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नए सवालों में राजनीति

संपादकीय ब्लॉग
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संसद में शोर-शराबा और हंगामा कोई नई-अनोखी बात नहीं, लेकिन तेलंगाना के मुद्दे पर गुरुवार को लोकसभा में जो कुछ हुआ उससे लोकतंत्र के इस सर्वोच्च सदन की गरिमा तार-तार हो गई। तेलंगाना के गठन का विरोध कर रहे सीमांध्र के सांसदों ने जिस तरह सदन के अंदर धक्कामुक्की, हाथापाई की, माइक और शीशे तोड़े उससे भारतीय लोकतंत्र पर एक गहरा दाग लग गया। सबसे गहरा दाग सीमांध्र के कांग्रेस से निलंबित सांसद लगड़ापति राजगोपाल ने सदन के भीतर मिर्च स्प्रे का छिड़काव करके लगाया। उनकी इस हरकत के बाद सांसदों को बाहर निकलने के लिए विवश होना पड़ा और कुछ को तो अस्पताल में उपचार के लिए जाना पड़ा। राजगोपाल और उनके साथियों के आचरण से लोकतंत्र ही नहीं समूचा देश शर्मिदा हुआ। राजगोपाल एक अरबपति सांसद हैं। इंजीनियरिंग की डिग्री से लैस राजगोपाल एक उद्यमी के रूप में भी जाने जाते हैं। तथ्य यह भी है कि उन्होंने सरकारी कृपा और संरक्षण से ही अपना औद्योगिक साम्राज्य खड़ा किया है। यह कहीं अधिक शर्मनाक है कि ऐसी पृष्ठभूमि वाले सांसद ने भी संसद की गरिमा का तनिक भी ख्याल नहीं किया। राजगोपाल सीमांध्र के अकेले ऐसे कांग्रेसी नेता नहीं है जो तेलंगाना विरोध पर अड़े हुए हैं और इस मसले पर पार्टी नेतृत्व की भी परवाह नहीं कर रहे हैं। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री किरण कुमार रेड्डी भी तेलंगाना के गठन के खिलाफ अपनी ही पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं। ऐसा लगता है कि या तो कुछ कांग्रेसी नेता ही सीमांध्र के अपने नेताओं को उकसाने में लगे हुए हैं या फिर कांग्रेस आलाकमान का असर अब पहले जैसा नहीं रहा। ध्यान रहे कि एक समय कांग्रेस आलाकमान का निर्देश पार्टी नेताओं के लिए आदेश की तरह होता था। अब ऐसा नहीं दिख रहा। इस पर भी गौर करना होगा कि संसद को शर्मसार करने वाली इस घटना पर गांधी परिवार रहस्यमय तरीके से मौन धारण किए हुए है।


यह आश्चर्यजनक है कि कांग्रेस पहले तो लंबे समय तक तेलंगाना गठन के प्रस्ताव को ठंडे बस्ते में डाले रही और फिर उसने आनन-फानन उसके पक्ष में फैसला कर लिया गया। एक नए राज्य के गठन के पूर्व जिस तरह का विचार-विमर्श होना चाहिए था और सभी पक्षों को भरोसे में लिया जाना चाहिए था वैसा कुछ नहीं किया गया। इसका दुष्परिणाम आंध्र प्रदेश में राजनीतिक अफरातफरी के रूप में सामने आ रहा है। पहले यह राज्य तेलंगाना के गठन की मांग कर रहे लोगों के आंदोलन से जूझता रहा और अब विभाजन का विरोध कर रहे राजनीतिक दलों और संगठनों ने इसे सुलगा दिया है। तेलंगाना की आग से न केवल आंध्र प्रदेश, बल्कि संसद भी झुलसती नजर आ रही है। संसद का मौजूदा सत्र तो पूरी तरह तेलंगाना के मुद्दे की भेंट चढ़ता दिख रहा है। माना जा रहा है कि भाजपा ने तेलंगाना पर केंद्र सरकार का साथ इस शर्त पर देने का फैसला किया था कि वह राजनीतिक लाभ के लिए लाए जा रहे कुछ भ्रष्टाचार विरोधी विधेयकों को पारित कराने की हड़बड़ी नहीं दिखाएगी, लेकिन ऐसा लगता है कि सरकार का पूरा सदन प्रबंधन धरा का धरा रह गया। संसद के दोनों सदनों में तेलंगाना संबंधी विधेयक पेश करते हंगामा हो गया। 1नि:संदेह तेलंगाना का विरोध कर रहे सांसदों को अपनी बात रखने का अधिकार है, लेकिन यह काम नियमों और मर्यादा के दायरे में रहकर ही किया जा सकता है। इससे अधिक शर्मनाक और कुछ नहीं हो सकता कि सांसद ही संसद की गरिमा गिराने का काम कर रहे हैं।

