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सीमित महत्व की सफलता : भारत-चीन संबंध

संपादकीय ब्लॉग
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चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ की यात्रा को लेकर कोई बहुत ज्यादा उत्साह नहीं था और नतीजा भी ठीक वैसा ही रहा। दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों की इस औपचारिक मुलाकात से कुछ लोग यह उम्मीद कर रहे थे कि शायद कुछ मसलों पर दोनों देश आगे बढ़ने के लिए तैयार हो जाएं, लेकिन लगता है कि चीन फिलहाल भारत से राजनीतिक रिश्ते सुधारने के लिए तैयार नहीं है। इसका प्रमाण इससे मिल जाता है कि दोनों देशों के बीच साझा तौर पर जारी हुए बयान में भारत और चीन के बीच तनाव कम करने के लिए कोई सहमति नहीं दिखी। वेन जियाबाओ की यात्रा से उम्मीद की जा रही थी कि दोनों देशों के बीच सीमा विवाद के मुद्दे पर कुछ कदम आगे बढ़ने की बात होगी और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी दावेदारी के लिए चीन की तरफ से समर्थन तो नहीं, लेकिन संकेत मिल सकता है। इसी तरह मुंबई हमले, पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद का भी मसला था, जिस पर आशा के अनुरूप चीन ने मौन रखना बेहतर समझा। इससे यही साबित होता है कि चीन अपनी पहले की नीति पर ही कायम रहेगा और एशिया क्षेत्र में अपनी प्रभुता कायम करने व भारत को कमजोर करने की नीति पर चलता रहेगा। इससे भारत और चीन के नजदीक आने के कयासों पर भी विराम लग गया है और दोनों देशों के बीच प्रतिद्वंद्विता जारी रहने को भी बल मिला है।


जियाबाओ ने एक चालाक राजनेता का परिचय देते हुए उन सभी मुद्दों से कन्नी काट ली जहां वह कुछ सकारात्मक रुख दिखा सकते थे। सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता के लिए अभी तक लग रहा था कि शायद चीन इसके लिए तैयार हो जाए, लेकिन चीन के प्रधानमंत्री ने संयुक्त राष्ट्र में सुधार किए जाने और इसके विस्तारीकरण के लिए जोर देना बेहतर समझा। इससे चीन की यह मंशा समझी जा सकती है कि वह भारत की बजाय अपने मित्र देश की तरफदारी और सहयोग करना चाहता है। यह भारत के लिए एक नकारात्मक बात है। चीन ने इतना अवश्य कहा है कि वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की बड़ी भूमिका निभाने की आकांक्षा को समझता है और उसे समर्थन देता है, लेकिन यह शब्दों का एक जाल है, जिससे उसकी वास्तविक मंशा समझी जा सकती है। नत्थी वीजा मसले को हल करने के लिए चीन ने अवश्य सकारात्मक संकेत दिया है और भविष्य में यह मामला हल हो जाएगा, लेकिन इसका कोई ज्यादा महत्व नहीं है। आतंकवाद के मसले पर भी चीन ने भारत के साथ मिलकर लड़ाई लड़ने का वायदा किया है और आतंकवादी संगठनों के आर्थिक स्रोतों को नष्ट किए जाने की बात की है, लेकिन यह भी उसका दोहरा आचरण ही है, क्योंकि आतंकवाद के मुख्य केंद्र पाकिस्तान की भूमिका के बारे में उसने कुछ भी कहने से इंकार किया है।


कश्मीर मुद्दे पर चीन द्वारा मध्यस्थता से इनकार किए जाने की जहां तक बात है तो इसकी वजह भारत द्वारा किसी भी देश के हस्तक्षेप को अस्वीकार करना है। इसलिए इस मुद्दे पर यह समझना कि चीन हमारी तरफदारी कर रहा है ठीक नहीं होगा। हां, इतना अवश्य है कि चीन ने संयुक्त राष्ट्र में आतंकवाद विरोधी प्रस्ताव का समर्थन करने की बात कही है। इस प्रस्ताव के पारित होने से प्रमुख आतंकवादी संगठनों-जमात-उद-दावा, लश्करे तैयबा समेत आतंकवादी हाफिज सईद पर कड़ी कार्रवाई संभव होगी, लेकिन यहां हमें ध्यान देना होगा कि इसका समर्थन चीन अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण कर रहा है, न कि भारत के हितों और परेशानियों को देखते हुए।


दोनों देशों के बीच कुल छह समझौते हुए हैं। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया और चीन के बैंकिंग नियमन आयोग तथा एक्जिम बैंक और चीन के विकास बैंक ने भी आपस में समझौते किए हैं। इसके अलावा एक महत्वपूर्ण समझौता जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने के लिए दोनों देशों ने हरित प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में परस्पर सहयोग करने के संदर्भ में किया है। चीन अब तिब्बत से प्रवाहित होने वाली नदियों के जलप्रवाह के आंकड़ों का आदान-प्रदान भारत के साथ करने के लिए तैयार हो गया है। यह एक महत्वपूर्ण समझौता है, लेकिन इसके लिए भारत को बांग्लादेश से भी बात करनी होगी। इन आंकड़ों के आदान-प्रदान से जलसमस्या के समाधान में महत्वपूर्ण मदद मिलेगी। चीन ने भारत के साथ सांस्कृतिक संपर्क को और बढ़ाने की इच्छा दिखाई है और मीडिया के मामलों पर आपसी रजामंदी हुई है। वर्ष 2015 तक दोनों देशों के बीच व्यापार बढ़कर 100 अरब डॉलर यानी तकरीबन 4400 अरब रुपये तक पहुंचाने का लक्ष्य तय किया गया है। अभी दोनों देशों के बीच कुल व्यापार लगभग 45 अरब डॉलर का है।


वास्तव में वेन जियाबाओ की यात्रा का मुख्य उद्देश्य दोनों देशों के बीच आर्थिक रिश्तों को एक नई ऊंचाई देना था, न कि राजनीतिक रिश्तों पर जमी बर्फ को पिघलाना। अपने इस उद्देश्य में वह कामयाब भी रहे, लेकिन भारत को इस यात्रा से कोई खास लाभ मिलता नहीं दिख रहा। आर्थिक रूप से भी चीन के साथ व्यापार से भारत को घाटा ही हो रहा है। चीन हमें अपने उत्पादों का ज्यादा निर्यात कर रहा है और वह भारतीय बाजार पर अपना कब्जा चाहता है। चीन भारत का साझेदार बनने की बात कह रहा है, पर उसकी साझेदारी अपने फायदे तक सीमित है। आखिर ऐसे रिश्ते से क्या फायदा जो दुश्मनी को कम करने के बजाय इंतजार करो की नीति पर आधारित है। चीन हमारे साथ सांस्कृतिक, शैक्षिक और व्यापारिक रिश्तों तक ही सीमित रहना चाहता और संवेदनशील द्विपक्षीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर दूरी रखना ही बेहतर मान रहा है।


[हरिकिशोर सिंह: लेखक पूर्व विदेश राज्य मंत्री है]

Source: Jagran Yahoo

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