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कूटनीतिक विफलता

संपादकीय ब्लॉग
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करीब 11 महीने हो गए हैं, भारत सरकार ने चीन के साथ सीमा विवाद सुलझाने की दिशा में कोई महत्वपूर्ण कदम नहीं उठाया है। मीडिया में चीनी घुसपैठ की खबरों के खिलाफ अनेक वरिष्ठ अधिकारियों के बयान आने के बाद इस संबंध में खबरें आनी करीब-करीब बंद हो गईं, किंतु इसका यह मतलब नहीं कि चीनी सीमा पर घुसपैठ बंद हो गई या इसमें कमी आ गई है। यह इसलिए हुआ क्योंकि सीमा विवाद पर भारतीय मीडिया को जानकारी मिलनी कम हो गई। वास्तविकता यह है कि इस बीच चीनी घुसपैठ की घटनाओं में वृद्धि ही हुई है।


चीन द्वारा सीमा के उल्लंघन पर भारत सरकार ने अपने ही मीडिया की जबान जिस तरह बंद की है, उससे चीन का खुश होना स्वाभाविक है। इससे संदेश जाता है कि विश्व की सबसे बड़ी तानाशाही के बढ़ते दबाव में विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र खुद अपने ही मीडिया का गला घोंट रहा है। जिस तरह भूटान में चीनी सेना ‘रास्ता भटक कर’ घुसती रही है, उसी तरह 2008 में 270 बार जनमुक्ति सेना भारतीय सीमा में भटक कर घुसी है। इसके बाद के पूरे साल के आंकड़ें उपलब्ध नहीं कराए गए हैं। इसके अलावा, 2008 में पीएलए ने 2285 बार सीमा पर आक्रामक अंदाज में पेट्रोलिंग की है। घुसपैठ और आक्रामक पेट्रोलिंग के चीन के रवैये में अब तक कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। सच्चाई यह है कि सीमा पर जारी तनाव भारत और चीन के बीच सामरिक कटुता की उपज है, जो प्रतिस्पर्धी राजनीतिक व सामाजिक विकास के मॉडल का प्रतिनिधित्व करता है। तिब्बत हिमालयी तनाव बढ़ने का केंद्र बिंदु बन गया है। चीन ने अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा ठोक रखा है। आकार में यह ताईवान से करीब तीन गुना बड़ा है। 4057 किलोमीटर लंबी भारत-चीन सीमा पर चीन दबाव बढ़ा रहा है।


जैसे-जैसे तिब्बत में चीनी शासन का विरोध बढ़ा है, बीजिंग ने इसे अपनी संप्रभुता का मूल मुद्दा बना लिया है। आज चीन की नीति में तिब्बत का उतना ही महत्व है, जितना कि ताईवान का। लगता है अरुणाचल प्रदेश पर ध्यान केंद्रित कर बीजिंग जाने-अनजाने एक और विवाद खड़ा करना चाहता है। चीन के अनुसार, अरुणाचल नया ताईवान है, जिसे चीनी राज्य में मिलना ही चाहिए। भारत-चीन संबंधों में तिब्बत हमेशा मूल मुद्दा रहा है। आखिरकार चीन भारत का पड़ोसी भूगोल के कारण नहीं, बल्कि बंदूक के बल पर बना है। 1951 में इसने अपनी सीमाओं का विस्तार तिब्बत तक कर लिया था। आज चीन उन पश्चिमी देशों के साथ कूटनीतिक संबंध तोड़ने तक के लिए तैयार है, जो दलाई लामा की मेहमानवाजी करते हैं। किंतु भारत इस तिब्बती नेता और उनकी निर्वासित सरकार की आधारभूमि बना हुआ है।


भारत के प्रति चीन की दबंगई 2005 से बढ़ी है, जब भारत-अमेरिका सामरिक संधियों का सिलसिला शुरू हुआ था। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जार्ज बुश ने घोषणा की थी कि हमने भारत के साथ नई ऐतिहासिक और सामरिक साझेदारी शुरू कर दी है। तब से ही चीनी सरकारी मीडिया ने माओ त्से तुंग के काल के समान भारत के खिलाफ जहर उगलना शुरू कर दिया है। टिप्पणीकारों ने भारत को 1962 के युद्ध के सबक न भूलने के लिए चेताया। 32 दिन के इस युद्ध में चीन ने भारत को करारी शिकस्त दी थी। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का मुखपत्र पीपल्स डेली पहले ही आरोप लगा चुका है कि भारत दूर वालों को दोस्त बना रहा है और करीबियों पर हमला कर रहा है। चीनी सेना के थिंक टैंक चाइना इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल स्ट्रेटेजिक स्टडीज ने भारत को चेतावनी दी थी कि उदारता को कमजोरी न समझे और 1962 के हालात का गलत आकलन न करे।


