Menu
blogid : 133 postid : 795

चीन की दुर्भावना का सबूत

संपादकीय ब्लॉग
संपादकीय ब्लॉग
  • 422 Posts
  • 640 Comments

भारतीय सेना की उत्तरी कमाड के कमाडर लेफ्टिनेंट जनरल बीएस जसवाल को वीजा देने से इनकार कर चीन ने साफ कर दिया है कि उसकी दीर्घकालीन रणनीतिया मेलमिलाप की फौरी कोशिशों से प्रभावित नहीं होतीं। गुलाम कश्मीर में चीन के सैनिकों का जमावड़ा भी इसकी पुष्टि कर रहा है। चीन ने जनरल जसवाल को वीजा देने से यह कहकर इनकार किया है कि वह ‘विवादास्पद’ कश्मीर में तैनात हैं। जनरल जसवाल जनरलों के स्तर पर होने वाली रक्षा वार्ताओं की प्रक्रिया में शामिल होने वाले थे। जनरल जसवाल को टका-सा जवाब देकर चीन ने अपनी पारंपरिक चौधराहट दिखाते हुए द्विपक्षीय वार्ताओं की गरिमा को कम कर दिया है। शायद वह वार्ताओं का एजेंडा, भागीदारी और स्वरूप तय करने को अपना एकाधिकार समझता है।


कश्मीर को लेकर चीन के रवैये में पिछले दो-एक सालों में आया बदलाव बताता है कि भारत के संदर्भ में चीन की विदेश नीति का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के हितों को ध्यान में रखते हुए संचालित हो रहा है। कश्मीर मुद्दे को जिंदा रखने की पाकिस्तानी कोशिशें तो समझ में आती हैं, लेकिन जब आपसी संबंधों में आसन्न गिरावट को अनदेखा करते हुए चीन भी ‘कश्मीर-कश्मीर’ की रट लगाता है तो वह एक नई किस्म की चुनौती का संकेत देता है। तीसरे देश की यह असामान्य दिलचस्पी कश्मीर विवाद का अंतरराष्ट्रीयकरण करने की पाकिस्तानी कोशिशों के अनुकूल तो है ही, हमारी ‘संवेदनशीलताओं’ का कूटनीतिक लाभ उठाने की बेताबी भी दिखाती हैं। भारतीयों के लिए चीन का बार-बार बदलता रुख एक अजीब किस्म की पहेली है।


1988 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाधी की चीन यात्रा के समय दोनों देशों के शत्रुतापूर्ण संबंधों में बदलाव आना शुरू हुआ था। उसी वर्ष सीमा विवाद का हल सुझाने के लिए संयुक्त कार्यबल बना। सन 1993 में उन्होंने आपसी तनाव घटाने और वास्तविक नियंत्रण रेखा का सम्मान करने पर सहमति जताई और 1996 में आपसी विश्वास बहाली के उपाय करने पर। अगर 90 के दशक से तुलना करें तो भारत और चीन के संबंधों में अहम बदलाव आ चुका है और आज चीन भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार भी है।


ऐसा लगता है कि पिछले एक दशक में जब से भारत की आर्थिक तरक्की ने रफ्तार पकड़ी है, हमसे संबंध सुधारने के मामले में चीन का रुख और प्राथमिकताएं बदली हैं। विश्व समुदाय में यह धारणा आम है कि अपने पड़ोस में उभरती प्रतिद्वंद्वी महाशक्ति के साथ सीमा विवाद को हल न करना और उसे द्विपक्षीय विवादों में उलझाए रखना चीन के हित में है। भारत-चीन सीमा विवाद हल हुआ तो हम सब कुछ भूलकर आर्थिक विकास की प्रक्रिया में जुट जाएंगे। उधर, उत्तार-पूर्वी सीमा पर तैनात सैन्य संसाधन पाकिस्तान की ओर रुख करने के लिए स्वतंत्र हो जाएंगे। यह न चीन के लिए अनुकूल है और न उसके मित्र पाकिस्तान के लिए। उसने एक ओर भारत को सीमा वार्ताओं में उलझाए रखा और दूसरी ओर अपने सुरक्षा कवच को मजबूत करता चला गया। भारतीय सीमा पर परमाणु मिसाइलों की तैनाती, वहा बड़े पैमाने पर सड़कों और हवाई अड्डों का निर्माण किया गया और भारत के पड़ोसी देशों, विशेषकर म्यांमार, श्रीलंका और नेपाल तक पहुंचकर उसे घेरने की रणनीति आगे बढ़ाई गई।


चीनी दुर्भावना का खुलासा उस समय साफ हो गया जब उसने भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु करार को रुकवाने के लिए अंतरराष्ट्रीय परमाणु मंचों पर अंतिम क्षण तक कोशिशें कीं। ये कोशिशें नाकाम हो गईं तो अब उसने पाकिस्तान के साथ वैसा ही करार कर लिया है, जिस पर अमल रुकवाने के लिए इन दिनों भारत जूझ रहा है। भारत के साथ तनाव बनाए रखने में चीन का कोई नुकसान नहीं है, बल्कि यह हमें दबाव में रखने की उसकी दीर्घकालीन रणनीति के अनुकूल है। वह इसके लिए समय-समय पर बहाने तलाशता रहेगा। ऐसा न होता तो उन्हीं जनरल जसवाल को चीन यात्रा पर आने से क्यों रोका जाता जो चौथी कोर के कमाडर के रूप में 2008 में चीन की यात्रा कर चुके हैं। उस समय वह अरुणाचल प्रदेश के प्रभारी थे, जिसे चीन ‘विवादास्पद’ मानता है।


कश्मीर के नागरिकों को दिए जाने वाले वीजा को भारतीय पासपोर्ट में चिपकाने के बजाय अलग से स्टेपल करने की हालिया चीनी नीति भी किसी नीतिगत या सैद्धातिक आधार पर खरी नहीं उतरती। अगर वह कश्मीर को ‘विवादित’ क्षेत्र मानता है तो फिर पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के नागरिकों के वीजा के साथ भी ऐसा ही क्यों नहीं करता? यह कोई बेवजह तो नहीं है कि जबसे कश्मीर में अलगाववादी प्रदर्शनों का नया दौर शुरू हुआ तभी चीन ने वीजा को स्टेपल करना भी शुरू किया। क्या यह भारतीय संप्रभुता के निरादर की कोशिश नहीं है?


भारत ने जनरल जसवाल को रोके जाने के जवाब में चीन के साथ सैन्य संबंधों को स्थगित कर सही कदम उठाया है, लेकिन इससे पहले हम चीन के बरक्स बड़ी-बड़ी रणनीतिक गलतिया कर चुके हैं। राजीव गाधी की चीन यात्रा के समय भारत ने साफ तौर पर तिब्बत को चीन का अभिन्न हिस्सा मान लिया था। चीन ने इसका लाभ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तिब्बत के मामले में अपनी स्थिति मजबूत करने में बखूबी उठाया। हमें पिछले पाच साल के घटनाक्रम के बरक्स चीन के प्रति अपने संबंधों की विवेचना करने और उनका दीर्घकालीन स्वरूप तय करने की जरूरत है। हर छोटी-बड़ी घटना पर हो-हल्ला करने और उसे मीडिया की सुर्खी बनाने की कोई जरूरत नहीं है। इससे चीन और पाकिस्तान के हित ही सधते हैं। आपसी संबंधों में सुधार की प्रक्रिया जारी रहनी चाहिए, लेकिन अपने आत्मसम्मान की कीमत पर नहीं।

Source: Jagran Yahoo

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh