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राजनीति का सबसे बड़ा छल

संपादकीय ब्लॉग
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उच्च पदस्थ लोगों के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए एक प्रभावी कानून बनाने का वायदा आजादी के बाद भारत की जनता के साथ किया जाने वाला राजनीतिक वर्ग का सबसे बड़ा छल है। जवाहर लाल नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक प्रत्येक सरकार ने एक ऐसे संस्थान की स्थापना का वायदा किया है जो भ्रष्ट मंत्रियों पर अंकुश लगाएगा, लेकिन किसी ने इस वायदे को पूरा करने की गंभीर कोशिश नहीं की। पिछले दिनों अन्ना हजारे के साथ समझौते के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने जो घोषणा की वह निश्चित रूप से इसी छल को एक नए स्तर पर ले गई है।


भ्रष्टाचार के कैंसर ने हमारे आजादी के आंदोलन की महान प्राप्तियों को नष्ट करना आरंभ कर दिया है, इसकी सबसे पहले स्वीकारोक्ति 1960 के दशक में तब हुई जब संथानम समिति ने इस समस्या पर विचार किया और अपने कुछ सुझाव दिए। इसके साथ ही पहले प्रशासनिक सुधार आयोग की रपट भी आई, जिसने एक लोकपाल की नियुक्ति का सुझाव दिया, जो मंत्रियों के भ्रष्ट आचरण पर निगाह रखे। केंद्रीय स्तर पर लोकपाल की तर्ज पर राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति की जानी थी, लेकिन लोकपाल की नियुक्ति के साथ धोखेबाजी की शुरुआत इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल से आरंभ हो गई। उनकी सरकार ने 1968 में लोकपाल बिल लोकसभा में पेश किया-भलीभांति यह जानते हुए कि निचले सदन में पेश किया गया बिल सदन भंग किए जाने की दशा में मृत हो जाएगा। यही हुआ।


इसके बाद से इस बिल को पेश करने के आठ आधे-अधूरे प्रयास किए जा चुके हैं और इनमें से ज्यादातर तब किए गए जब कांग्रेस सत्ता में थी। चार दशक की इस लीपापोती के बाद गत वर्ष मनमोहन सिंह की सरकार ने सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस के समर्थन से लोकपाल बिल का जो मसौदा तैयार किया वह लोगों को धोखा देने की एक और कोशिश थी। इस मसौदे में नागरिकों को भ्रष्ट मंत्रियों और सांसदों के खिलाफ लोकपाल से शिकायत करने का अधिकार देने के बजाय सरकार ने हरसंभव तरीके से भ्रष्ट तत्वों को बचाने और शिकायकर्ता को भयभीत करने के उपाय किए। मसौदे में कहा गया कि लोकपाल केवल एक सलाहकार के रूप में कार्य करेगा, जो सक्षम अधिकारी तक शिकायतों को अग्रसारित करेगा। उसके पास न तो पुलिस की शक्तियां होंगी और न ही वह एफआइआर दर्ज कर सकेगा। सीबीआइ भी उसके दायरे में नहीं आएगी। इसके अतिरिक्त सरकारी लोकपाल भ्रष्टाचार के किसी मामले का स्वत: संज्ञान नहीं ले सकेगा। वह तभी कार्रवाई की शुरुआत कर सकेगा जब लोकसभा के स्पीकर अथवा राज्यसभा के सभापति ऐसा करने की अनुमति देंगे। इस सबके बाद दोषी राजनेताओं को छह माह से सात वर्ष की सजा सुनाई जाएगी।


