर संसद में काफी बवाल मचा। प्रतिबंधित भाकपा के प्रति उनके हमदर्दी भरे बयान और माओवादी नेता आजाद की पुलिस मुठभेड़ में मौत के संबंध में उनकी गलत व्याख्या पर राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष अरुण जेटली ने कहा कि इससे सामूहिक जिम्मेदारी के सिद्धांत का उल्लंघन हुआ है और माओवादियों के प्रति सरकार की नीति को लेकर असहमति साफ झलक रही है। इस असंबद्धता को लेकर संप्रग सरकार को भारी फजीहत झेलनी पड़ी। इससे स्थिति और बिगड़ गई कि पटरी उखाड़कर रेल हादसे के जिम्मेदार कम से कम दो माओवादियों ने भी इस रैली में भाग लिया।


विडंबना यह है कि इस हमले से जहां कांग्रेस की भारी फजीहत हुई, वहीं ममता बनर्जी को राजनीतिक लाभ मिला। माओवादियों और उनके संगठन के साथ आत्मीयता प्रदर्शित करने में तृणमूल कांग्रेस की सूझबूझ और दूरदर्शिता झलक रही है। माकपा की दबंगई के खिलाफ माओवादी अभियान को अपना समर्थन देकर ममता ने पश्चिम बंगाल के वामपंथी उदार बुद्धिजीवी तबके में अपनी पैठ बना ली है। यह तबका उस वर्ग की छाया मात्र है जिसने आजादी के शुरू के तीन दशकों में बंगाली जीवन पर दबदबा बनाए रखा और इसे विकृत किया। साहित्यकारों, कलाकारों और फिल्मकारों के इस वर्ग की आज के बंगाल में अधिक प्रासंगिकता नहीं है। फिर भी, वामपंथ के पीछे चलने वाले इस वर्ग के ममता कैंप में शामिल होने पर वह प्रक्रिया जरूर शुरू हुई है जो वृहत्तर प्रक्रिया की सूचक है। ममता बनर्जी इस प्रक्रिया को प्रोत्साहन देने की इच्छुक रही हैं।


1977 के बाद से वाम मोर्चे के प्रभुत्व का एक कारण यह है कि इसने इतने बड़ी छतरी का निर्माण किया जिसके नीचे भाजपा को छोड़कर अन्य तमाम गैर-कांग्रेसी प्रवृत्तियों को स्थान मिल गया। इसके समानांतर वाम मोर्चा वाम विरोधी शक्तियों को विभाजित रखने की नीति पर सफलतापूर्वक चला। माकपा की सबसे बड़ी सफलता यह थी कि यह 1996 में ममता बनर्जी को कांग्रेस से अलग करवाने और इसके बाद भाजपा के पाले में भेजने में सफल रही। परिणामस्वरूप ममता बनर्जी से मुस्लिम वोट छिटक गए। इन दो घटनाक्रमों से यह सुनिश्चित हो जाता है कि वाम विरोधी विभाजन के परिणामस्वरूप एकीकृत वाममोर्चे को चुनाव में शिकस्त नहीं दी जा सकती। आज ममता बनर्जी ने दो महत्वपूर्ण वाम विरोधी दलों का साथ जुटा कर मुस्लिम वोटों पर पकड़ बना ली है। ममता के इन तौर-तरीकों से कांग्रेस खुश नहीं है, जिसके अनेक नेता माकपा के साथ शांति संधि करते रहते हैं। जैसाकि इस साल नगरपालिका चुनाव से सिद्ध हो गया है, ममता के साथ गठबंधन तोड़ने का विकल्प राजनीतिक भूल होगी।

माओवादी एक और प्रकार से ममता के लिए महत्वपूर्ण हैं। पश्चिम मिदनापुर, पुरुलिया और बांकुरा जैसे जिन जिलों में माओवादियों का प्रभाव सबसे अधिक है, उन इलाकों में तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस का प्रभाव नगण्य है। माकपा को उसके मजबूत गढ़ों से उखाड़ फेंकने के लिए माओवादियों का इस्तेमाल करके ममता बनर्जी सत्तारूढ़ गठबंधन पर अपना दबाव बढ़ा रही हैं। फिर भी, माओवादियों के साथ गठबंधन बेहद खतरनाक है और इसकी आग में ममता बनर्जी के हाथ भी जल सकते हैं। नेपाल के बहुत से राजनेता इस बात की आसानी से पुष्टि कर सकते हैं। कानून हाथ में लेने वालों के साथ ममता बनर्जी की बनावटी समझ तभी तक अच्छी है जब तक माकपा को सत्ता से बेदखल नहीं कर दिया जाता। इसके बाद उन्हें फिर उसी सिद्धांत की शरण में जाना पड़ेगा, जिस पर उन्होंने अपने शुरुआती राजनीतिक जीवन में अमल किया था। किंतु क्या तब तक माओवादी अपना आधार मजबूत कर चुके होंगे? क्या ममता बनर्जी फिर से संवैधानिक राजनीति में यकीन न रखने वाले अपने नवीनतम सहयोगी के खात्मे के सिद्धार्थ शंकर रे की नीति पर चलेंगी? लगता है बुद्धदेब भट्टाचार्य के विपक्ष की बेंचों पर बैठने के बाद भी पश्चिम बंगाल में हिंसा से मुठभेड़ जारी रहेगी।

Source: Jagran Yahoo

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