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प्रधानमंत्री की मजबूरियां

संपादकीय ब्लॉग
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‘जूते भी खाए, प्याज भी खाया और जुर्माना भी दिया’ कहावत केंद्रीय सत्ता पर पूरी तरह से लागू होती है। पहले सरकार 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति गठित करने की विपक्ष की मांग पर राजी नहीं हुई, जिस कारण संसद के शीतकालीन सत्र में कामकाज नहीं हो सका। इसके बाद प्रधानमंत्री ने लोक लेखा समिति के समक्ष उपस्थिति के लिए पत्र लिखा और अब बजट सत्र से पहले सयुक्त ससदीय समिति के लिए तैयार हो गए। इसके पीछे भले ही यह तर्क दिया जा रहा हो कि सरकार बजट सत्र का वही हश्र नहीं होने देना चाहती जो शीतकालीन सत्र का हुआ है, लेकिन सच्चाई यह है कि संचार घोटाले के बाद घोटालों का जो पिटारा खुला उससे सरकार की विपक्ष का सामना करने की हिम्मत टूट गई और प्रधानमत्री मनमोहन सिह को यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं हुई कि वह मजबूर हैं। यद्यपि इस मजबूरी का ठीकरा उन्होंने ‘गठबधन की अपरिहार्यता’ पर फोड़ कर खुद को बचाने का प्रयास किया है, किंतु वास्तविकता यह है कि वह द्वितीय विश्व युद्ध से पूर्व इंग्लैंड के प्रधानमंत्री चैंबरलेन के समान कमजोर इरादे वाले प्रधानमंत्री साबित हो रहे हैं।


सत्ता पक्ष के इन दावों में कोई दम नहीं है कि वह घोटालों की सीबीआई जाच कराकर भ्रष्टाचार के खिलाफ कठोर कदम उठा रहा है। वास्तविकता यह है कि जांच जैसी कार्रवाई और पद से हटाने जैसे कदम तभी उठाए गए जब बच निकलने के सारे रास्ते बद हो गए तथा प्रधानमत्री मनमोहन सिह की स्वच्छ छवि तार-तार होने लगी। घोटाले के सदर्भ में सीधे प्रधानमंत्री पर आक्षेप पर अब विरोध के स्वर नहीं उठते। लोकसभा चुनाव के समय लालकृष्ण आडवाणी द्वारा मनमोहन सिंह को कमजोर प्रधानमत्री कहना जिन लोगों को बुरा लगा था, वही अब खुलेआम उनके कमजोर होने के प्रति सहमति जता रहे हैं। जो मीडिया उनके प्रति उदार था, ‘मजबूरी’ जाहिर करने के बाद अब उसका रुख कटु हो गया है। इससे तो यही लगता है कि मनमोहन सिह भले ही कार्यकाल पूरा करने का दावा करें, जनता यह मानने लगी है कि प्रधानमंत्री के रूप में उनके कार्यकाल का अंत निकट है। 2-जी स्पेक्ट्रम मामले में संयुक्त संसदीय समिति के लिए सहमत होना सरकार की विवशता का परिचायक है। यह इस बात का भी परिणाम है कि बचाव के सारे रास्ते बद होने के साथ-साथ न केवल प्रधानमत्री बल्कि काग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाधी पर भी उंगली उठने लगी है। एक के बाद एक घोटालों और प्रशासनिक अधिकारियों की नियुक्ति पर उठ रहे सवाल सोनिया गाधी को भी लपेटे में ले रहे हैं। यह खुला रहस्य है कि भले ही प्रधानमंत्री का पद मनमोहन सिह के पास हो, सत्ता की कुंजी तो सोनिया गांधी के हाथ में ही है। मनमोहन सिह महज मोहरे हैं। मोहरे के रूप में उनकी छवि में जितना निखार आता जाएगा, सोनिया गांधी पर उतनी ही जवाबदेही बढ़ती जाएगी।


संचार घोटाले के साथ-साथ इसरो समझौते पर, जो अब रद कर दिया गया है, सीधे प्रधानमत्री की जवाबदेही बनती है। इसी के साथ मुख्य सतर्कता आयुक्त और मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष को लेकर जो छीछालेदर हो रही है, उससे भी प्रधानमंत्री की छवि धूमिल हुई है। शायद इस स्थिति से ध्यान बटाने के लिए ही उन्होंने मत्रिमडल में फेरबदल का पासा फेंका है और बजट सत्र के बाद और व्यापक फेरबदल की घोषणा की है। किंतु इस दिखावे से उनकी छवि में कोई सुधार नहीं हुआ है। सभवत: सचार घोटाले के मामले में जेपीसी के लिए तैयार होने के पीछे विपक्ष के साथ-साथ उनकी अपनी पार्टी के सदस्यों का बढ़ता दबाव भी कारण है। इसके अलावा महंगाई को लेकर उभर रहे असंतोष को विस्फोटक होने से रोकने के लिए बजट सत्र के बाद व्यापक फेरबदल का वायदा किया गया है।


जिस तरह चैंबरलेन ने हिटलर के सामने घुटने टेक दिए थे, उसी प्रकार मनमोहन सिह भी हर उस समस्या के आगे घुटने टेक रहे हैं, जिससे देश की जनता त्रस्त है। ये समस्याएं प्रशासनिक तंत्र की असफलता उजागर करती है। शर्म-अल-शेख में पाकिस्तान के प्रधानमत्री के साथ जारी सयुक्त वक्तव्य से देश शर्मसार हो गया था। विदेश नीति के मोर्चे पर बार-बार नासमझी का परिचय दिया जा रहा है। अमेरिका द्वारा भारत के अपमान की घटनाएं बढ़ती जा रही है। राजनयिकों को अपमानित करने के बाद एक अमेरिकी विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले भारतीय छात्रों के पैरों में रेडियो कॉलर बाधने की घटनाएं यह स्पष्ट करती है कि अमेरिका भारतीय नागरिकों के साथ अमानवीय व्यवहार कर रहा है। यह एक ऐसा मामला है जिस पर देशभर में गुस्सा फूट पड़ना चाहिए था, लेकिन कहीं भी इसके विरोध में रैली नहीं हुई। युवा संगठनों तक ने इसका संज्ञान इसलिए नहीं लिया क्योंकि देश का प्रधानमंत्री मजबूरी का इजहार कर स्वतंत्र देश के नागरिकों का स्वाभिमान कुचल चुका है।


आज भारत के सामने समस्याओं का अंबार लगा है। ऐसे में कमजोर इरादों और आचरण वाले प्रधानमंत्री से उनके समाधान की आशा करना व्यर्थ है। नेतृत्व परिवर्तन की धारणा जोर पकड़ती जा रही है। देश के लिए यह कोई अच्छी स्थिति नहीं है। भारत को मजबूर नहीं मजबूत प्रधानमंत्री की जरूरत है और जैसाकि लालकृष्ण आडवाणी ने कहा है मनमोहन सिंह जितना कमजोर प्रधानमंत्री आज तक कोई नहीं हुआ। मनमोहन सिह ने अपना कार्यकाल पूरा करने का दावा किया है। यदि उन्हें प्रधानमंत्री बने रहना है तो मजबूर नहीं मजबूत होना पड़ेगा। अन्यथा उन्हे पद छोड़ देना चाहिए।


[राजनाथ सिंह ‘सूर्य’: लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं]

Source: Jagran Yahoo

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