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प्रधानमंत्री का राजनीतिक जवाब

संपादकीय ब्लॉग
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बहुत से ऐसे राजनेता है जो जनसमर्थन हासिल करने के बाद अपने राजनीतिक दल को कॅरियर में बाधा मानने लगते है और एक नई राह पकड़ लेते है। अभिजात वर्ग के जवाहरलाल नेहरू को कांग्रेस में अन्य नेताओं से राजनीतिक और व्यक्तिगत दूरी बनाए रखने के लिए विशेष प्रयास करना पड़ा था। प्रथम प्रधानमंत्री के सामाजिक तबके में अधिकांश कांग्रेसी राजनेताओं को साधारण कोटि का, अशिक्षित, संकीर्ण मानसिकता वाला माना जाता था। बहुतों को आलसी, गोपूजा करने वाला और ज्योतिषी व आयुर्वेदिक दवाओं में विश्वास रखने वाला माना जाता था। कुछ पर बेईमान का ठप्पा लगा था। धोतीवालों को लेकर नेहरू की अरुचि आंशिक रूप से वर्ग समस्या थी। हालांकि प्रमुख रूप से यह उस कुंठा का परिणाम था जो शक्तिशाली प्रांतीय नेताओं पर सवारी न गांठ पाने से पैदा हुई थी। इंदिरा गांधी को कांग्रेस को नीचा दिखाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी, क्योंकि जहां तक उनका सवाल था, वह खुद कांग्रेस थीं। किसी और का कोई मतलब नहीं था।


हालांकि अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में भाजपा के प्रति जबरदस्त विद्वेष जरूर देखने को मिला था। वाजपेयी के बहुत से सहयोगियों का मानना है कि अटल बिहारी वाजपेयी को ‘गलत पार्टी में सही व्यक्ति’ माना जाता था। उनका कद भारतीय जनता पार्टी से भी इतना ऊंचा था कि यह बताने में भी एक प्रकार से उनकी हेठी थी कि वह भाजपा नेता है। वास्तव में राजग सरकार के बहुत से फैसले भाजपा की नीति के उलट या अलग थे। वाजपेयी के दरबारियों ने जिस भद्दे तरीके से उन्हे भाजपा से अलग दिखाने की कोशिश की उसका उतना ही हास्यास्पद दोहराव मनमोहन सिंह के मामले में नजर आ रहा है। लगता है कि रेसकोर्स रोड की तीन कोठियों में कोई वास्तुदोष है कि इनमें रहने वाले प्रधानमंत्री मानने लगते है कि उनकी शक्ति में राष्ट्रपति और राजाओं की शक्ति निहित है। सिंह इज किंग तो महज एक गाना है। यह खेल मजेदार तब बनता है जब शीर्ष सत्ता पर काबिज लोग अपने पद को पूर्णतया राजनीतिक अजूबा मान बैठते है। पिछले सात माह से संप्रग सरकार एक के बाद एक भ्रष्टाचार के विपक्ष के वारों का सामना कर रही है। घोटालों ने तीन मंत्रियों की बलि ले ली है, फिर भी मनमोहन सिंह की अपने खुद के मंत्रियों को काबू में रखने की क्षमता पर सवालिया निशान लगा है। अपने राजनीतिक कॅरियर में मनमोहन सिंह पहली बार आलोचना और हंसी के पात्र बने है। एक ऐसा व्यक्ति जिसने सार्वजनिक जीवन में अपनी शिक्षा और जानकारी के बल पर प्रवेश पाया, अब जैसे कुछ न जानने को कला की एक विधा के रूप में स्थापित कर चुका है। उनकी साफ-सुथरी छवि पूरी तरह दागदार हो गई है। जुलाई 2008 में वोट के लिए नोट घोटाले पर विकिलीक्स के नए खुलासों के बाद पिछले सप्ताह मनमोहन सिंह को विपक्ष के आरोपों की भारी गोलाबारी झेलनी पड़ी। इस बात से साफ इनकार के अलावा कि न तो वह खुद और न ही कोई कांग्रेसी इस घोटाले में शामिल था, प्रधानमंत्री इस आरोप का कोई विश्वसनीय जवाब नहीं दे पाए कि किशोर चंद्र देव संसदीय समिति को उद्धृत करते हुए उनका बयान तथ्यों से परे था।


विडंबना यह है कि इतना सब होते हुए भी प्रधानमंत्री इस भीषण संसदीय युद्ध से साफ बच निकले। यह इसलिए संभव हो पाया कि उन्होंने भाजपा की सुरक्षा की सबसे कमजोर कड़ी पर जोरदार प्रहार किए। लालकृष्ण आडवाणी की प्रधानमंत्री बनने की अदम्य लालसा पर तंज कसते हुए उन्होंने भाजपाइयों को हताशों की टोली साबित कर दिया। महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने किसी भी सदन में विपक्ष के नेता को निशाना नहीं बनाया। उन्होंने सोचसमझ कर ऐसे व्यक्ति को चुना जो चुनाव हार गया और जनादेश से असंतुष्ट रहा।


‘मैंने तुम्हे ऐसा बताया था,’ वाला रवैया अपनाकर आडवाणी ने सरकार पर विपक्षी हमले की धार भोथरी कर दी। कभी खत्म न होने वाले घोटालों के वार से कांग्रेस को गंभीर क्षति पहुंची, किंतु प्रधानमंत्री ने किसी तरह खुद का अधिक नुकसान होने से बचा लिया। वास्तव में, विकिलीक्स पर बहस के बाद मनमोहन सिंह एक सप्ताह पहले के मुकाबले कहीं मजबूत होकर उभरे है। यह राहत तात्कालिक हो सकती है, क्योंकि अभी संप्रग के पिटारे में घोटालों के प्रेतों के निकलने का सिलसिला बंद नहीं हुआ है। फिर भी फिलहाल, प्रधानमंत्री इस बढ़त के आधार पर आक्रामक विपक्ष और खुद अपनी पार्टी के साथ संबंधों में सुधार कर सकते है।


मोहाली में भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच देखने का मनमोहन सिंह का पाकिस्तान के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को दिया गया न्यौता वास्तव में शिष्टाचार वश दिया गया है, किंतु जिस तरीके से इसे प्रचारित किया जा रहा है उससे लगता है कि एक अनपेक्षित शुरुआत को भांपकर प्रधानमंत्री भारत-पाक वार्ता को फिर से पटरी पर लाने को उतावले है। यह शर्म-अल-शेख समझौते के बाद चौतरफा आलोचना से घिरने के बाद भारत के धीमे चलो रुख के विपरीत है। अस्थिर पाकिस्तान से नजदीकी बढ़ाने से एक बार फिर भारत दुस्साहसिक कूटनीति के अखाड़े में कूद पड़ा है। प्रधानमंत्री अपनी संशयग्रस्त पार्टी के सामने कुछ सकारात्मक कर दिखाना चाहते है। हमारी पड़ोस नीति न केवल घरेलू मजबूरियों की बंधक है, बल्कि यह एक छवि चमकाने का ऐसा खेल बन गई है जिसमें प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी शामिल है।


[स्वप्न दासगुप्ता : लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं]

Source: Jagran Nazariya

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