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आखिरकार भारत ने 19 साल बाद बहुप्रतिक्षित संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अस्थायी सदस्यता हासिल कर ही लिया लेकिन अभी भी वह इस परिषद की स्थायी सदस्यता के दावे से बहुत दूर है. हालांकि कूटनीतिक हलकों में इसे भारत की एक बड़ी जीत बताया जा रहा है. लेकिन हमें सुरक्षा परिषद के ढांचे में आमूल-चूल परिवर्तन करवाने की जरूरत है ताकि उसे वास्तविक रूप में वैश्विक संस्था बनाया जा सके. इससे पहले भारत सुरक्षा परिषद का अस्थाई सदस्य सात बार रह चुका है. पिछली बार 1991-1992 में भारत सुरक्षा परिषद का सदस्य बना था. सुरक्षा परिषद के 15 सदस्य हैं जिनमें से पांच स्थाई हैं और 10 अस्थाई.
रूस, फ़्रांस और ब्रिटेन, चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका का प्रभुत्व सुरक्षा परिषद पर इतना अधिक है कि अन्य 10 अस्थायी सदस्यों की सही मायने में कोई खास वैल्यू नहीं होती हॉ इतना जरूर है कि प्रतीकात्मक रूप से इनके महत्व को भी खारिज नहीं किया जा सकता. स्थायी सदस्यों को प्राप्त वीटो का अधिकार अन्य सदस्यों की सभी सहमतियों और अनुशंसाओं को खारिज कर सकता है. इससे बुरी बात क्या होगी कि किसी भी वैश्विक मामले पर कुछ मुट्ठी भर देशों का ही नियंत्रण हो और अन्य सदस्य देशों की बात अनसुनी कर दी जाए.
सुरक्षा परिषद की शक्तियों की अवहेलना सबसे अधिक अमेरिका और चीन करते रहे हैं. अमेरिका ने इराक युद्ध के समय परिषद को उसकी औकात बता दी. बाद में परिषद ने अपनी लाज रखने के लिए खुद ही पहल करते हुए इस युद्ध को अनुमति प्रदान कर दिया. चीन और अमेरिका जिस तरह सुरक्षा परिषद को अपने हितों के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं उससे बार-बार इसकी मर्यादा भंग होती रहती है और वैश्विक समुदाय को भी यही संदेश मिलता है कि परिषद पर केवल स्थायी सदस्यों का वर्चस्व है.
भारत ने वर्ष 2004 से कुछ अन्य देशों के साथ मिलकर सुरक्षा परिषद के गठन में आमूलचूल सुधार का बीड़ा उठाया है. इसके लिए लगातार अभियान चल रहा है लेकिन मूल समस्या ये है कि पांचों वीटो शक्ति प्राप्त देश (पी-5) यह नहीं चाहते कि उनके अधिकारों, प्रभावों और शक्तियों में किसी तरह की कमी आए. यदि कभी भी सुरक्षा परिषद के सदस्य देशों की संख्या में वृद्धि होती है, तो पांचों वीटो शक्ति प्राप्त देशों की सहमति आवश्यक होगी. इसके लिए विभिन्न फॉर्मूले सुझाए भी गए लेकिन अभी तक मामला अधर में है.
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