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मोहाली से आगे की राह

संपादकीय ब्लॉग
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मोहाली में भारत और पाकिस्तान के बीच विश्व कप क्रिकेट सेमीफाइनल मैच की तरह ही दोनों देशों के बीच कूटनीतिक और राजनीतिक संबंधों में भी गर्माहट आ गई है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनके पाक समकक्ष यूसुफ रजा गिलानी की मुलाकात को लेकर राजनयिक गलियारों में उत्सुकता है। मुंबई आतंकी हमले को करीब सवा दो वर्ष बीत चुके है, लेकिन अभी तक पाकिस्तान ने दोषियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की है। उम्मीद की जानी चाहिए कि जब दोनों देशों के प्रधानमंत्री सौहार्द और सद्भाव के वातावरण में एक-दूसरे से हाथ मिला रहे होंगे तो वे इस मसले को जरूर ध्यान में रखेंगे और कोई न कोई समाधान का रास्ता निकालने की कोशिश करेंगे।


इसके अलावा भारत की एक प्रमुख चिंता सीमा पार आतंकवाद है, जिसे समय-समय पर उठाया जाता रहा है। इस वास्तविकता को अब पूरी दुनिया धीरे-धीरे समझने लगी है कि पाकिस्तान में आतंकवादियों को प्रशिक्षित करने वाले शिविर अभी भी चल रहे हैं और उन्हें पाकिस्तान सरकार, वहां की सेना और आइएसआइ का पूरा नैतिक और वित्तीय समर्थन हासिल है। कश्मीर और शेष भारत में आतंकवादियों को भेजने के लिए घुसपैठ अभी तकखत्म नहीं हो सकी है। इन सबके बावजूद दोनों देशों के बीच शांति कायम हो और इसे मजबूती मिले, इसके लिए जरूरी है कि कूटनीतिक और राजनीतिक प्रयासों के साथ-साथ दोनों देशों की जनता के बीच भी सामाजिक व सांस्कृतिक मेलजोल बढ़े।


इस बात को ध्यान में रखते हुए ही क्रिकेट के सेमीफाइनल मैच को दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों ने एक माकूल अवसर माना और तमाम गिले-शिकवों के बावजूद दोस्ती का हाथ क्रिकेट की पिच तक ले गए, लेकिनअब इसे गति देने का दायित्व पाकिस्तान पर है कि मुंबई जैसा कोई आतंकवादी हमला फिर न दोहराया जाए। यह सही है कि इस समय पाकिस्तान एक अलग तरह के दौर से गुजर रहा है और परवेज मुशर्रफ के शब्दों में वहां आतंकवाद और चरमपंथ एक गंभीर खतरा बन चुका है, जिस पर पाक सरकार का शायद ही नियंत्रण रह गया है। पाकिस्तान में आए दिन कोई न कोई आतंकी वारदात होती रहती है। पंजाब के गवर्नर सलमान तसीर की हत्या के बाद अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री शहबाज भट्टी को मौत के घाट उतार दिया गया और अब मानवाधिकार कार्यकर्ता आसमां जहांगीर को भी ऐसे ही नतीजे भुगतने की धमकियां मिल रही हैं। इन घटनाओं से साफ है कि वहां हालात किस कदर बिगड़ चुके हैं, लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि इसके लिए जिम्मेदार कोई और नहीं खुद पाकिस्तान है। उनके हुक्मरानों और रणनीतिकारों को यह समझना होगा कि द्विपक्षीय संबंधों में सुधार और कश्मीर के मसले पर जमी बर्फ को पिघलाने के लिए बातचीत की प्रक्रिया ही एकमात्र और अंतिम रास्ता है। इसके लिए एकतरफा प्रयास की बजाय दोनों को आगे आना होगा।


