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अपने हाथों बर्बाद होती कांग्रेस

संपादकीय ब्लॉग
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Rajeev Sachanयह अभी भी पता नहीं कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं या नहीं, लेकिन आम धारणा है कि वह 2014 के चुनावों के बाद ही यह पद संभालना चाहेंगे। ऐसा होगा या नहीं, यह बहुत कुछ चुनाव परिणामों पर निर्भर करेगा। किसी को भी यह अनुमान लगाने के लिए राजनीतिशास्त्री होने की जरूरत नहीं कि फिलहाल कांग्रेस की हालत पतली है और कोई चमत्कार ही उसे 2014 के चुनावों में जीत दिला सकता है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जिस तरह बार-बार यह दोहराते हैं कि महंगाई, भ्रष्टाचार, आतंकवाद दूर करने के लिए उनके पास जादू की छड़ी नहीं उससे यह स्पष्ट है कि वह चमत्कार में यकीन नहीं रखते। यह अच्छा भी है, लेकिन किसी को उन्हें यह बताना चाहिए कि उनके शासन के तौर-तरीके आम जनता को निराश-हताश और यहां तक कि चिढ़ाने वाले हो गए हैं। यदि आम जनता केंद्रीय शासन से चिढ़ी नहीं होती तो दिल्ली में विस्फोट से घायल लोगों से मिलने अस्पताल पहुंचे राहुल गांधी के खिलाफ नारेबाजी करने वाले ही उनकी सदाशयता की चर्चा कर रहे होते। राहुल गांधी के खिलाफ हुई नारेबाजी कांग्रेस, केंद्र सरकार और खुद उनके लिए खतरे की घंटी है। समस्या यह है कि खतरे की ऐसी घंटियां लगातार बज रही हैं और फिर भी उन्हें कोई सुनने वाला नहीं। इसके पहले खतरे की घंटी तब बजी थी जब अन्ना हजारे के समर्थन में देश भर में लोग सड़कों पर उमड़ आए थे। आम जनता को उम्मीद थी कि सरकार न सही, लोगों से लगातार मिलते-जुलते रहने वाले राहुल गांधी जन भावनाओं को समझेंगे, लेकिन देश तब बुरी तरह निराश हुआ जब उन्होंने अन्ना की पहल को न केवल खारिज किया, बल्कि उसे सामाजिक ढांचे के लिए खतरा भी बता दिया। पता नहीं राहुल गांधी ने पत्थर फेंककर भाग जाने वाली शैली में जो भाषण पढ़ा वह किसने तैयार किया, लेकिन यह सब जान गए कि उनका हाथ जनता की नब्ज पर बिलकुल भी नहीं। यह गलत समय पर गलत इरादे से दिया गया सही भाषण था। राहुल के इस भाषण से यह स्पष्ट हो गया कि वह ऐसे लोगों से घिरे हैं जो उन्हें गुमराह कर रहे हैं।


जब संसद के दोनों सदनों से अन्ना हजारे के तीन मुद्दों पर सहमति जताने वाला प्रस्ताव पारित हुआ तब यह भी स्पष्ट हो गया कि पार्टी में कुछ ऐसे लोग हैं जो प्रधानमंत्री को उनके मन मुताबिक काम नहीं करने दे रहे। यदि प्रधानमंत्री दृढ़ता नहीं दिखाते तो यह प्रस्ताव भी पारित होने वाला नहीं था। इस प्रस्ताव को पारित कर केंद्र सरकार ने अपनी लाज बचाई, लेकिन इसके पहले ही उसे कठघरे में खड़ा किया जाने वाला एक निर्णय संभवत: उसके ही जरिये लिया जा चुका था। इस निर्णय का क्रियान्वयन गुजरात की राज्यपाल के हाथों हुआ। उन्होंने राज्य सरकार से विचार-विमर्श करना तो दूर रहा, उसे सूचना दिए बगैर लोकायुक्त की नियुक्ति कर दी। राज्यपाल के इस निर्णय के पीछे चाहे जिसका हाथ हो, इससे केंद्र सरकार की भी बदनामी हुई और राज्यपाल पद की भी। यदि इस निर्णय का मकसद गुजरात सरकार को परेशान करना था तो इसमें अवश्य सफलता मिली, लेकिन इससे जो बदनामी हुई वह मनमोहन सरकार के खाते में गई। यदि न्यायपालिका ने गुजरात राज्यपाल के फैसले को रद्द कर दिया तो मनमोहन सरकार की एक बार फिर भद्द पिटेगी।


