Menu
blogid : 133 postid : 614

न्यायिक सुधारों का समय

संपादकीय ब्लॉग
संपादकीय ब्लॉग
  • 422 Posts
  • 640 Comments

भोपाल गैस त्रासदी के 25 वर्ष बाद हम सब जाग गए हैं और इसके पहले कि हम कुछ कहें या करने की कोशिश करें, सबसे जरूरी यह है कि हम राष्ट्र और उसकी संस्थाओं की ओर से भोपाल के लोगों से क्षमा याचना करें। अब इस पर भी ध्यान देने का समय है कि हजारों लोगों की जान लेने वाली इस घटना में फैसला आने में ढाई दशक का समय कैसे लग गया। हर कोई यह जानता है कि भोपाल गैस त्रासदी में न केवल हजारों लोग मारे गए, बल्कि लाखों अन्य इससे प्रभावित हुए। हम अभी भी नहीं जानते हैं कि क्या भोपाल में रहना आज भी सुरक्षित है। हमारे तंत्र में बहुत गंदगी फैल चुकी है। सच तो यह है कि सिस्टम सड़-गल चुका है।

 

पिछले कुछ वर्र्षो में सिस्टम को कुछ इस तरह का रूप दे दिया गया है कि यह केंद्र और राज्य में सत्ता में बैठे लोगों तथा उनके करीबियों के अनुकूल बन गया है। फिर भी यदि हम आरोप-प्रत्यारोप के सिलसिले को किनारे करें और दिसंबर 1984 के बाद की घटनाओं से आगे बढ़कर देखें तो हमें नजर आएगा कि किस तरह 1995 के बाद के समय में यह मामला कमजोर होता गया। हमें गहराई से सीबीआई, पीवी नरसिंह राव के नेतृत्व वाले गृह मंत्रालय की भूमिका पर भी निगाह डालनी होगी। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट में केस के विवरण को भी देखना होगा। प्रश्न यह है कि क्या सरकारी एजेंसियों ने इस मामले को कमजोर बनाया। क्या लॉबी सिस्टम ने काम किया? यह संभव है कि यूनियन कार्बाइड के पक्ष में किसी लॉबी ने काम किया हो। सच्चाई यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया उससे मामला काफी कमजोर हो गया और इससे न्याय का उद्देश्य ही अपूर्ण रह गया। हैरानी की बात है कि इसके बाद एक के बाद एक सरकारों ने चीजों को दुरुस्त करने के लिए कुछ नहीं किया। इस लिहाज से हमें कांग्रेस के साथ-साथ भाजपा, वामपंथी दलों द्वारा समर्थित जनता दल तथा अनेक क्षेत्रीय दलों को भी दोष देना होगा। कानूनी मंत्री वीरप्पा मोइली कई अवसरों पर भावनात्मक हो सकते हैं, लेकिन सुधार तो तब होगा जब वह अपनी भावनाओं के अनुरूप व्यवस्था में सुधार की पहल करेंगे अर्थात न्यायिक सुधारों की प्रक्रिया को गति देंगे।

 

मुझे कोई संदेह नहीं कि भोपाल गैस मामले में मंत्रियों का समूह मुआवजे के मामले में सकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करेगा। इसके अलावा अन्य सुविधाओं पर भी दृष्टिपात करने की जरूरत है। इस समूह को यूनियन कार्बाइड के तत्कालीन प्रमुख वारेन एंडरसन के प्रत्यर्पण के लिए नए सिरे से प्रयास करने होंगे। राजनीति लोगों की धारणाओं से चलती है, न कि कानूनी तर्क-वितर्क से, लेकिन इसके साथ ही हमें यह भी देखना होगा कि धारणाएं गलत न बनने पाएं। यह इसलिए जरूरी है, क्योंकि 2010 की राजनीति 1984 की तुलना में खासी अलग है। दिसंबर 1984 अर्थात भोपाल गैस त्रासदी से संबंधित घटनाओं का ब्यौरा अनेक वेबसाइट पर पड़ा हुआ है। यदि कोई थोड़ा-बहुत समय खर्च करे और इनसे संबंधित सामग्री का अध्ययन करे तो उसका संदेह दूर हो सकता है। तब शायद व्यर्थ के आरोप-प्रत्यारोप की जरूरत नहींपड़ेगी।

 

यह हैरत की बात है कि मीडिया के कुछ हिस्से अभी भी नए-नए रहस्योद्घाटनों का दावा कर रहे हैं। 1994 में मीडिया की खबरों और संवाददाता सम्मेलनों के आधार पर मैंने अपने पहले साक्षात्कार में जो कुछ कहा था उसे मैं दोहरा सकता हूं। उस समय फैसले मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह और प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने लिए थे, जैसा कि होना चाहिए। प्रधानमंत्री के रूप में राजीव गांधी ने वह किया जो वह कर सकते थे। 2010 में कोई भी यह अंदाज नहीं लगा सकता कि भोपाल में हादसे के वक्त क्या स्थिति थी?

 

इस मामले में मीडिया को दोष नहीं दिया जा सकता, क्योंकि तब अनेक पत्रकार या तो स्कूल में रहे होंगे या पैदा भी नहीं हुए होंगे। मैंने कम से कम 50 पत्रकारों से बात की है और उन्हें उस समय की जमीनी सच्चाई से अवगत कराने की कोशिश की है। अक्टूबर 1984 के बाद तीन माह का समय बहुत कष्ट भरा था। आने वाले समय में मैं इस दौर की घटनाओं के बारे में विस्तार से प्रकाश डालूंगा। मेरा दृढ़ विश्वास है कि यदि हम सुपर पावर का दर्जा पाना चाहते हैं तो हमें अपने अतीत का सम्मान करना सीखना होगा और उन लोगों के प्रति सम्मान प्रदर्शित करना होगा जिन्होंने भारत को गौरवान्वित किया। मैंने हर किसी से अनेक मामलों में किसी नतीजे पर पहुंचने से पहले मीडिया की खबरों का अध्ययन करने का आग्रह किया है। कई लोगों ने इस पर अमल किया। उम्मीद है कि आने वाले समय में जैसे-जैसे हम प्रकरण के दूसरे चरण में पहुंचेंगे तो बेहतर समझ विकसित होगी।

 

राजनीति में इस समय फिर से घटनाएं तेजी से घट रही हैं। राज्यसभा के चुनावों में काफी कुछ रोचक देखने को मिला। कुछ सीटों के लिए होने वाले राज्यसभा चुनाव एक प्रकार से नीलामी जैसी स्थितियां उत्पन्न कर देते हैं। सभी पार्टियां इस मामले में एक जैसी ही हैं। इसी प्रकार ललित मोदी के बीसीसीआई के मुकाबले उतरने से आईपीएल विवाद पर फिर से ध्यान गया है। हमें एक और ऐसा मामला देखने को मिल सकता है जो 25 वर्ष की अवधि पार कर जाएगा। ललित मोदी ने हजारों पन्नों का जो पहला जवाब सौंपा है उसे पढ़ने में ही अच्छा-खासा समय लग जाएगा। खेलों की ही बात करें तो खेल मंत्री एमएस गिल सभी खेल संघों और भारतीय ओलंपिक संघ से पदाधिकारियों के कार्यकाल को लेकर मुकाबला कर रहे हैं। देखना यह है कि इस संघर्ष का क्या परिणाम सामने आता है?

Source: Jagran Yahoo

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh