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मनमोहन सरकार अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा हासिल करने के लिए जिन कुछ उपायों पर विचार कर रही है उनमें मंत्रिमंडल में फेरबदल भी शामिल हैं। इसके अलावा उसकी ओर से लोकपाल विधेयक पेश करने और चुनाव सुधारों संबंधी निर्वाचन आयोग के एक प्रस्ताव पर विचार करने के संकेत भी दिए गए हैं। इससे यह तो संकेत मिलता है कि वह अपने दाग धोने की कोशिश में है, लेकिन यह भरोसा नहीं होता कि वह अपनी कोशिशों को लेकर ईमानदार भी है, क्योंकि उसकी ओर से भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने अथवा भ्रष्ट तत्वों को दंडित करने के लिए कोई फौरी कदम नहीं उठाया गया है। यह लगभग तय है कि संसद का बजट सत्र करीब आने के साथ ही 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला एक बार फिर उसके सामने होगा।
विपक्ष संयुक्त संसदीय समिति की अपनी मांग छोड़ने वाला नहीं है। केंद्र सरकार ने इस मांग से बचने के लिए यह एक नया शिगूफा छोड़ा है कि स्पेक्ट्रम आवंटन कोई राजस्व हानि नहीं हुई और इस बारे में नियंत्रण एवं महालेखा परीक्षक का आकलन हवा-हवाई है। केंद्र सरकार चाहे जैसे कुतर्क क्यों न दे, स्पेक्ट्रम आवंटन में घोटाला एक ऐसी सच्चाई है, जिसे अब दबाया नहीं जा सकता। ऐसा लगता है कि कांग्रेस यह समझने के लिए तैयार नहीं कि उसकी ओर से स्पेक्ट्रम घोटाले पर पर्दा डालने की जितनी कोशिश की जा रही है, आम जनता की यह धारणा उतनी ही मजबूत होती जा रही है कि शायद घोटाले का पैसा उसके लोगों ने भी खाया है।
आम जनता में यह धारणा भी घर कर रही है कि यह सरकार महंगाई पर लगाम लगाने में नाकाम है। ऐसी धारणाओं के चलते कांग्रेस और मनमोहन सरकार आम जनता की नजर से उतरती जा रही हैं। अपने दूसरे कार्यकाल में मनमोहन सरकार की इसलिए अधिक दुर्गति हो गई है, क्योंकि खुद प्रधानमंत्री की छवि तार-तार हो गई है। विपक्ष न केवल उन पर तीखे हमले कर रहा है, बल्कि उनसे त्यागपत्र भी मांग रहा है।
इस वर्ष पांच राज्यों-असम, तमिलनाडु, पांडिचेरी, केरल और प. बंगाल में विधानसभा चुनाव होने हैं। इन राज्यों में विपरीत प्रदर्शन केंद्र में कांग्रेस के पतन का सिलसिला कायम कर सकता है। यदि ऐसा न भी हो तो भी इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि अनेक गैर-कांग्रेसी राज्य सरकारों का बेहतर प्रदर्शन केंद्र सरकार को नाकाम सिद्ध कर रहा है। बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा आदि राज्यों में जनहित के जैसे काम हो रहे हैं उससे स्पष्ट है कि इन राज्यों में कांग्रेस की वापसी आसान नहीं होगी। अब तो ऐसे हालात उत्तर प्रदेश में भी नजर आने लगे हैं। मायावती सरकार विधानसभा चुनाव निकट आते देखकर जिस तरह प्रशासन को कसने और छवि निर्माण के अभियान में जुट गई है उससे सपा, भाजपा समेत कांग्रेस की वापसी का सपना धूमिल पड़ सकता है। यदि 2012 में कांग्रेस उत्तर प्रदेश में उल्लेखनीय प्रदर्शन नहीं कर सकी तो इसका असर 2014 के आम चुनाव पर भी पड़ेगा-इसलिए और भी कि तब राहुल गांधी करिश्माई नेता की छवि से हीन हो चुके होंगे।
जब कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार जनहित तो छोडि़ए, अपनी छवि के हित वाले फैसले भी नहीं ले पा रही है तब यह देखना सुखद है कि मध्य प्रदेश, बिहार देश को सुशासन और बुनियादी बदलाव की राह दिखा रहे हैं। मध्य प्रदेश ने लोक सेवा गारंटी कानून के जरिये यह साबित करने की कोशिश की है कि प्रशासन जनता की सेवा के लिए है। इस कानून के तहत प्रशासन पर प्रभावशाली तरीके से नकेल कसी गई है। मध्य प्रदेश इस तरह का कानून लागू करने वाला पहला राज्य बना है। इसी तरह का कानून बिहार ने भी बनाया है। जब केंद्र सरकार सूचना अधिकार में संशोधन कर उसे जटिल बनाने जा रही है तब मध्य प्रदेश और बिहार में आम जनता का सशक्त अधिकारों से लैस होना उल्लेखनीय है। आश्चर्यजनक रूप से जनहित अधिकार गारंटी अधिनियम के जरिये उत्तर प्रदेश भी मध्य प्रदेश और बिहार की कतार में आ खड़ा हुआ है। बिहार ने विधायक निधि खत्म करने का फैसला एक झटके में ले लिया। इसके विपरीत देश की सबसे मजबूत मानी जाने वाली नेता सोनिया गांधी कांग्रेसी मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को विवेकाधीन अधिकार छोड़ने की सलाह देने तक ही सीमित रह सकीं। मध्य प्रदेश सरकार ने किसानों को एक फीसदी पर कर्ज मुहैया कराने का फैसला कर यह साबित किया कि राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो मुश्किल नजर आने वाले फैसले भी आसानी से लिए जा सकते हैं।
दूसरी ओर यह जानना कठिन है कि केंद्र सरकार को द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशें लागू करने में परेशानी क्यों हो रही है? केंद्र सरकार चाहती तो इन सिफारिशों पर अमल की घोषणा अपने पिछले कार्यकाल में ही कर सकती थी, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। इस आयोग की सिफारिशें मंत्रियों के एक समूह के हवाले करके छुट्टी पा ली गई और कोई नहीं जानता कि यह समूह क्या कर रहा है? सच तो यह है कि ऐसे न जाने कितने समूह अस्तित्व में हैं। कुछ उच्चाधिकार प्राप्त समूह भी हैं। हाल ही में एक और मंत्री समूह गठित किया गया है। इसे सोनिया गांधी के भ्रष्टाचार विरोधी पांच सूत्रीय बिंदुओं पर अमल करने के लिए गठित किया गया है। इस समूह के अध्यक्ष भी प्रणब मुखर्जी बताए जा रहे हैं। प्रणब मुखर्जी दर्जनों ऐसे समूहों की अध्यक्षता कर रहे हैं। वह एक तरह से कार्यकारी प्रधानमंत्री की भूमिका में हैं। शायद इसीलिए अरुण शौरी ने उन्हें सबसे योग्य प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री करार दिया। अरुण शौरी की सलाह पर कांग्रेस शायद ही गौर करे, लेकिन देश यह देख रहा है कि प्रधानमंत्री अपने दूसरे कार्यकाल में हर महत्वपूर्ण मुद्दे को मंत्री समूहों के हवाले करने पर कुछ ज्यादा ही जोर दे रहे हैं। यह इसलिए आश्चर्यजनक है, क्योंकि माना जा रहा था कि वह अपने दूसरे कार्यकाल में ज्यादा सशक्त होकर उभरे हैं।
[राजीव सचान: लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं]
Source: Jagran Yahoo
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