निर्धनता पर राजनीति


शायद यही कारण है कि आम जनता की निगाह में संसद और सांसदों के प्रति सम्मान भी कम होता जा रहा है। लोकतंत्र में अगर जटिल मसलों को संसद में नहीं सुलझाया जाएगा तो कहां सुलझाया जाएगा? संसद विचार-विमर्श का मंच है, बाहुबल दिखाने का अखाड़ा नहीं। अपने अमर्यादित आचरण से सांसद भावी पीढ़ी को कोई सही संदेश नहीं दे रहे हैं। यह देश अपनी आजादी के बाद से प्रमुख राजनेताओं के जीवन से प्रेरणा ग्रहण करता रहा है। आज तो स्थिति यह है कि ऐसे राजनेताओं को उंगलियों पर गिनना भी मुश्किल है जिनका व्यवहार और आचरण अनुकरणीय हो और जिन्हें देशवासी अपना आदर्श मान सकें। लोकसभा और राज्यसभा की नियमावली में सदस्यों के लिए आचार संहिता भी शामिल है। दोनों सदनों के सदस्यों के लिए संसदीय परंपराओं और नियमों के आधार पर व्यवहार संबंधी कुछ मानदंड भी तय किए गए हैं, लेकिन न तो सांसद इन नियमों का पालन करने के प्रति गंभीर हैं और न ही राजनीतिक दल। बदली स्थितियों में सांसदों के लिए नई आचार संहिता निर्माण होना चाहिए, लेकिन कोई इसकी सुधि नहीं ले रहा है।


अगर कांग्रेस के लिए तेलंगाना का मामला गले की फांस बन गया है तो इसके लिए वह अपने अलावा अन्य किसी को दोष नहीं दे सकती। उसने आंध्र प्रदेश में अपने खिसकते राजनीतिक आधार की क्षतिपूर्ति के लिए ही तेलंगाना के गठन की दिशा में आगे बढ़ने का निर्णय लिया था। उसे यह भरोसा था कि सीमांध्र में होने वाले राजनीतिक नुकसान की भरपाई तेलंगाना में मिलने वाले समर्थन से हो जाएगी। वाइएस राजशेखर रेड्डी के समय में आंध्र कांग्रेस का सबसे मजबूत गढ़ बन गया था, लेकिन उनके निधन के बाद जब उनके पुत्र जगनमोहन रेड्डी ने बगावत कर अलग पार्टी बना ली तो कांग्रेस को यह महसूस हुआ कि उसके लिए अगले चुनाव में 2009 का प्रदर्शन दोहराना मुश्किल होगा। यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि इस संभावित नुकसान से चिंतित होकर ही कांग्रेस ने तेलंगाना के गठन की वर्षो पुरानी मांग को आनन-फानन पूरा करने का मन बनाया। अब यह साफ है कि तेलंगाना के मामले में कांग्रेस ने राजनीतिक स्वार्थो को पूरा करने के लिए जो हड़बड़ी दिखाई वह उसे बहुत भारी पड़ रही है। 1कांग्रेस एक लंबे अर्से से जाति, क्षेत्र और भाषा के आधार पर वोट बैंक की राजनीति करती आ रही है। कम से कम अब तो उसे अपनी रीति-नीति और तौर-तरीकों पर फिर से विचार करना ही चाहिए। अगर वह समाज के सभी लोगों के साथ एक जैसा व्यवहार नहीं करेगी तो इसका खामियाजा देश के साथ-साथ खुद उसे भी उठाना होगा। सबसे पुराना दल होने के नाते कांग्रेस को ही अपने स्तर पर सुधार की पहल करनी होगी। इससे न केवल उसकी अपनी साख बढ़ेगी, बल्कि देश, समाज और राजनीति का भी हित होगा। पिछले दिनों पार्टी के महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने आरक्षण का आधार आर्थिक करने का सुझाव देकर कांग्रेस को एक अवसर प्रदान किया था, लेकिन हैरत की बात है कि उनके विचारों को सुनने के लिए भी कोई तैयार नहीं हुआ-यहां तक कि पार्टी का नेतृत्व भी नहीं। एक सही सुझाव को स्वीकार करने में वोट बैंक की राजनीति आड़े आ गई। मौजूदा समय देश के समक्ष यह बड़ी चुनौती है कि किस तरह समाज को जोड़ने की पहल की जाए। लोगों की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ ऐसे प्रयास भी होने चाहिए जिससे उनमें राष्ट्र भाव जागृत हो। समाज में विभाजन को गहराने वाली पहचान की राजनीति अब समाप्त होनी ही चाहिए। इसमें संदेह है कि आगामी लोकसभा चुनाव में कोई भी राजनीतिक दल सामाजिक एकता को अपना चुनावी एजेंडा बनाने के लिए आगे आएगा। इन स्थितियों में बेहतर यही होगा कि आम जनता अपने स्तर पर राजनीतिक दलों को इसके लिए विवश करे कि वे सामाजिक विभाजन वाली राजनीति न कर सकें। एक समय भाजपा ने अपने राजनीतिक तौर-तरीकों से यह भरोसा दिलाया था कि वह सामाजिक एकता के लक्ष्य को अपनी प्राथमिकता में सबसे ऊपर रखेगी, लेकिन यह देखना शेष है कि वह आने वाले समय में इस भरोसे को पूरा करने की दिशा में आगे बढ़ती है या नहीं और वह लोगों का भरोसा हासिल कर पाती है या नहीं।


इस आलेख के लेखक संजय गुप्त हैं


आतंक से सतर्कता जरूरी



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