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कुछ वर्ष पहले तक हम यह लिखते थे, मानते थे कि लोकतंत्र शर्मिदा सा है, पर अब यह कहने को विवश होना पड़ रहा है कि भारत का लोकतंत्र अब सचमुच शर्मिदा है। इस देश की अधिकतर विधानसभाओं में लोकतंत्र के नाम पर जनता के वोटों से चुने गए प्रतिनिधि जो कुछ कर रहे है उसे देखकर यह लगता ही नहीं कि यहा कोई जनता का राज है। अभी जो कुछ बिहार विधानसभा में पूरे विश्व ने देखा उसे देखकर कौन यह विश्वास करेगा कि जनप्रतिनिधि जनता के हित की लड़ाई लड़ते है। मुझे तो शिकायत मीडिया से भी है जो ऐसे पथ से भटके लोकतंत्र के नाम पर अनुशासनहीनता करने वालों को आवश्यकता से अधिक प्रचार देते है।
बिहार विधानसभा की एक महिला सदस्या ने जैसा व्यवहार सदन में किया उसके लिए उसकी निंदा होनी चाहिए थी, पर देश के प्रमुख समाचार पत्रों ने मुख्य पृष्ठ पर उसका चित्र लगाकर उसे एक प्रकार से सम्मान दे दिया है। टीवी के विभिन्न चैनलों में जिस ढग से विपक्षी विधायकों को मार्शलों द्वारा सदन से उठाकर बाहर ले जाते देखा उससे उन मार्शलों पर भी बहुत तरस आया जो भारी-भरकम शरीरों को उठाकर बाहर लेकर गए।
इससे पहले भी देश की विधानसभाओं में ऐसा बेढगा नाटक हो चुका है। तमिलनाडु की विधानसभा में भी ऐसा ही लोकतंत्र के नाम पर चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा हगामा हो चुका है। जम्मू-कश्मीर भी इस दृष्टि से किसी से कम नहीं। 1992 में पंजाब विधानसभा के एक पार्टी विशेष के सदस्यों को सत्र के दौरान लगभग हर बार ही मार्शलों द्वारा उठा-उठा कर बाहर ले जाया जाता था। विधानसभा अध्यक्ष की कुर्सी तक पहुचने का प्रयास करना, एक-दूसरे की पगड़ी उछालना आदि तो साधारण बातें हो गई है। अब तो बिहार विधानसभा में तो एक विधायक ने विधानसभा अध्यक्ष पर चप्पल से निशाना साधा।
उत्तर प्रदेश की विधानसभा भी ऐसे दृश्यों के लिए पहचानी जाती है और भारत के संसद अर्थात लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर में भी कुछ वर्ष पूर्व महिला आरक्षण बिल पेश करने के समय जो कुछ तथाकथित माननीयों ने किया उससे तो माननीय शब्द की परिभाषा ही पुन: निश्चित करने की इच्छा होती है।
ऐसा लगता है कि अगर इस देश का मतदाता जागरूक हो जाए तो जनप्रतिनिधियों को भी अपना व्यवहार बदलना पड़ेगा। हमारा दुर्भाग्य यह है कि इस देश के बुद्धिजीवी अधिकतर खामोश रहते है। आवश्यकता यह है कि विधानसभाओं में जब भी कभी ऐसी दुर्घटना हो तो हमारे विद्वतजन मुखर होकर इसका विरोध करें और जनता को यह समझा दें कि इतने ऊंचे पदों पर पहुचकर भी जो व्यक्ति अनुशासन नहीं रख पाता, अध्यक्ष पद की गरिमा न पहचानते हुए उस पर चप्पल फेंकता, अध्यक्ष की पगड़ी पर हाथ डालता है, उसको अगले चुनाव में वोट देना लोकतंत्र से शत्रुता करना है, पर दुर्भाग्य यह कि सदन के अंदर दुर्व्यवहार करने के बाद भी जब यही लोग किसी स्कूल-कालेज, विश्वविद्यालय के कार्यक्रमों में मुख्य अतिथि बनकर जाते है तब ऐसे ही लोगों का भव्य स्वागत होता है।
दुखद सत्य तो यह है कि विधानसभाओं में भी आज का सत्ता पक्ष जब कल विपक्ष की कुर्सियों पर बैठा था तो उनका व्यवहार भी लगभग ऐसा ही था और आज का विपक्ष जब कल सत्तापक्ष पर सुशोभित होगा तो वे भी अपने विरोधियों से वैसा ही व्यवहार करते है जैसा आज उनके साथ हो रहा है। इस देश के कानूनविदें को जनता की यह आवाज उठानी ही होगी कि उनके प्रतिनिधि आदरणीय बनकर जब संसद और विधानसभाओं में बैठते है तो उन्हे यह समझा दिया जाए कि वहा अनुशासन, शालीनता और संयमपूर्ण व्यवहार करें अन्यथा उन्हे दूसरी बार जय नहीं पराजय मिलेगी और यह तभी संभव है जब जनमानस पूरी तरह जागरूक हो, इस देश का हर नागरिक वोट दे और वोटों के लिए नोट, शराब तथा डडा तंत्र पूरी तरह से देश में बंद हो जाए।
आश्चर्य तो यह है कि नोटों से चुनाव जीतने वाले भी बाद में फिर नोटों का धधा करते है, जब सरकार बनाने के लिए अपनी पार्टी से टूटकर यूं कहिए दल-बदलकर दूसरों को वोट देने जाते है। जनता के वोट लेकर बिकने वालों के लिए तो कानून और भी सख्त होना चाहिए। उनके दोनों हाथों में लड्डू है जो निर्दलीय जीतते है और निर्दलीय रहकर ही दल बदलते है। कभी-कभी तो ऐसा निर्दलीय विधायक मुख्यमंत्री भी बन जाता है।
Source: Jagran Yahoo
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