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पिछले दिनों भारत की सर्वोच्च सेवा कही जाने वाली सिविल सेवा से संबंधित दो खबरें आईं। एक तो हर साल की तरह आईएएस, आईएफएस आदि सेवाओं की परीक्षा का परिणाम आया। हालाकि यह गौरतलब है कि अब इसके परिणाम का वैसी बेसब्री से इंतजार नहीं होता, न ही उसकी समाज में वैसी चर्चा होती है जैसा कि 10-15 साल पहले तक हुआ करता था। दूसरी खबर जो इसी से जुड़ी हुई है वह है हाल में प्रशासनिक सुधार और जन शिकायत विभाग का एक सर्वेक्षण हुआ जिसने नौकरशाही के काम की स्थितिया और उनकी मनोदशा पर कई अहम जानकारिया उजागर की हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार 33 प्रतिशत नौकरशाही अपनी सेवा से असंतुष्ट है। सियासी हस्तक्षेप, भ्रष्टाचार और प्रमोशन-पोस्टिंग में भेदभाव आदि से परेशान रहती है।
इसके अतिरिक्त राजनीतिज्ञों ने नौकरशाही को अपने पक्ष में इस्तेमाल करने के लिए उसे जातिवादी और साप्रदायिक भी बना दिया है। हालांकि रिपोर्ट को गहराई से पढ़ें तो यह प्रतीत होता है कि ज्यादातर अधिकारी सेवा न कर पाने से ज्यादा अपने करियर की बेहतर स्थितियों के लिए परेशान हैं, जबकि अपनी अक्षमता, नवाचार को लेकर अनुत्साह और भ्रष्टाचार आदि से वे बेफिक्र जान पड़ते हैं। आजादी के बाद के आरंभिक दौर में अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद सिविल सेवक अपेक्षाकृत एक आदर्श से अनुप्राणित थे और कुछ को छोड़कर अधिकाश में अखंडता, कर्तव्यनिष्ठता, अनुशासन और जनसेवा के प्रति समर्पण दिखाई पड़ता था, लेकिन पिछले दशकों से इसके ठीक उलट अधिकाश सिविल सेवक निरंकुशता, भ्रष्टाचार, जनविमुखता, घमंड के पर्याय बन गए हैं।
हांगकाग के पालिटिकल और इकोनामिक रिस्क कंसल्टेंसी द्वारा 2009 में एक सर्वेक्षण किया गया जिसके अनुसार एशिया की 12 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की नौकरशाही में भारत के सिविल सेवक सबसे ज्यादा निकम्मे हैं। वे अपने आप में एक शक्ति केंद्र बन बैठे हैं और राष्ट्रीय और राज्य, दोनों ही स्तरों पर सुधारों और विकास में बाधक बन रहे हैं। इसी तरह विश्व आर्थिक फोरम के 49 देशों के सर्वेक्षण में भ्रष्टाचार के मामले में भारतीय नौकरशाही नीचे से 44 वें स्थान पर रही।
यह अनायास नहीं है कि अब अधिकाश प्रतिभाशाली युवाओं का सपना सिविल सेवा में जाना नहीं रहा। आप आईआईटी या विभिन्न बोर्ड परीक्षाओं के मेधावी छात्रों के इंटरव्यू को देख लीजिए, उनमें से बहुत कम लोगों की इच्छा सिविल सेवा में जाने की होती है। एक तरफ यह खबर सुखद है तो दूसरी तरफ यह चिंता का विषय भी कि इस तरह से तो हमारे सिविल सेवा में तो सिर्फ औसत दर्जे के लोग ही जा पाएंगे। यहीं सिविल सेवा में बहुस्तरीय सुधारों की जरूरत है। इसके लिए द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशें महत्वपूर्ण हो सकती हैं, लेकिन सरकार में इसके लिए इच्छाशक्ति का अभाव दिखता है। चयन की प्रक्रिया से संबंधित एक सुधार की घोषणा अभी हाल में यह हुई है कि सिविल सेवा परीक्षा की प्रारंभिक परीक्षा में भारत सरकार ने एक योग्यता परीक्षण सिविल सेवा योग्यता टेस्ट लागू करने के प्रस्ताव को मंजूरी दी है। मौजूदा प्रणाली में किसी विशेष ऐच्छिक विषय के ज्ञान पर अधिक जोर है। नई प्रणाली में सभी उम्मीदवारों के लिए इस सेवा की जरूरतों से संबंधित विषयों पर दो समान पर्चे होंगे।
