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बिल क्लिंटन और जार्ज बुश के समय भारत और अमेरिका के बीच जिस दोस्ती की शुरुआत हुई थी उसे बराक ओबामा ने अपनी यात्रा से और अधिक घनिष्ठता व मधुरता में बदल दिया है। अमेरिका अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत के साथ मिलकर काम करना चाहता है, फिर चाहे वह आतंकवाद का मुद्दा हो, मंदी से निपटने का मामला हो अथवा रक्षा व सामरिक रणनीति का सवाल हो। इसकी प्रतिध्वनि संसद के संयुक्त सत्र में ओबामा के भाषण से भी साबित होती है, जिसमें उन्होंने सीमापार आतंकवाद की चर्चा की और पाकिस्तान में चलाए जा रहे आतंकी शिविरों को बंद किए जाने की वकालत की। मैं नहीं समझता कि इससे कड़ा और कोई संदेश पाकिस्तान के लिए वह भारत में दे सकते थे। जहां तक संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद स्थायी सीट के लिए भारतीय दावेदारी को समर्थन देने की बात है तो निश्चित ही यह एक बड़ी उपलब्धि है, लेकिन यहां ध्यान देना होगा कि सिर्फ उनके भाषण में इसका जिक्र किए जाने भर से हमें खुश नहीं हो जाना चाहिए। सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता पाने के लिए संयुक्त राष्ट्र के ढांचे में सुधार करने की जरूरत होगी।
इतना अवश्य है कि अब भारत इसके लिए अधिक तेजी से सक्रिय हो सकता है और अमेरिका के साथ बाकी देशों से भी इसके लिए समर्थन जुटाना कुछ आसान होगा। ओबामा द्वारा संसद में जो कुछ कहा गया उससे साफ है कि ओबामा की यात्रा और उनके द्वारा दिए जा रहे बयान केवल बातों के स्तर पर नहीं, बल्कि यथार्थ के ठोस धरातल पर आधारित हैं। हालांकि ओबामा की यात्रा को अभी भी कुछ लोग एक सौदागर की यात्रा कह रहे हैं। इस तर्क से सहमत होना इसलिए मुश्किल है कि, क्योंकि ऐसा करके हम ओबामा की यात्रा को एक सीमित दायरे तक समेट देंगे। मंदी की मार झेल रहे अमेरिका को आज भारत जैसे दोस्त की जरूरत है और हमें उसकी मदद करनी भी चाहिए।
अमेरिका जानता है कि आज के अंतरराष्ट्रीय हालात में भारत की आर्थिक-सामरिक भूमिका महत्वपूर्ण है और उसे भारत का साथ चाहिए, लेकिन वह ऐसा अमेरिकी हितों के आधार पर नहीं कर सकता। संरक्षणवादी नीति को लेकर अमेरिकी रवैये की जहां तक बात है तो हमें समझना होगा कि बराक ओबामा ने इसे अपने राष्ट्रपति चुनाव का मुद्दा बनाया था, इस कारण इस नीति से फिलहाल वह नहीं हटने वाले। यही कारण है कि इस पर प्रश्न पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि वह अमेरिका जाकर अमेरिकनों को बताएंगे कि जब भारत से नौकरियों को बढ़ाने के लिए मदद मिल रही है तो हमें भी इस नीति में बदलाव के लिए पुनर्विचार करना चाहिए। ओबामा की तरफ से इससे ज्यादा की अपेक्षा की भी नहीं जा सकती? निश्चित रूप से ओबामा ने भारत के प्रति उदार रवैये का परिचय दिया है। वीजा के मुद्दे पर भी ओबामा ने भारत को आश्वस्त किया है कि वह भारतीयों को अमेरिका आने से रोकना नहीं चाहते और इस मुद्दे पर वह विचार करेंगे ताकि भारतीय प्रतिभाओं का लाभ अमेरिका को सतत रूप से मिलता रहे। जहां तक आतंकवाद के मुद्दे पर ओबामा द्वारा पाकिस्तान के प्रति नरम रवैये का प्रश्न है तो मेरा मानना है कि हमारी यह अपेक्षा ही गलत है कि अमेरिका पाक को बुरा-भला कहे। अमेरिका ने हमेशा की तरह इस बार भी यही दोहराया कि दोनों देशों के बीच अमेरिका समाधान थोप नहीं सकता। हां, यदि उसे बुलाया जाता है तो वह सहयोग के लिए सदैव तैयार रहेगा। इसी तरह भारतीय प्रधानमंत्री ने भी उनकी उपस्थिति में साफ कहा कि पाकिस्तान के साथ आतंक और वार्ता साथ-साथ नहीं चलाया जा सकता। यदि हम यथार्थ के धरातल पर देखें तो ओबामा के नेतृत्व में अमेरिकी प्रशासन ने आतंकवाद के खिलाफ जो कुछ भी हो सकता है वह किया है।
क्या यह सच नहीं है कि पाकिस्तान में जैश-ए-मोहम्मद और लश्करे तैयबा जैसे आतंकवादी संगठनों को अमेरिका ने प्रतिबंधित किया? ओबामा ने आतंकवाद के खिलाफ रुख कड़ा करते हुए कहा है कि पाकिस्तान में आतंकवादियों को प्रशिक्षण देने वाले आतंकी शिविरों को स्वीकार नहीं किया जा सकता और सीमापार आतंकवाद बंद किया जाए। उन्होंने मुंबई में 26/11 के आतंकवादी हमले के दोषियों को सजा देने की बात भी साफ-साफ कही। जहां तक अफगानिस्तान में भारत की भूमिका को लेकर अमेरिकी रुख का सवाल है तो ओबामा ने स्वीकार किया है कि अफगानिस्तान में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका है, जो फिलहाल सामाजिक-आर्थिक रूप में अधिक है। इस तरह से अमेरिका ने भारत की दक्षिण एशिया में सशक्त भूमिका को स्वीकार करके अंतरराष्ट्रीय जगत को भी एक संदेश देने का काम किया है।
रक्षा और अंतरिक्ष के क्षेत्र में अमेरिका ने भारत के साथ अपने रिश्तों को और अधिक मजबूत करने के लिए कदम उठाए हैं। इसके लिए दोहरे उपयोग की तकनीक से रोक हटाने, न्यूक्लियर सप्लायर्स समूह में भारत की सदस्यता के लिए अमेरिका ने हामी भरी है, जो काफी महत्वपूर्ण है। इससे हमारे अंतरिक्ष अभियानों को मजबूती मिलेगी और भारत लंबी दूरी की मिसाइल बनाने में अधिक सक्षम बनेगा। इससे दक्षिण एशिया में भारत सामरिक तौर पर अधिक मजबूत होगा। दरअसल इसके माध्यम से अमेरिका चीन की भी घेरेबंदी करना चाह रहा है। इसके अलावा परमाणु ऊर्जा और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में दोनों देशों ने एक-दूसरे का सहयोग करने की बात कही है। कृषि, दवा और मौसम संबंधी तकनीकों के आदान-प्रदान से भी भारत को काफी लाभ मिलेगा। परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में दोनों देशों के बीच जो सहमति बनी है वह आने वाले समय में एक नया इतिहास रचेंगे।
Source: Jagran Yahoo
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