अब यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि कांग्रेस में कुछ लोग ऐसे हैं जो यह चाहते हैं कि केंद्र सरकार की भद्द पिटती रहे। शायद यही कारण है कि संप्रग सरकार के दूसरे कार्यकाल में उसकी फजीहत होते रहने का सिलसिला कायम है। पिछले कुछ समय से इस सिलसिले ने कुछ ज्यादा ही गति पकड़ ली है। हालांकि जब सरकार किसी गहरे संकट में फंसती है और उसके लिए जनता के सवालों का जवाब देना मुश्किल हो जाता है तो कुछ कांग्रेसी नेता यह जताने की कोशिश करते हैं कि पार्टी और सरकार दो अलग-अलग चीजें हैं। यह और कुछ नहीं जनता को बेवकूफ बनाने की कोशिश है, क्योंकि केंद्रीय सत्ता स्वर्ग से नहीं उतरी। यदि कांग्रेस और सरकार का आपस में कोई लेना देना नहीं तो फिर पार्टी और सरकार की कोर कमेटियां अलग-अलग क्यों नहीं? सोनिया गांधी ने इलाज के लिए विदेश जाने से पहले जो चार सदस्यीय कोर कमेटी बनाई थी उसमें सरकार के सिर्फ एक सदस्य रक्षामंत्री एके एंटनी ही थे। इस कोर कमेटी से यही स्पष्ट हुआ कि सरकार वही करती है जो पार्टी चाहती है। इसमें कुछ भी अनुचित नहीं। ऐसा ही होना चाहिए, लेकिन यह कदापि नहीं होना चाहिए कि जब सरकार मुश्किलों से घिर जाए तो पार्टी दूर खड़े होकर तमाशा देखे।


ऐसा कहने-मानने वालों की कमी नहीं कि यदि अन्ना हजारे के अनशन-आंदोलन के दौरान सोनिया गांधी भारत में होतीं तो सरकार की इतनी थू-थू नहीं होती। इस मिथ्या धारणा पर यकीन करने का कोई मतलब नहीं, क्योंकि तथ्य यह है कि इसके पहले कई मौकों पर सोनिया गांधी की भारत में उपस्थिति और सक्रियता के बावजूद सरकार की फजीहत हुई। यदि सोनिया गांधी सही फैसले लेने में समर्थ होतीं या यूं कहा जाए कि वह सही लोगों की सलाह से काम कर रही होतीं तो पहले ए. राजा का बचाव करने फिर उनसे पिंड छुड़ाने, सीवीसी पद पर पहले पीजे थॉमस की नियुक्ति को सही ठहराने फिर गलती मानने, बाबा रामदेव का पहले स्वागत करने फिर पिटाई करने और अन्ना को कभी नायक-कभी खलनायक बताने का मूर्खतापूर्ण काम बिलकुल भी नहीं किया जाता। पता नहीं वे कौन लोग हैं जो मनमानी करने में समर्थ हैं, लेकिन इतना स्पष्ट है कि वे जनता से कटे हुए और हद दर्जे के अहंकारी हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो उसी सांप्रदायिक हिंसा निषेध विधेयक को आगे नहीं बढ़ाया जाता जिसकी कठोर आलोचना हो चुकी है। बेहतर हो कि आम कांग्रेसजन कुछ खास लोगों के कारण बर्बाद हो रही पार्टी को बचाने की कोशिश करें।


लेखक राजीव सचान दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं


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