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गौरव का एक और दिन

संपादकीय ब्लॉग
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Sanjay Guptसंसदीय प्रणाली की हीरक जयंती को संसद के लिए आत्ममंथन के अवसर के रूप में भी देख रहे हैं संजय गुप्त


संप्रभु भारत की संसद की पहली बैठक की आज हीरक जयंती है। साठ वर्ष पहले जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व वाली पहली सरकार ने 13 मई 1952 को संसद की पहली बैठक के जरिये जिस संसदीय परंपरा की शुरुआत की वह अनेक उतार-चढ़ाव के बावजूद लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए एक आदर्श बनी हुई है। देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने संसद की पहली बैठक को संबोधित करते हुए समस्याओं का उल्लेख करते हुए संसदीय प्रणाली के जरिये उनका निदान करने का भरोसा जताया था। उनका यह विश्वास सही साबित हुआ है। संसद की कार्यवाही आज भी उतनी महत्वपूर्ण है जितनी अपनी पहली बैठक के समय थी। यह बात अलग है कि समय के साथ संसदीय कार्यवाही के स्तर और गरिमा में गिरावट महसूस की जा रही है। संसदीय बैठकों का समय लगातार कम होता जा रहा है। 1952 में लोकसभा की जहां 103 बैठकें हुई थीं वहीं 2011 में यह संख्या घटकर 73 रह गई। यह स्थिति तब है जब देश के सामने चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं। पहले जहां प्रत्येक विधेयक पर संसद में पूरी बहस होती थी वहीं अब संसद में विधेयक पारित होने से पहले उसे स्थायी समितियों के हवाले कर देने का नया चलन आरंभ हो गया है। इसके चलते विधेयकों पर चर्चा और उन्हें पारित करने के दौरान होने वाली बहसों ने एक प्रकार की औपचारिकता का रूप ले लिया है। संसद की बैठकों में सार्थक बहस का लंबा इतिहास रहा है।


जवाहर लाल नेहरू के समय से राममनोहर लोहिया, मधु लिमये, पीलू मोदी, एनसी बनर्जी, अटल बिहारी वाजपेयी, जॉर्ज फनरंडीज, सोमनाथ चटर्जी सरीखे अनगिनत राजनेताओं ने संसदीय बहस और बैठकों को नया आयाम दिया। उनके एक-एक शब्द को न केवल ध्यान से सुना जाता था, बल्कि उनके आधार पर पक्ष-विपक्ष के नेता अपना मत बदलने के लिए भी मजबूर होते थे। ओजस्वी भाषण देने की यह कला धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है और अब संसद की बैठकें ज्यादातर शोर-शराबे और हंगामे के लिए अधिक जानी जाती हैं। पिछले कुछ वर्षो में तो स्थिति इतनी अधिक खराब हो गई है कि किसी मुद्दे पर सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच गतिरोध के कारण संसद का पूरा सत्र भी हंगामे की भेंट चढ़ जाता है। आदर्श रूप से संसद के अंदर किसी विधेयक अथवा राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर गंभीर बहस होनी चाहिए और सदस्यों को अपने विवेक के आधार पर उसे पारित करने अथवा खारिज करने का निर्णय लेना चाहिए, लेकिन अब दलगत हितों को सर्वोपरि मानने के कारण सार्थक बहस की गुंजाइश ही खत्म हो गई है। इस प्रवृत्ति के कारण ही संसदीय बहस का महत्व घटता जा रहा है, क्योंकि किसी मुद्दे पर चर्चा आरंभ होते ही यह पहले से पता चल जाता है कि इस बहस का क्या नतीजा होने वाला है? इन स्थितियों में तो संसदीय बहस के औचित्य पर ही सवाल खड़े होने लगे हैं। यह ठीक नहीं कि दलीय हितों के आधार पर राजनीतिक दल पहले से यह तय कर लें कि उन्हें किस मुद्दे पर क्या रुख अपनाना है? संसद में बहस का स्तर भले ही गिरता जा रहा हो, लेकिन पक्ष-विपक्ष के दलों को यह अवश्य पता है कि संसद में जोरदार तरीके से अपनी बात कहकर आम जनता को यह आभास करा सकते हैं कि वे उसके हितों को लेकर गंभीर हैं। अपनी इस कोशिश में वे विरोधी राजनीतिक दलों को नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ते।