अब जबकि एक बार फिर सकारात्मक माहौल बनता दिख रहा है तो इसे आगे बढ़ाया जाना चाहिए और दोनों ही देशों के नेताओं, बुद्धिजीवियों व आम जनता के साथ-साथ वहां की सेना व आइएसआइ को साथ लेकर चलने का प्रयास होना चाहिए। यह सही है कि फिलहाल यूसुफ रजा गिलानी की यात्रा से अचानक कोई बड़ा बदलाव आ जाएगा, यह उम्मीद नहीं की जा सकती, लेकिन यह उम्मीद तो की ही जा सकती है कि द्विपक्षीय संबंधों को ठीक करने और समग्र वार्ता की प्रक्रिया शुरू करने के लिए एक रोडमैप बनाया जाए। इस रोडमैप में अफगानिस्तान में दोनों देशों की भूमिका से लेकर व्यापारिक व सामरिक रिश्ते तक को शामिल किया जाए। कश्मीर मुद्दे को हल करने के लिए एक व्यावहारिक व सर्वस्वीकार्य रास्ते को मिल-जुलकर ही खोजा जा सकता है। पाकिस्तान को अपनी पुरानी जिद पर अड़े रहने की बजाय आज की भू-राजनीतिक वैश्विक व क्षेत्रीय परिस्थितियों को समझना होगा। हमने आपस में बहुत खून बहा लिया और राजनीतिक व कूटनीतिक पत्तो खेल लिए, अब समय आ गया है कि हम मिल बैठकर एक-दूसरे की साझा समस्याओं को हल करने की कोशिश करें और विश्वास बहाली के उपायों को नई दिशा दें।


यहां इस बात को नहीं भूला जा सकता कि कट्टरपंथ की आग में झुलस रहा पाक इस समय नरमपंथियों और उदारवादियों के दबाव के चलते ही भारत से दोस्ती का हाथ बढ़ाने को इच्छुक हुआ है। पाक सरकार पर अपने देश के भीतर जनता के एक तबके का दबाव है। इस स्थिति में भारत को भी समझदारी और उदारता का परिचय देना चाहिए। यह वक्त की मांग है कि दोनों ही देशों में अमन की आस कायम हो और युद्ध की बजाय शांति और विकास के बारे में सोचा जाए। पाकिस्तान इस मौके का लाभ एफटीए यानी मुक्त व्यापार समझौते को आगे बढ़ाकर उठा सकता है। इसमें जो भी अड़चनें हैं उन्हें मिल-जुलकर दूर किया जाए और तमाम संदेहों और शिकायतों पर बात की जाए। समझौता एक्सप्रेस में विस्फोट की घटना की जांच को आगे बढ़ाने के लिए भी बात हो सकती है। इसी तरह भारत इस मौके का लाभ पाकिस्तान द्वारा पकड़े गए मछुआरों और वहां की जेलों में बंद अपने कैदियों को छुड़वाने के लिए करना चाहेगा। इन मसलों पर पाकिस्तान के सकारात्मक रुख से आगे का रास्ता खुल सकता है। निश्चित रूप से नए वर्ष की शुरुआत में फरवरी माह में भूटान की राजधानी थिंपू में दोनों देशों के विदेश सचिवों की मुलाकात के बाद रिश्तों में बदलाव आया है। बावजूद इसके अभी तक पाकिस्तान ने मुंबई हमले के दोषियों को सजा देने के अपने वायदे को पूरा नहीं किया है और न ही आतंकवादियों की घुसपैठ पर विराम लगाया है। इससे यही साबित होता है कि पाकिस्तान के हुक्मरानों के बजाय हमारे प्रधानमंत्री कुछ ज्यादा जल्दी में दिखते हैं।


मेरा मानना है कि इसमें कुछ गलत भी नहीं है, लेकिन कोई भी कदम उठाने से पहले अतीत की घटनाओं को याद रखना चाहिए और वार्ता का रोडमैप तैयार करते समय हमें पाकिस्तान से ठोस कार्रवाई का न केवल आश्वासन लेना चाहिए, बल्कि उस पर अमल होने तक इंतजार भी करना चाहिए। इसके अलावा भारत को पाकिस्तान में शांति के पक्षधर लोगों को अपने साथ जोड़ने की कोशिश भी करनी होगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि बातचीत का नया सिलसिला परवान चढ़ेगा और पाकिस्तान भारत के लोगों की भावनाओं का उसी तरह आदर करेगा जैसा उसने भारतीय सुप्रीम कोर्ट की भावनाओं का आदर करते हुए उम्रकैद की सजा काट रहे भारतीय नागरिक गोपाल दास को अपनी जेल से रिहा करने में किया है।


[शशांक शेखर : लेखक पूर्व विदेश सचिव हैं]

साभार: जागरण नज़रिया

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