इस बकवास बिल के विपरीत अन्ना हजारे ने जन लोकपाल बिल के रूप में जो मसौदा तैयार किया है उसके तहत लोकपाल चुनाव आयोग सरीखी एक स्वतंत्र संस्था होगी, जिसके पास मंत्रियों, न्यायाधीशों और नौकरशाहों के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायतों को सुनने की शक्ति होगी। वह एफआइआर भी दर्ज कर सकेगा। कुल मिलाकर जन लोकपाल बिल की भूमिका केवल सलाहकार की नहीं होगी। अन्ना हजारे की टीम ने जन लोकपाल बिल का जो मसौदा तैयार किया उसमें यह व्यवस्था दी गई है कि लोकपाल लोगों से सीधे शिकायतें प्राप्त करेगा और इसके अनुरूप कार्रवाई करेगा। सरकार द्वारा प्रस्तावित लोकपाल और अन्ना हजारे के जनलोकपाल में एक अन्य बड़ा अंतर है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी यह नहीं चाहते हैं कि लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री भी आएं-खासकर विदेश, सुरक्षा और रक्षा संबंधी मामलों को लेकर। इसके विपरीत अन्ना हजारे का मसौदा ऐसी कोई बंदिश नहीं लगाता और यह सही भी है। बोफोर्स एक रक्षा सौदा था, जिसमें सेना के लिए तोपें खरीदी गई थीं। इस सौदे में गांधी परिवार के एक मित्र ओत्रवियो क्वात्रोची ने कमीशन प्राप्त किया और इस मामले ने भारतीय राजनीति को हिला दिया। मौजूदा संप्रग सरकार नहीं चाहती है कि फिर से ऐसी कोई स्थिति उत्पन्न हो। सरकारी लोकपाल में बड़ी चतुराई से लिखा गया है कि सब कुछ सुरक्षा मामले को देखते हुए गोपनीय रखा जा सकता है और इस तरह से लोकपाल उसकी जांच नहीं कर सकते। उदाहरण के लिए यदि सरकारी प्रस्ताव के अनुरूप लोकपाल होता तो पिछले वर्ष जब 1.76 लाख करोड़ रुपये का 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला सामने आया तो बड़ी आसानी से स्पेक्ट्रम आवंटन को सुरक्षा से जुड़ा मामला बता दिया जाता। तब यह घोटाला लोकपाल के दायरे से बाहर हो जाता।


सरकारी लोकपाल और जनलोकपाल में अंतर के अन्य मामले भी है। अन्ना हजारे द्वारा प्रस्तावित मसौदे में दो साल के भीतर जांच और मुकदमे की कार्रवाई पूरी करने की व्यवस्था की गई है, लेकिन सरकारी मसौदे में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। यहां तक कि दोषी लोगों को सजा देने के मामले में भी मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी ने नरमी की व्यवस्था की है। सरकारी मसौदे के मुताबिक भ्रष्टाचार के दोषियों को छह माह से सात साल तक की सजा हो सकती है। इसके विपरीत अन्ना हजारे द्वारा प्रस्तावित मसौदे में पांच वर्ष से लेकर आजीवन कारावास तक का प्रावधान किया गया है।


आजकल इस पर भी लोगों में सहमति है कि भ्रष्टाचार के दोषियों को अपनी अवैध संपत्ति के साथ यूं ही बच नहीं निकलने देना चाहिए. बल्कि उनसे नुकसान की भरपाई कराई जानी चाहिए। अन्ना हजारे के मसौदे में कहा गया है कि सरकार को जो क्षति होती है उसकी भरपाई दोषी लोगों से की जानी चाहिए। उदाहरण के लिए यदि ए. राजा 1.76 लाख करोड़ रुपये के सरकारी नुकसान के दोषी हैं तो उनकी सारी संपत्ति जब्त कर ली जानी चाहिए। दुर्भाग्य से मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी ऐसा कोई प्रावधान नहीं चाहते। उनके मसौदे में भ्रष्ट तत्वों से वसूली के संदर्भ में कोई प्रस्ताव नहीं है। इसके अतिरिक्त सरकारी मसौदे में शिकायतकर्ताओं को भयभीत करने के भी पुख्ता इंतजाम किए गए हैं। मसौदे में कहा गया है कि झूठी शिकायतें देने वालों को दंडित किया जाना चाहिए और उन्हें जेल भी भेजा जाना चाहिए। अन्ना हजारे के मसौदे में भी कहा गया है कि जो लोग झूठी शिकायतें दर्ज कराते हैं उन पर जुर्माना लगाया जाना चाहिए, लेकिन उनका मसौदा आम आदमी को भयभीत नहीं करता।


यह विचित्र है कि भ्रष्टाचार पर इस तरह का रवैया रखने वाली केंद्र सरकार अन्न्ना हजारे के साथ हुए समझौते को अपनी नैतिकता और ईमानदारी का प्रमाण बता रही है। बिल्कुल सही कहा गया है कि आप सभी को हर समय मूर्ख नहीं बना सकते, लेकिन लगता है कि यह पाठ नेहरू-गांधी परिवार कभी नहीं सीखेगा।


[ए. सूर्यप्रकाश: लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं]

साभार: जागरण नज़रिया

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