भले ही राजनीतिक दल इसे लोकतांत्रिक प्रणाली का हिस्सा मानें, लेकिन उन्हें इस पर विचार करना चाहिए कि क्या संसद का इस्तेमाल केवल एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए किया जाना चाहिए? आज यह किसी से छिपा नहीं कि छोटे-छोटे मुद्दों को लेकर संसद एक तरह से ठप हो जाती है। इस तरह संसद का बहुमूल्य समय तो नष्ट होता ही है, आम जनता यह सोचने के लिए विवश हो जाती है कि जिन्हें उसने अपने प्रतिनिधि के रूप में चुनकर भेजा है वे देश की समस्याओं के प्रति गंभीर हैं ही नहीं। संसद के साठ वर्ष पूरे होने के अवसर पर इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कुछ ही समय पहले लोकपाल विधेयक के संदर्भ में संसद के दोनों सदनों में किस तरह की बहस हुई थी? लोकपाल विधेयक पारित करने के लिए अन्ना हजारे के नेतृत्व में हुए आंदोलन के दबाव में संसद भ्रष्टाचार के खिलाफ सशक्त कानून बनाने पर सहमत तो हुई, लेकिन पक्ष-विपक्ष के सदस्यों के मतभेदों के कारण यह कवायद अधर में ही लटकी रही। संसद के दोनों सदनों में इस मुद्दे पर लंबी चर्चा हुई और सभी वक्ताओं ने भ्रष्टाचार के खिलाफ सशक्त कानून की आवश्यकता पर बल भी दिया, लेकिन राज्यसभा से यह बिल पारित नहीं हो सका। इस घटना से आम जनता के मन में घर कर गई यह धारणा ही मजबूत हुई कि राजनीतिक दलों की कथनी और करनी में भारी भेद है। लोकपाल विधेयक ने न केवल संसदीय प्रणाली की पोल खोलकर रख दी, बल्कि संसद के समक्ष यह सवाल भी खड़ा कर दिया कि क्या संसदीय बहस और बैठकों का कोई महत्व रह पाएगा या नहीं? सूचना क्रांति के इस युग में मीडिया के माध्यम से आम जनता को न केवल सूचनाएं जल्दी मिल जाती हैं, बल्कि उन पर बहस भी आरंभ हो जाती है। ऐसे में संसद में एक-डेढ़ महीने बाद उसी मुद्दे पर जब चर्चा होती है तो उसका कोई विशेष महत्व नहीं रह जाता।


चूंकि हम एक लोकतांत्रिक देश हैं इसलिए संसद में ज्वलंत मुद्दों का उठना स्वाभाविक ही है और यह हमारी संसदीय व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण पहलू भी है, लेकिन बदले माहौल में खुद संसद को अपनी उपयोगिता पर नए सिरे से विचार करना चाहिए। संसदीय प्रणाली के साठ वर्ष पूरे होने पर संसद के विशेष सत्र में अनेक बातें होंगी, लेकिन देखना यह होगा कि इनसे देश की समस्याओं के समाधान की कोई राह निकलती है या नहीं? संसदीय कार्यप्रणाली में जिस तरह गठबंधन राजनीति हावी होती जा रही है वह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, क्योंकि यह राजनीति देश पर भारी पड़ती नजर आ रही है। इसके अतिरिक्त जैसे सांसद चुने जा रहे हैं और जिस तरह चुने जा रहे हैं उस पर भी आत्ममंथन की आवश्यकता है। दरअसल वोट बैंक की राजनीति ने हमारी निर्वाचन प्रणाली में अनेक विकृतियों को जन्म दिया है। वोट बैंक के समीकरणों का सहारा लेने वाले प्रत्याशियों का निर्वाचन आसान हो गया है। क्या यह उचित नहीं होगा कि संसदीय प्रणाली की हीरक जयंती मनाते हुए सांसद चुनाव सुधारों और राजनीतिक सुधारों को आगे बढ़ाने का संकल्प भी लें और उस पर अमल की शुरुआत भी करें? ऐसा करके ही इस ऐतिहासिक अवसर को यादगार बनाया जा सकता है।


इस आलेख के लेखक संजय गुप्त हैं


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