इसको यूं समझें कि अभी कोई व्यक्ति पशुपालन विज्ञान या दर्शन शास्त्र या इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग या कोई अन्य ऐच्छिक विषय को लेकर प्रारंभिक परीक्षा पास कर सकता है। यह बात समझ से परे है कि इन विषयों के श्रेष्ठ ज्ञान से किस रूप में अच्छे प्रशासक की योग्यता सिद्ध होती है। प्रस्तावित सुधार एक बेहतर कदम है, लेकिन मुख्य परीक्षा में अभी कोई परिवर्तन नहीं हुआ है, जबकि यह तो और भी महत्वपूर्ण चरण है। यहां तो दो ऐच्छिक विषय रखने होते हैं और इनके अंक साक्षात्कार में भी जुड़ते हैं। समझ से परे है कि विषयों में विशेषज्ञता किस प्रकार किसी के कुशल प्रशासक होने की पहचान है और यह भी मुमकिन है कि जिन विषयों के प्रश्नपत्र आसान होंगे उन विषयों के उम्मीदवार ज्यादा बड़ी संख्या में चुने जाएंगे। मुख्य परीक्षा में भी प्रश्न पत्र समान होने चाहिए जो इस सेवा की जरूरतों से जुड़ा हो। इस प्रकार किसी को किसी विषय का विशेष लाभ मिलने की आशका नहीं होगी।
एक महत्वपूर्ण सुधार उच्च स्तर के पदों के लिए भी जरूरी है। आज के ग्लोबल इकोनामी के युग में सचिव स्तर के पद अपेक्षाकृत एक विशेषज्ञता की माग करते हैं। उदाहरण के लिए कामर्स सचिव के पद पर किसी अन्य विषय से पास व्यक्ति कैसे न्याय कर सकता है। इनके कार्यसूची में विश्व व्यापार संगठन के प्रति दायित्वों को ध्यान में रखते हुए नियम बनाने से लेकर अंतरराष्ट्रीय व्यापार में देश के अधिकतम लाभ के लिए भविष्य की बातचीत भी शामिल है। इसके अतिरिक्त विश्व व्यापार संगठन के अन्य सदस्यों के साथ समझौतों, विश्व व्यापार संगठन में व्यापार भागीदारों के साथ व्यापार विवाद निपटाने, चयनित व्यापार भागीदारों के साथ मुक्त व्यापार क्षेत्र समझौते की बातचीत और उसको लागू करने, निर्यात और आयात नीति बनाना, डंपिंग विरोधी कानून और विदेशी कंपनियों के खिलाफ भारत द्वारा की गई कार्रवाई का बचाव आदि-आदि। इन कार्यों में से प्रत्येक के लिए अर्थशास्त्र और कानून, दोनों में तकनीकी ज्ञान की आवश्यकता है। यही बात शिक्षा, कृषि, विदेश या अन्य विभागों पर भी लागू होती है। इसी से जुड़ा एक अन्य जरूरी सुधार यह भी है कि इन पदों पर कब्जा सिर्फ सिविल सेवा परीक्षा से पास लोगों का ही न हो, बल्कि विभिन्न विभागों में विशेषज्ञों के लिए दरवाजा खोलने और उच्च स्तर के नौकरशाही पदों पर आईएएस और आईएफएस के मौजूदा एकाधिकार को तोड़ने की जरूरत है।
दोनों समस्याओं के लिए एक आम उपाय है-संयुक्त सचिव और उच्च स्तर के सभी पदों को बाहरी लोगों के लिए खोला जाए। वहां वरिष्ठता के आधार पर स्वत: पदोन्नति की कोई गारंटी सिर्फ इसलिए नहीं हो सकती कि दो दशक पहले एक परीक्षा में वे सफलतापूर्वक चयनित हुए। इसके बजाय, आईएएस और आईएफएस आदि के भीतर और बाहर के सबसे अच्छे उपलब्ध उम्मीदवारों में खुली प्रतियोगिता हो। ब्रिटेन और न्यूजीलैंड, दोनों ही में लैटरल एंट्री की अनुमति देते हुए प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा दिया गया है। अमेरिका में अनेक ऐसे पद और विभाग हैं जिसमें नियुक्तिया परीक्षा के माध्यम से नहीं होती। उन्हें अतिरिक्त सिविल सेवा कहा जाता है। सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी, विदेश सेवा के पद, आंतरिक सुरक्षा, विमानन विभाग आदि दर्जनों जगहें हैं जहां विशेषज्ञों को नियुक्त किया जाता है। अपने देश में ऐसा कब संभव होगा?
Source: Jagran Yahoo
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