इस पृष्ठभूमि में, भारत के हित में यही है कि वह चीन सीमा के हालात बयां करने वाले आंकड़ों पर पहरे न बैठाए, ताकि तथ्य खुद बोलें। हाल के वर्र्षो में चीन ने हिमालयी सीमा पर चारों क्षेत्रों में दबाव बढ़ा दिया है। चीनी सीमा उत्तराखंड में भी घुसपैठ कर रही है, जबकि इस क्षेत्र में नियंत्रण रेखा संबंधी नक्शों की अदला-बदली के बाद 2001 में सीमा की पहचान सुनिश्चित कर ली गई थी। इसके अलावा सिक्किम में भी चीनी घुसपैठ जारी है, जिसकी तिब्बत से लगती 206 किलोमीटर लंबी सीमा पर कोई विवाद नहीं है और चीन भी इस सीमा को मान्यता प्रदान करता है। फिर भी, भारतीय अधिकारी कहते हैं कि वास्तविक रेखा को लेकर भ्रम के कारण ही यह घुसपैठ हो रही है। यह अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख के संबंध में तो सही हो सकता है किंतु उत्तराखंड और सिक्किम के संबंध में सही कैसे है, यह समझ से परे है। चीन इस प्रकार की बहानेबाजी नहीं कर रहा है और बिना लाग-लपेट के अपना दावा जता रहा है।


1962 से पहले भी, भारत ने सीमा पर चीन के आक्रामक रुख को ठंडा करने का प्रयास किया था। जिसके परिणामस्वरूप, जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में-चीन ने पीठ में चाकू घोंप दिया था। वास्तव में, 1962 से पहले और अब के हालात में महत्वपूर्ण समानता है। सीमा वार्ता कम होती जा रही हैं और भारतीय भूभाग पर चीन का दावा और घुसपैठ बढ़ती जा रही हैं। साथ ही भारत की चीन नीति लचर और कमजोर है। तिब्बत को हड़पकर अपने दक्षिण में सीमाओं का सैकड़ों किलोमीटर विस्तार करने वाले चीन के साथ विवाद में भारत ने हमेशा रक्षात्मक रुख अपनाया है। तिब्बत को हड़पने के बाद चीन ने भारतीय भूभाग पर कब्जे शुरू किए और फिर अंतत: खुला युद्ध छेड़ दिया। अब वह भारत के दूसरे भूभागों पर अपना दावा ठोक रहा है।


विडंबना यह है कि चीन अतिरिक्त भारतीय क्षेत्रों पर दावा इसलिए ठोक रहा है कि इनके तिब्बत के साथ तथाकथित रिश्ते थे। वहीं वह भारत के खिलाफ तिब्बत कार्ड खेल रहा है। एक पूर्व दलाई लामा का जन्मस्थल तवांग होने के आधार पर चीन अरुणाचल प्रदेश पर दावा जता रहा है। इसके बावजूद चीन के खिलाफ तिब्बत कार्ड खेलने में भारत हमेशा सकुचाता रहा है। तिब्बत को सौदेबाजी में इस्तेमाल न कर पाने का दुष्परिणाम यह रहा कि पहले तो भारत को अक्साई चिन से हाथ धोना पड़ा, फिर 1962 के युद्ध में काफी भूभाग हाथ से निकल गया और अब अरुणाचल प्रदेश पर खतरा मंडरा रहा है।


बीजिंग खुलेआम अरुणाचल को चीन का सांस्कृतिक विस्तार बताता है क्योंकि 17वीं सदी में छठे दलाई लामा का जन्म अरुणाचल प्रदेश के तवांग जिले में हुआ था। बीजिंग दावा करता है कि अरुणाचल का संबंध तिब्बत से है और इस प्रकार यह चीन का एक अंग है। इस दलील के आधार पर तो चीन को मंगोलिया पर भी दावा ठोक देना चाहिए क्योंकि 1589 में चौथे दलाई लामा का जन्म मंगोलिया में हुआ था। मंगोलिया और तिब्बत के बीच परंपरागत रिश्ते तिब्बत और अरुणाचल के मुकाबले कहीं अधिक गहरे थे।

Source: Jagran Yahoo

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